Sunday, August 31, 2014

आत्म-तत्व

                   मनुष्य तन अत्यंत दुर्लभ है और पूर्व जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप यह प्राप्त होता है। हम प्राय: अपने इस शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इसीलिए संसार में रहकर हम शरीर-सुख के लिए प्रतिपल प्रयासरत रहते हैं, जबकि प्राणी का शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर और मूल्यहीन है। शारीरिक सुख क्षणिक हैं, अनित्य हैं। इसलिए ज्ञानी जन शरीर के प्रति ध्यान न देकर, अंतरात्मा के प्रति सचेत रहने की बात करते हैं। अंतरात्मा के प्रति ध्यान देने से प्राणी का जीवन सार्थक होता है। शरीर नाशवान है और आत्मा अजर-अमर। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात हमारा केवल शरीर ही  बदलता है जैसे हम सदैव वस्त्र बदलते है।
                  आत्मा तो अपने अस्तित्व के साथ सर्वदा वर्तमान है, क्योंकि उसका अवसान नहीं होता। इतना सब कुछ जानने के बाद भी हम शरीर को पहचानते हैं, उसका गर्व करते हैं और आत्मा के महत्व को हम गौण मानते हैं। यह हमारी अज्ञानता ही तो है। शरीर से हम कर्म भले ही करते हों, किंतु प्रेरक शक्ति आत्मा ही है। जिस प्रकार दीपक का महत्व ज्योति से है, उसी प्रकार शरीर का महत्व आत्मा से है, किंतु हम शरीर को ही सत्य मानकर उसका मोह करते रहते हैं। यह हमारी भयंकर भूल है। यह अज्ञान है। यह तो सभी जानते हैं कि मोह का चिरंतन मूल्य नहीं होता। एक न एक दिन व्यक्ति के मन से मोह दूर हो जाता है। उसे शरीर का रूप, गर्व, अहंकार आदि सभी महत्वहीन लगते हैं। महलों में रहने वाले संपन्न लोगों और जंगलों में तपलीन संन्यासियों-ऋषियों में शरीर के प्रति अलग-अलग अवधारणाएं होती हैं। संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को सत्य मानकर सदैव भौतिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं। वहीं संन्यासी शरीर को नाशवान और गौण मानकर आत्मा की आराधना में लीन रहकर भजन में व्यस्त रहते हैं। ऋषि को शरीर के चोला बदलने का सत्य ज्ञात हो चुका है। इसीलिए वह मस्त है और संपन्न व्यक्ति सदैव चिंताओं से ग्रस्त और भौतिक सुविधाओं के लिए व्यस्त रहता है। दोनों में यही मौलिक अंतर है। आत्मा के सत्य को समझ लेने के बाद शरीर का महत्व कम हो जाता है। शरीर और आत्मा के बीच संतुलन बनाकर रहने वाला व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं होता। ज्ञान का उदय होते ही अज्ञान स्वत: समाप्त हो जाता है। शरीर केवल माध्यम है और आत्मा उसका संचालन करती है।
                        || हरिः शरणम् ||

Friday, August 29, 2014

मूर्ति-पूजा

                    मूर्तियां माध्यम भर हैं, ईश्वर के प्रति एकाग्र होने का। हमें धर्मग्रंथों या प्रतीक पुरुषों का अनुसरण करने के बजाय स्वयं अनुभव प्राप्त करना चाहिए। 
स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
              संसार में सर्वत्र एक न एक रूप में आपको मूर्तियां मिलेंगी। कहीं मूर्ति का आकार मनुष्य जैसा है। मूर्तियों में मनुष्य ही सबसे उत्कृष्ट रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की पूजा करना चाहूं, तो मैं पशु, इमारत या अन्य किसी आकृति की अपेक्षा मनुष्य की आकृति को अधिक पसंद करूंगा। एक संप्रदाय समझता है कि अमुक रूप में ही मूर्ति ठीक तरह की है, तो दूसरा समझता है कि वह बुरी है। यही है मूर्ति-पूजा का दोष।
               वस्तुत: धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही प्रमुख सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव न प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और ईसा या मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। इसी प्रकार उनके जो विचार थे, उन्हीं को सोचने से हमारी मुक्ति नहीं हो सकती। इन बातों में मेरे विचार बिल्कुल मौलिक हैं। कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि मेरे विचार तभी ठीक हैं, जब वे प्राचीन आचार्यो के विचारों से मिलते-जुलते हैं, पर दूसरे समय मैं समझता हूं कि उन लोगों के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मुझसे सहमत होते हैं।
            स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्यो से बिल्कुल स्वतंत्र होकर विचार करो। उनका सब प्रकार आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र होकर ही करो। मुझे अपने लिए प्रकाश अपने आप ढूंढ़ निकालना होगा, जैसा कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि न होगा।
              तुम्हें स्वयं बाइबिल 'बनना' होगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, मार्ग-प्रदर्शक साइन बोर्ड के समान उसका आदर करना होगा। धर्मग्रंथ की सारी उपयोगिता बस इतनी ही है। पर ये मूर्तियां तथा अन्य वस्तुएं इस काम की हैं कि अपने मन को एकाग्र करने के प्रयत्न में या किसी विचार पर मन को दृढ़ रखने के लिए आवश्यक हैं।
              दो प्रकार के लोगों को मूर्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक तो वे, जिन्हें ईश्वर का विचार ही नहीं आता और दूसरा, पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति, जो इन सब सीढि़यों को पार कर गया होता है। इन दोनों छोरों के बीच में ही सब को किसी न किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है। यह आदर्श चाहे किसी स्वर्गीय मनुष्य के रूप का हो अथवा जीवित पुरुष या स्त्री के रूप का। यह व्यक्तित्व और शरीर की पूजा है तथा बिल्कुल स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है।
              यह परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने, उसके कुछ अधिक समीप जाने के समान है। यदि कोई मनुष्य अरुंधती तारे को देखना चाहता है, तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है, तब उसको उससे छोटा तारा दिखाते हैं। ऐसा करते-करते क्रमश: उसको अरुंधती तक ले जाते हैं। इसी तरह ये भिन्न-भिन्न प्रतीक और प्रतिमाएं ईश्वर तक पहुंचा देती हैं। बुद्ध और ईसा की उपासना प्रतीक पूजा है।
             इससे हम ईश्वर की उपासना के समीप पहुंचते हैं। पर इससे मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसे तो ईश्वर तक जाना चाहिए, जिस ईश्वर ने बुद्ध और ईसा के रूप में अपने को प्रकट किया, क्योंकि अकेला ईश्वर ही हमें मुक्ति दे सकता । 
                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, August 28, 2014

सुख -दुःख -११

                            सुख और दुःख के बारे में हम इस चर्चा को चाहे जितनी लम्बी खींच सकते हैं । भला सुख कोई क्यूँ नहीं चाहेगा ? सब सुख को ही चाहते हैं ,दुखी होना कोई भी नहीं चाहता  । फिर  भी दुःख तो जीवन में आयेगा ही क्योंकि दुःख, सुख का सहोदर है । सुख के पीछे  पीछे दुःख का आगमन अवश्यम्भावी है । आप किसी की भी जिंदगी का इतिहास उठाकर देख सकते है औए स्वयं का भी । जिस समय आप सुख प्राप्त करने के लिए उसका बीजारोपण करते हैं ,उसके साथ ही आप अपने लिए दुःख का बीज भी बो देते हैं जिसका आपको उस समय भान नहीं होता परन्तु जब सुख के पीछे दुःख आता है तब आपको सुख प्राप्ति के प्रयास में रही इस कमी का अहसास होता है । परन्तु अब आप इस दुःख को सहन करने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकते ।
                       अब प्रश्न यही उठता है कि इस सुख के पीछे पीछे आने वाले दुःख से बचने  के लिए क्या किया जाये ? एक बात याद रखें,व्यक्ति चाहे कितना ही चमकदार व्यक्तित्व वाला हो उसकी परछाई सदैव ही स्याह ही होगी । परछाई कभी भी चमकदार नहीं हो सकती । यही सुख के साथ  है । सुख चाहे कितना ही आनन्ददायक हो दुःख सदैव ही इसके विपरीत कष्टदायक होगा । दुःख रुपी परछाई तभी बनती है जब आप सुख की चमक  में अधिक ही डूब  जाते हो । परछाई किसी भी व्यक्ति या वस्तु की तभी बनती है जब उस पर प्रकाश की किरणे पड़ती है । जब व्यक्ति स्वयं को चमक से बचाए रखेगा तभी वह अपनी परछाई बनने से रोक सकता है । अतः जीवन में स्वयं को चमकदार बनाने का प्रयास न करे,सम्मान  की चाहना न करे  क्योंकि व्यक्ति अपने सम्मान को ठेस लगना कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकता । इसीलिए उसे अपना जातिगत अपमान,व्यक्तिगत अपमान दारुण दुःख लगता है ,जैसा की गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा  है ।
                     जब आप सम्मान  नहीं चाहेंगे,सम्मान ही नहीं बल्कि किसी वस्तु की किसी से भी कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे तब आपको कभी भी किसी प्रकार का दुःख प्राप्त नहीं होगा । स्वयं के लिए कुछ प्राप्त करने की लालसा ही दुःख प्राप्त होने का कारण बनती है । अतः इस जीवन में यह गांठ बांध ले कि किसी से कुछ भी प्राप्त करने की कोई कामना नहीं रखेंगे । जितना  स्वयं से संभव होगा दूसरे की सहायता करेंगे ,बिना किसी कामना के । इस परमार्थ से जो सुख प्राप्त होगा वह चमक से दूर होगा और इस सुख की परछाई के रूप में कोई भी दुःख प्राप्त नहीं होगा । जिस सुख के बाद किसी भी प्रकार के दुःख का आगमन नहीं होता उस सुख को ही आनंद  कहते हैं ।
                            पूर्व मानव जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार इस जीवन में मिलने वाले सुख और दुःख को सहज भाव  से स्वीकार करें । सुख और दुःख प्राप्त होने की स्थिति में अपने आपको सम अवस्था में रखें । न तो सुख का स्वागत करें न ही दुःख का मान मर्दन करें । सभी को पूर्वजन्म के कर्मों का फल मानकर स्वीकार करें । ऐसी स्थिति में रहेंगे तो आप सुख में अतिउत्साहित भी नहीं होंगे और दुःख में व्यथित भी । यही आनंद की अवस्था है ।
                       उपसंहार के तौर पर मैंने आनंद की स्थिति प्राप्त करने के कुछ उपाय बताये हैं । एक बार आजमा कर देखें । आपका जीवन आनंद से सरोबार हो जायेगा । आनंद ही मुक्ति का द्वार है और आनंद ही परमात्मा ।
                                               ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Wednesday, August 27, 2014

सुख - दुःख-१०

                              इस प्रकार हम देखते हैं कि सुख की कामना एक सीमा तक ही उचित है । सीमा से अधिक प्राप्त करने की हौड़ में  भविष्य में मिलने वाला सुख भी किसी दारुण दुःख से कम नहीं होता है । सुख और दुःख व्यक्ति के पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप ही मिलता है  । जिस दिन यह विचार व्यक्ति अपने मन में बसा लेगा उस दिन से वह सुख प्राप्त करने के लिए एक सीमा से अधिक परिश्रम करना छोड़ देगा । इस जन्म में आप ऐसे कर्म करें ,जिससे आपको भावी जीवन में दुखों का सामना न करना पड़े ।  मेरी इस बात को सभी लोग पहले से ही जानते है परन्तु विश्वास कोई भी नहीं कर  पा रहा है । मनुष्य  की सबसे बड़ी विडंबना है यह, सब कुछ जानते और समझते हुए  भी वह यह मानाने को तैयार ही नहीं है कि नीति विरुद्ध किये हुए कर्मों का फल हमें दुखों के रूप में कभी न कभी भोगना अवश्य ही पड़ेगा । इस  जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ।
                             मनुष्य के  सामने ,उसी के संसार में पशुओं के  ,पक्षियों के और यहाँ तक कि पशुवत जीवन जी  रहे मनुष्यों  तक के उदाहरण हैं । वह जानता है कि  ऐसा जीवन वे इसलिए जी रहे हैं क्यंकि पूर्व मानव जन्म में  उन मनुष्यों ने इसी जीवन के अनुरूप कर्म किये थे । फिर भी वह इस जन्म में चेतता नहीं है बल्कि इसके विपरीत वह सुख की कामना में बिना सोचे समझे कर्मों को करते हुए चला जाता है । जब जीवन के अंत में उसे  मनोवांछित सुख प्राप्त नहीं होता तब वह हाथ मलते रहने के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकता । जीवन के संध्याकाल में न तो उसके शरीर में ऊर्जा बचती है और न ही समय । अब उसके पास नए जीवन में  जाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचता । वह पुनर्जन्म पाकर या तो निम्न योनियों में अपने नीतिविरुद्ध किये हुए कर्मों के फल के रूप में दुखों को भोगता है या फिर पुनः मानव जन्म पाकर  सुख प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो जाता है ।  दोनों ही परिस्थितियां मानव योनि के लिए दुःखदायी ही साबित होती है क्योंकि इस कारण से उसे इस संसार में बार बार जन्म लेने को विवश होना पड़ता है ।
                                 मानव जन्म परमात्मा ने बार बार जन्म लेकर  केवल सुख या दुःख बोगने के लिए ही नहीं दिया है । वे तो हमें अपने कर्मों के अनुरूप मानव जन्म में भोगने ही होंगे  परन्तु एक मनुष्य के रूप में हमें परमात्मा ने अपना भावी जीवन चुनने का अधिकार भी दिया  है । उस भावी जीवन के लिए हमें एक मनुष्य जीवन में ऐसे कर्म करने होंगे जिसका फल हमें आनंद के रूप में प्राप्त हों और इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल सके । मेरे कई मित्र मेरी इस मुक्ति वाली बात से सहमत नहीं है यह मैं जनता हूँ । मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक यही बात कहता है कि इस मनुष्य जीवन से भी मुक्ति पाकर हमें क्या मिलेगा? मेरा अपने मित्रों से सदैव प्रत्युत्तर में यही प्रश्न रहता है कि इस मनुष्य जीवन को प्राप्त कर के भी हमने क्या पाया है ? मैं आपसे भी यही पूछता हूँ कि क्या आप अपने इस मानव जीवन से  संतुष्ट हैं ? अगर उत्तर "हाँ" में है तो मैं कहूँगा कि फिर आप  मुक्त है और अगर उत्तर में आप "नहीं" कहते हैं तो फिर मेरा पहले वाला प्रश्न अभी भी अपने स्थान पर कायम है कि यह मनुष्य जन्म प्राप्त कर के भी हमने क्या पाया है ?
                                 सारांश यही है कि हम इस संसार में एक मानव के रूप में केवल सुख और दुःख भोगने और जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फंसने के लिए नहीं आये है बल्कि हमारा उद्देेश्य अपने जीवनमूल्यों के उत्थान का होना चाहिए । ये जीवन मूल्य हमारे अपने निजी स्वार्थ के लिए न होकर परमार्थ के लिए होने चाहिए । इस संसार में रहते हुए परमार्थ के मार्ग पर चलें । परमार्थ का मार्ग ही आनंद  देता है और यही मार्ग परमात्मा का मार्ग है और मुक्ति का मार्ग भी ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥   

Tuesday, August 26, 2014

सुख -दुःख -९

                        इस भौतिक संसार में पदार्पण के साथ ही व्यक्ति सुख-दुःख के चक्र में फंस जाता है । बढ़ती उम्र  के साथ यह प्रगाढ़ होता जाता है । यह प्रगाढ़ता इतनी अधिक हो जाती है कि कुछ  समय बाद व्यक्ति छोटी छोटी बातों को लेकर भी व्यथित होने लगता है । इस बढ़ती हुई प्रगाढ़ता के लिए व्यक्ति की सतत बदलती हुई मानसिकता जिम्मेवार है । सुख की चाहत उसे  अपने प्रभाव में इस प्रकार  जकड लेती है कि वह स्वयं को इसी सुख को प्राप्त करने के लिए अच्छे बुरे कर्मों के माया जाल में उलझा लेता है । सुख की कामना व्यक्ति की मनोदशा को इतना बदल देती है कि व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिए किये जा रहे कर्मों की विशेषता तक को भूला बैठता है  । उसका उद्देश्य येन केन प्रकारेण सुख प्राप्त करना ही हो जाता है । इसके लिये वह नीतिगत कर्म तक छोड़ देता है । नीति मार्ग का त्याग ही उसे दुखों की तरफ ले जाता है ।
                          जब सुखों को प्राप्त करने हेतु किये जा रहे प्रयास नीतिगत कर्मों के त्याग के कारण विफल हो जाते हैं तब व्यक्ति को अतिशय दुःख का अनुभव होता है । इस दुःख के कारण व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता तक प्रभावित हो सकती है क्योंकि व्यक्ति इस  असंभावित आये दुःख के लिए अपने आप को तैयार ही नहीं कर पाता है । वह सुखों को प्राप्त करने के लिए कर्मों में इतना व्यस्त हो जाता है कि वह केवल मात्र सुख प्राप्त होने का इंतजार करता है,दुःख आने की वह कल्पना तक नहीं करता है । इस बात को समझने के लिए एक छोटा सा प्रतिदिन जीवन में घटित होने वाली बातों का उदाहरण देना चाहूँगा । आपका कोई प्रिय व्यक्ति,प्रियजन जब कई वर्षों बाद आपसे  मिलने आ रहा  हो और आप  उसे लेने के लिए हवाई अड्डे,रेल्वे स्टेशन जा रहे हो तो आप उस संभावित मिलन सुख के अतिरेक में  अपना वाहन तेज गति  से चलाते हुए जाते हैं । इसी सुख को जल्दी प्राप्त करने के चक्कर में आप तेज गति  के कारण अपने वाहन पर से नियंत्रण खो बैठते हैं । इस कारण से दुर्घटना घटित होकर आपको शारीरिक क्षति पहुँच सकती है जो कि असंभावित दुःख  का कारण बनती है । इसी प्रकार धन को सुख प्राप्त  करने  का सर्वोत्तम साधन मानकर व्यक्ति उचित-अनुचित तरीके से धन कमाने  और संग्रह करने  लग जाता है । इसके लिए वह  एक सीमा से अधिक परिश्रम  करता है जो उसके शारीरिक क्षय का कारण बनती है ,शरीर रोग ग्रस्त हो जाता  है और व्यक्ति सुख न भोगकर दुःख को प्राप्त होता है ।
                           सुख की चाहत में व्यक्ति अपने क्रियाकलापों में इतना व्यस्त हो जाता है कि अपने वर्तमान समय में मिल रहे सुख की उपेक्षा करने लगता है । वह अपने प्रियजनों को उनके लिए उचित समय तक नहीं दे पाता , इस कारण से वे प्रियजन इसे अपनी उपेक्षा मानते हुए उसकी  जिंदगी से दूर जाने लगते है । मित्र उसका एक एक कर  साथ छोड़ते चले जाते  है और एक  स्थिति ऐसी आती है जब वह अपने आप को अकेला खड़ा पता है ।ऐसी स्थिति में आकर अगर सुख  भी मिलता है तो वह दुःख के समान ही होता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि सुख की चाहत में कहीं वे अकेले तो नहीं होते  जा रहे हैं ?
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥


Monday, August 25, 2014

सुख -दुःख -८

                           अनगिनत दुखों में सबसे बड़ा दुःख क्या है ? हम सबसे बड़े सुख की पहचान कर पायें अथवा नहीं इसकी हमें कोई फ़िक्र नहीं है  क्योंकि कोई भी सुख कभी भी बड़ा नहीं होता । जब हमें कोई सुख नसीब होता है तभी हमारी कामना और अधिक सुख प्राप्त करने की हो जाती है । जब और अधिक सुख मिल जाता है तब हमारी कामना का भी विस्तार हो जाता है और व्यक्ति  इससे भी अधिक सुख पाने की इच्छा करने लगता है । इस प्रकार व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी मनवांछित सुख प्राप्त नहीं कर पाता है क्योंकि कामनाओं का विस्तार कभी भी नियंत्रित नहीं हो पाता है । व्यक्ति चाहे तो कामनाओं को नियंत्रित कर सकता है परन्तु उसका मन उसे ऐसा करने रोक देता है । यही कारण है कि उसके जीवन में सुख प्राप्त करने की कामना कभी भी पूरी नहीं हो पाती । इसलिए कोई भी सुख कभी भी सबसे बड़ा सुख बन ही नहीं पाता है ।
                             इसके ठीक विपरीत दुःख है।  संसार में कोई भी दुःख छोटा अर्थात कम नहीं है ।किस को छोटा कहें,व्यक्ति को सभी दुःख बड़े ही लगते हैं । सुख सभी छोटे होते है और दुःख सभी बड़े होते हैं । जिस प्रकार सुखों में सबसे छोटा सुख कौन सा है  ,यह घोषित करना कठिन है ,उसी प्रकार समस्त दुखों में सबसे बड़ा दुःख भी ढूंढ पाना अति कठिन है । इस समस्या का निदान गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रन्थ रामचरितमानस में बड़े ही सुन्दर रूप से किया है । वे सबसे अधिक बड़े दुःख यानि दारुण दुःख के बारे में कहते हैं-
                  जद्यपि जग दारुन दुःख नाना । सब ते कठिन जाति अवमाना ॥ मानस १/६३/७ ॥
अर्थात,यूँ तो संसार में अनेक प्रकार के बड़े से बड़े,दारूण दुःख है परन्तु सबसे बड़ा दुःख किसी का भी जाति अर्थात निजी अपमान है । व्यक्ति अपने बड़े से बड़े दुःख को सहन कर सकता है परन्तु अपना व्यक्तिगत अपमान कभी भी सहन नहीं कर पाता है । इसीलिए तुलसी बाबा ने व्यक्तिगत अपमान को संसार का दारुण दुःख बताया है । यह एकदम सत्य है कि व्यक्ति स्वयं का अपमान कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाता है । अतः इसको संसार का सबसे बड़ा दुःख कहा जा सकता है ।
                   संसार में दुःख असीम है । इन दुखों का अनुभव उन्ही को हो सकता है जिन्होंने पूर्व में सुखों का अनुभव किया हो । सुख और दुःख का अनुभव तुलनात्मक होता है । बिना एक को अनुभव किये दूसरे को अनुभव नहीं किया जा सकता । सबसे पहले जब बचपन में शिशु को माँ लाड करती है,दुलारती है तब उसको पता नहीं होता कि  यह एक प्रकार का सुख है । परन्तु जब बच्चा बड़ा होकर कुछ शरारतें करता है तब यदा कदा माँ  उसे डांट देती है तब उसे पूर्व के सुख और वर्तमान में डाँट के दुःख का अनुभव होता है । इसी अवस्था से मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव होना प्रारम्भ होता है । यह अनुभव  समय के साथ साथ प्रगाढ़ होता जाता है और व्यक्ति ताउम्र इस सुख-दुःख के दुष्चक्र से बाहर निकल नहीं पाता है । यही इस जीवन का सत्य है ।
                                                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, August 24, 2014

सुख -दुःख -७

                               हमने अभी तक संसार के महत्वपूर्ण सात सुखों की बात की । सुख के अतिरेक में हम इतने खो गए कि उसके पीछे पीछे आने वाले दुःख को भूल ही गए । परन्तु यह दुःख भी कहाँ पीछा छोड़ने वाला है । वह तो सुख के पीछे परछाई की तरह साथ साथ चल रहा है । यह तो मानव स्वभाव में ही है कि वह कई बार सुख में इस कदर खो जाता है कि उसके बाद आने वाले दुःख की आहट तक सुन नहीं पाता है । आहट न सुन पाने के कारण ही व्यक्ति दुःख के आते ही स्वयं को असहज महसूस करने लगता है । जो व्यक्ति इतना समझ जाता है कि सुख के बाद दुःख अवश्य ही आएगा तो फिर वह दुःख आने पर इतना व्यथित भी नहीं होगा । सुख का सागर इतना गहरा होता है कि व्यक्ति उसमे आकंठ डूबा हुआ ही रहना चाहता है । इसी मानसिकता के कारण जब उसके जीवन में दुःख आता है तब वह उसका सामना करने से भी घबराता है ।
                          संसार के सात सुखों के विलोम स्वरूप सात दुःख भी हैं । शरीर का निरोग न रहकर रोगग्रस्त हो जाना,निर्धनता का आ धमकना, धर्मपत्नी का कर्कश स्वभाव होना ,पुत्र का अवज्ञा करते रहना,संसार में रहते हुए जगह जगह सम्मान मिलने के स्थान पर अपमानित होते रहना,शत्रुओं का आपको परास्त करना तथा परमात्मा की भक्ति में मन नहीं लग पाना । यह सभी उन सात सुखों की अवस्थाओं के विपरीत  की  अवस्थाएं है , अतः ये सभी दुःख की श्रेणी में आ जाती है । वैसे संसार में दुखों की संखाएं अनगिनत है । सुख तो सात प्रकार के ही हैं परन्तु दुखों की कोई सीमा नहीं है । व्यक्ति को सब कुछ मिल जाये तो भी दुखी रहता है और कुछ भी न मिल पाए तो भी दुखी रहता है । अतः सभी प्रकार के दुखों की गणना करना असंभव है । आज के समय में व्यक्ति को हर समय दुखी रहने की आदत सी पड़ गयी है । वह जो कुछ भी मिला है उसमे संतुष्ट रहना भूल गया है । संतुष्ट न होना ही उसके दुःख का सबसे बड़ा कारण है । जिस दिन वह प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीख जायेगा तब दुःख उसके आस पास भी नहीं फटकेगा । अब वह दिन कब आएगा ,इसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है । आज हम स्वयं को देखकर जीने के स्थान पर दूसरे की जिंदगी और स्तर को देखकर जीना चाहते हैं । हम एक दूसरे को अधिक सुखी और सतुष्ट समझते है । जब कि वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है ।
                          जिस दिन व्यक्ति स्वयं को देखते हुए जीने लगेगा उस दिन उसका दूसरे के जीवन में झांकना भी बंद हो जायेगा । तभी वह अपने आप में संतुष्ट रहने लगेगा । तभी वह दुखों से दूर जाने लगेगा अन्यथा दुःख उसका जीवनपर्यंत पीछा नहीं छोड़ेंगे ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥           

Saturday, August 23, 2014

सुख - दुःख -६

                             हमने संक्षिप्त में चर्चा की संसार के सातों सुखों की । हम जानते हैं कि सुख का विलोम है दुःख । अतः जो सुख नहीं है वह  दुःख है और जो दुःख नहीं है वह सुख है । और जो सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है-वह है आनन्द । मैं यह नहीं  कह रहा  हूँ कि जो सुख भी है और दुःख भी है वह आनन्द  है । इसलिए जरा शब्दों पर ध्यान दीजिये-जो सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है वह है आनंद । यहाँ  आप कहेंगे कि यह तो एक प्रकार की नकारत्मकता हुई । हाँ,यह नकारत्मकता ही है क्योंकि सकारात्मकता किसी भी अकेले एक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकती । सकारत्मकता के अनुसार अगर एक है तो दूसरा भी अवश्य है  परन्तु नकारत्मकता में एक है तो सिर्फ वही एक है दूसरे का कोई स्थान नहीं है । सकारत्मकता अगर कहती है कि सुख है तो उसका यह भी कहना है कि सुख के साथ दुःख भी है । नकारत्मकता अगर कहती है कि सुख नहीं है तो  इसका अर्थ यह हुआ कि फिर दुःख भी नहीं है । बिना सुख के दुःख भला कैसे हो सकता है ? फिर भी नकारत्मकता के भीतर भी कुछ छुपा हुआ अवश्य है । और जो इस नकारत्मकता के पीछे जो छुपा हुआ है वह है आनंद । सांसारिकता कुछ होने की कहती है अतः यह सकारत्मकता है और आध्यात्मिकता कुछ  भी न होने की कहती है अतः यह नकारत्मकता है । इस नकारत्मकता के पीछे जो छुपा हुआ है वह है  परमात्मा । परमात्मा का भी कोई विलोम नहीं है जैसे आनंद का कोई विलोम नहीं है । इसलिए जो सुख परमात्म भक्ति से मिलना प्रारम्भ होता है वह एक दिन केवल मात्र सुख  ही न रहकर आनंद में परिवर्तित हो जाता है ।
                       आनंद तो "गूंगा केरी सरकरा" है ,जिसकी मिठास को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता । आनंद  को तो केवल अनुभव किया जा सकता है । इस आनंद को आप व्यक्ति का चेहरा देखकर ही पहचान सकते है । शब्दों की कोई सार्थकता नहीं है,आनंद की अभिव्यक्ति के लिए । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति चीनी खाकर ,मिष्ठान्न खाकर उसकी अभिव्यक्ति में केवल मुस्कुरा ही सकता है उसी प्रकार आध्यात्मिकता में आनंदित व्यक्ति केवल आपना आनन्द अपने चहरे की भाव भंगिमा से ही प्रकट कर सकता है । तभी कबीर ने कहा है -"गूंगा केरी सरकरा खाय और मुस्काय"।
                            जब सुख दुःख में परिवर्तित हो सकता है तो फिर क्यों न हम केवल सुख के पीछे ही दौड़ रहे हैं । हमें आनंद प्राप्त करने के लिए प्रयास  करना चाहिए जिसमे न सुख है और न दुःख । आनंद  के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती बल्कि सुख प्राप्त करने का प्रयास छोड़ देना होता है । आपका यह त्याग  ही आपको आनंद  के द्वार तक ले जायेगा । आनन्द  में केवल परमात्मा है और परमात्मा ही हमारा स्वरुप है । हम जब अपने आप को पहचान जायेंगे तभी परमात्मा को पा लेंगे । आत्म-दर्शन ही परमात्म दर्शन है और वही आपका असीम अनंत सुख है -आनंद,आनंद और आनंद ।
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Friday, August 22, 2014

सुख - दुःख -५

                                  संसार में सुख  का अनुभव व्यक्ति की अच्छी मानसिक अवस्था पर निर्भर  होता है । जो अभी तक चार सुख गिनायें है वह व्यक्ति की मानसिक दशा को ही दर्शाते हैं । संसार का पांचवां सुख है मान-सम्मान,यश और प्रतिष्ठा । जिस व्यक्ति ने इस संसार में जन्म लेकर मान-सम्मान अर्जित कर लिया उसे एक प्रकार का मानसिक और आत्मिक सुख का अनुभव होता है । जिस को यश  प्राप्त नहीं होता उसे इसकी चाह होती है । इसी चाह को  के लिए वह ऐसे कर्म  करता है जिससे उसे भी मान- सम्मान मिले,यश और प्रतिष्ठा मिले । जब इसी क्रम में  कुछ असामाजिक कर्म हो जाते हैं तो यश के  स्थान पर वह व्यक्ति अपयश का भागी बनता है,जो उसके दुःख का कारण बनता  है ।
                                  संसार का छठा सुख है-शत्रु पर विजय । संसार की दृष्टि से  देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेकों प्रकार के व्यक्ति आते हैं ।  जिनमे कुछ उसके मित्र बन जाते हैं और कुछ शत्रु । शेष बचे व्यक्ति उभयावस्था में रहते हैं । वे प्रायः मित्र ही होते हैं परन्तु शत्रु कदापि नहीं होते । मित्र और उभय वर्ग के  व्यक्तियों से आपको किसी भी प्रकार  की समस्या नहीं  होती परन्तु शत्रु पक्ष के व्यक्ति आपके लिए प्रतिदिन कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते हैं ।  उन संभावित समस्याओं के कारण ,उन शत्रुओं के कारण आपका ध्यान सदैव उधर उनकी योजनाओं को धूलधूसरित करने में लगा रहता है । जिस दिन आप उनकी योजनाओं को विफल कर देते है, आपको अपार सुख का अनुभव होता है ।
                                 संसार  में सात  सुख ही होते है और इनमे सातवां और अतिमहत्वपूर्ण सुख है-परमात्मा की भक्ति । पहले वर्णित समस्त सुखों से व्यक्ति एक दिन अघा सकता है  परन्तु परमात्मा की भक्ति ही एकमात्र ऐसा सुख है जिसको  जितना भी प्राप्त करते जाएँ,व्यक्ति कभी भी अघाता नहीं है । यही एक मात्र सुख है जो  सब सुखों की खान है । परमात्मा की भक्ति से समस्त सुख प्राप्त किये जा सकते हैं । परमात्म भक्ति सुख की पराकाष्ठा है । सुखों की सर्वोच्च  अवस्था है । परन्तु मानव का स्वभाव देखिये,परमात्म भक्ति से मिलने वाले सुख को  इस जीवन में मिलने वाले समस्त सुखों की गणना में अंतिम स्थान दिया है ।
                          परमात्मा की भक्ति करना कोई आसान कार्य नहीं है इसीलिए इससे प्राप्त सुख को अंतिम स्थान मिला है । जब व्यक्ति के प्रथम छः सुख, दुखों में परिवर्तित होने लगते हैं तब उसे परमात्मा की याद आती है और वह उसकी भक्ति करके सुख प्राप्त करना चाहता है । वास्तव में अगर देखा जाये तो जीवन में  व्यक्ति जितनी जल्दी परमात्म भक्ति में लीन हो जाता है उतनी ही जल्दी  उसे समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता है ।इसका कारण व्यक्ति की मानसिक स्थिति में परिवर्तन हो जाना मात्र ही है । वह सांसारिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर जाने लगता है और आध्यात्मिकता में न सुख है और न ही कोई दुःख । आध्यात्मिकता में सिर्फ आनंद है और आनंद का विलोम कुछ भी नहीं है ।
                                                 ॥ हरिः शरणम् ॥     

Thursday, August 21, 2014

सुख -दुःख -४

                               इस संसार में रहते हुए मुझे भी कुछ सुख-दुःख का अनुभव हुआ है । सुख का अनुभव कभी भी स्मृति में नहीं रहता परंतु दुःख का स्मरण व्यक्ति को ताउम्र रुलाता रहता है  । मैं भी इस दौर से गुजरा हूँ और अभी भी कई बार गुजरता हूँ । कई बार मैं सोचता हूँ कि अगर संसार में सुख अथवा दुःख नहीं होता तो क्या होता ? शायद तब व्यक्ति के लिए इस जीवन की कोई अहमियत ही नहीं होती । आज जिस प्रकार आतंकवादी  मानवता का क़त्ल कर रहे हैं  उसका एक मात्र कारण यही है  कि उन आतंकवादियों को किसी और के सुख दुःख की परवाह नहीं है ,मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि स्वयं के सुख दुःख की भी कोई परवाह  नहीं है । अगर उनको परवाह होती तो क्या वे इस रास्ते  पर चलना पसंद करते ? शायद,नहीं करते।
                         संसार में सुख सात गिनाये गए हैं जबकि दुःख अनगिनत है ।कहते हैं कि पहला  सुख निरोगी काया । संसार का सबसे बड़ा सुख स्वस्थ शरीर का होना है । अगर व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं है तो उसके जीवन में अन्य सुखों का होना न होना बेकार है । वह न तो जीवन का आनंद ले पायेगा और न ही किसी परिवारजन को लेने देगा । अतः स्वस्थ शरीर को प्रथम और सबसे बड़ा सुख कहा गया है । अंग्रेजी की एक कहावत है कि A HEALTHY MIND LIVES IN A HEALTHY BODY अर्थात एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता  है । बिना स्वस्थ शरीर के व्यक्ति की मानसिकता भी स्वस्थ नहीं रह सकती । इस लिए यह सत्य ही कहा गया है कि "पहला सुख निरोगी काया "।  दूसरा सुख बताया गया है-"घर में माया "। घर में अथाह धन सम्पति हो तो व्यक्ति के जीवन में किसी भी प्राकर की कोई कमी नहीं रहती । धन से व्यक्ति जीवन में उसका भोग करते हुए शारीरिक सुख प्राप्त कर सकता है ।
                           तीसरा सुख बताया गया है -"घर में संस्कारवान नारी "। व्यक्ति की धर्मपत्नी अगर सुसंस्कारित हो तो वह उस व्यक्ति के लिए सुख का कारण होती है । संस्कारित पत्नी घर को व्यवस्थित रखती है और अपनी संतान का भी लालन पालन कर संस्कारित करती है जिससे  भविष्य में संतान की तरफ से भी व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता  है । ऐसे कई  परिवार मैंने देखें है जिसमे पत्नी का कर्कश व्यवहार होता है और फलस्वरूप उसकी  संतान संस्कारित नहीं हो पाती । इसी कारण से  व्यक्ति दोनों मोर्चों पर दुःख का अनुभव करता है-पत्नी के कर्कश स्वभाव के कारण और संतान के संस्कारित न होने के कारण । इसीलिए कहा जाता है कि पुत्र अगर संस्कारित हो  तो केवल एक घर में सुख का अनुभव होता है परन्तु अगर पुत्री सुसंस्कारित  हो तो वह दो परिवारों में  संस्कार का आधार तैयार करती है और सुख का लाभ प्रदान करती है ।
                   संसार का चौथा सुख बताया गया है-"पुत्र  आज्ञाकारी "। जिस व्यक्ति  का पुत्र उसका प्रत्येक आदेश मानाने को उद्यत हो ऐसा पिता अत्यंत सुखी माना जाता है । आधुनिक युग में ऐसे पुत्र मिलना दुर्भर होते जा रहे हैं । श्रवण कुमार  एतिहासिक हो गए है । पुत्र आज्ञाकारी होते  हैं तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही सुखमय बना रहता है ।
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥

Wednesday, August 13, 2014

सुख-दुःख-३

                          कर्म ही सुख दुःख का आधार है । बिना कर्म किये किसी भी प्रकार के सुख दुःख प्राप्त होने असंभव है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति कर्म ही नहीं करेगा उसे सुख या दुःख प्राप्त ही नहीं होगा और जब सुख या दुःख प्राप्त ही नहीं होगा तो फिर जीवन में किसी भी प्रकार की कोई समस्या ही नहीं रहेगी ।  ऐसा सोचना भी गलत है क्योंकि ऐसा होना असंभव है। जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति क्षण भर के लिए भी कर्म किये बगैर रह ही नहीं सकता ।जब कर्म करने ही पड़ेंगे तो सुख और दुःख उस कर्म के फल के रूप में अवश्य ही आयेंगे । इसलिए न तो कोई व्यक्ति कर्म किये बिना रह सकता है और न ही वह सुख या दुःख से डरकर दूर ही भाग सकता है । अतः इस संसार में रहते हुए व्यक्ति को कर्म करने भी होंगे और उन कर्मों के फलस्वरूप सुख और दुःख दोनों का ही सामना करना पड़ेगा ।
                           संसार में दुःख और सुख क्या  है ?अगर गहराई से देखा जाये तो सुख और दुःख व्यक्ति की मानसिक अवस्था मात्र है अन्यथा यहाँ किसी भी प्रकार का कोई  सुख दुःख है ही नहीं । आपको कोई एक घटना दुखी कर देती है और उस घटना  में थोडा सा परिवर्तन होते ही आप सुखी महसूस कर  सकते हैं । यही सुख और दुःख  को अनुभव करने का आधार है । एक छोटी सी घटना का उदाहरण देकर इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ । एक सेठ दुकान पर बैठा अपना व्यापार कर रहा था । अचानक  एक व्यक्ति दुकान पर आता है और सेठ को बताता है कि सेठजी आपका लड़का अभी अभी एक सड़क दुर्घटना में मारा गया है । सेठ काम धंधा छोड़कर लड़के का नाम ले लेकर विलाप करने लगता है । १० मिनट उपरांत दूसरा व्यक्ति आता है और सेठ को कहता है-"सेठजी,वह आपका लड़का नहीं है ,मृतक को पहचानने में भूल हो गई थी ,आपका तो लड़का यह रहा । वह तो कोई अन्य लड़का है । " तत्काल ही सेठ का विलाप करना बंद हो जाता है ।वह अपने पुत्र को गले लगा लेता है । अब  वह आपने आपको सुखी समझता है । थोड़ी देर पहले वही सेठ विलाप करते हुए दुखी था और अभी वह विलाप बंद कर परमात्मा को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अपने आप को सुखी समझ रहा है ।
                                   वास्तव में इन १० मिनट के भीतर ऐसा क्या परिवर्तन हो गया जिसने एक व्यक्ति को पहले  दुखी कर दिया और बाद में सुखी । इसके  पीछे यह बात भी नहीं है कि दुर्घटना घटित ही नहीं हुई । दुर्घटना घटित भी हुई और उस दुर्घटना में सेठ पुत्र जैसा दिखने वाला एक लड़का भी मारा गया । फिर सेठ को पहले दुःख और बाद  में सुख क्यों महसूस हुआ ? इसका एक मात्र कारण  है सेठ की मानसिकता । सेठ  पुत्र मोह की मानसिकता से ग्रस्त था । इसी मानसिकता के कारण उसे एक ही घटना से दुःख और सुख दोनों की अनुभूति हुई । वास्तव में देखा जाये तो पुत्र किसी का भी उस दुर्घटना में मारा गया हो सेठ को दुःख होना चाहिए था । समता का प्रारम्भ इसी भावना के साथ होता है कि सबका दुःख मेरा दुःख । इसके बाद ही व्यक्ति  इस राह पर बढ़ाते हुए सुखः और दुःख को समान समझने लगेगा  और यह अवस्था आध्यात्मिकता  की अवस्था होगी । सांसारिकता से आध्यात्मिकता की ओर की यात्रा ।
                                                 ॥ हरिः शरणम् ॥
   

Monday, August 11, 2014

सुख-दुःख -२

                                   इस भौतिक संसार में आकर कौन व्यक्ति ऐसा होगा जिसको सुख प्राप्त करने कि कामना नहीं होगी । इसी सुख प्राप्ति के लिए व्यक्ति को कर्म करने कि आवश्यकता होती है । इसीलिए परमात्मा श्रीकृष्ण गीता में कहते है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति कभी भी बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता । यहाँ तक कि परमात्मा के लिए कभी भी और कहीं भी कर्म करना आवश्यक नहीं है परन्तु जब जब भी उन्होंने इस संसार में व्यक्ति के रूप में पदार्पण किया है,कर्म किये ही है । कर्म करने का कोई न कोई एक परिणाम निश्चित अवश्य होता है । बिना परिणाम का कोई भी कर्म नहीं होता । परमात्मा ने इस  संसार को चलाने के लिए कर्म को ही मुख्य आधार बना रखा है । जब किसी भी प्रकार के कर्म कि आवश्यकता समाप्त हो जाएगी तभी उसी दिन से इस संसार चक्र की समाप्ति हो जाएगी । गोस्वामी तुलसीदास ने महान ग्रन्थ श्री रामचरितमानस में भी लिखा है- " कर्मप्रधान विस्व करि राखा ।" अर्थात जिस रचनाकार ने इस संसार की  रचना की है उसने समस्त विश्व को कर्म पर आधारित कर रखा है । उसी कर्म के आधार पर संसार का चक्र घूमता रहता है । इस संसार चक्र की धुरी कर्म ही है ।
                              कर्म ही व्यक्ति के सुख और दुःख के कारण है । सुख की कामना में व्यक्ति कर्म करने को विवश होता है और इसी जोश में वह कुछ ऐसे कर्म कर जाता है जिनका परिणाम अत्यंत ही दुखदाई होता है । जो व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करते हैं उन्हें उसी अनुरूप फल प्राप्त होते हैं । प्रायः लोग इस बात कि चर्चा करते हैं कि फलां व्यक्ति के कर्म अच्छे नहीं है फिर भी वह सुखी जीवन जी रहा है । हो सकता है कि पूर्व जन्म में उसने अच्छे कर्म किये हों और उनके अनुरूप वह उनका फल सुख के रूप में भोग रहा हो । परन्तु जिस दिन उसके पूर्वजन्म के सत्कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जायेगा तब उसका सुखी जीवन भी समाप्त हो जायेगा । यह कभी भी नहीं हो सकता कि कर्मों का फल प्राप्त ही नहीं हो । समस्त कर्म तभी समाप्त होंगे जब उनका फल प्राप्त कर लिया जायेगा । अतः यह सोच गलत है कि कर्मों के अनुसार फल प्राप्त नहीं होता ।
                                  कई व्यक्ति यह भी कहते हैं कि पाप कर्म गंगा स्नान या दान देकर समाप्त किये जा सकते हैं । यह एकदम गलत है । कर्मों के फल तो सुख या दुःख के रूप में कहीं न कहीं और कभी न कभी अवश्य ही भोगने होंगे । अतः यह कभी भी न सोचें कि आज पाप कर्म करके भविष्य में दान,तीर्थ यात्रा या गंगास्नान से उनका परिमार्जन कर लेंगे । ऐसा होना असंभव है ।
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥        
                                  

Sunday, August 10, 2014

सुख-दुःख -१

                           यह संसार हमारी सोच ,हमारे विचार और हमारी मानसिकता की अभिव्यक्ति मात्र है । हमारे इन्ही विचारों और इसी मानसिकता के कारण ही हमें किसी भी प्रकार के सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है । यहाँ पर,इस भौतिक संसार में अगर सांसारिक मानसिकता से देखा जाये तो सुख और दुःख बराबर मात्रा चारों ओर बिखरे पड़े हैं और अगर आपकी मानसिकता या प्रवृति आध्यात्मिक है तो फिर सुख और दुःख नाम की कोई चीज कहीं है ही नहीं । जिस प्रकार यहाँ पर आर्थिक रूप से देखा जाये तो धन सम्पति जितनी इस संसार में बिखरी पड़ी है ,उसकी कुल मात्रा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है । वह जितनी इस सृष्टि के प्रारम्भ में थी उतनी ही आज है और इतनी ही भविष्य  में रहेगी । जिसके पास ज्यादा धन है वह अमीर कहलाता है और जिसके पास  धन का अभाव है, वह गरीब कहलाता है । जब इस धन का स्थान परिवर्तन हो जाता है तब अमीर ,गरीब हो जाता है और गरीब अमीर । यह व्यवस्था परमात्मा ने  बनायीं है और आदि काल से चली आ रही है । परन्तु क्या कोई व्यक्ति बिना धन सम्पति के भी अमीर हो सकता है ? हाँ,हो सकता है । जब व्यक्ति की सोच संसार से हटकर परमात्मा की ओर हो जाये । सांसारिक व्यक्ति आध्यात्मिक हो जाये । ऐसा हो जाने पर व्यक्ति समस्त संसार की सम्पति को परमात्मा की मानने लगता है । इससे उसकी सारी महत्वकांक्षाएं समाप्त हो जाती है । जिस व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार की कोई आकांक्षा नहीं रहती वही इस संसार में तत्काल ही सबसे अमीर व्यक्ति बन जाता है ।
                             ठीक इसी प्रकार सुख दुःख भी समान मात्रा में इस संसार में उपलब्ध है । आपकी जिंदगी में सुख का आगमन होता है और किसी की जिंदगी में दुःख का । आपका सुख किसी के लिए दुःख का कारण भी बन जाता है और किसी अन्य का सुख आपके दुःख का कारण बन सकता है । बरसात होना किसान के लिए सुख का कारण है तो धोबी के लिए दुःख का कारण । आपका पुत्र या पुत्र अपनी मर्ज़ी से कोई कार्य कर लेता है जो आको पसंद नहीं है तो वह कार्य आपको दुखी कर देता है जबकि उसे इससे सुख मिलता है । कहने का तात्पर्य यह है कि सुख और दुःख आपकी मानसिकता के अनुसार एक अनुभूति मात्र है अन्यथा सुख और दुःख नाम की कोई भी चीज इस संसार में नहीं है ।
                      जब आप संसारिकता छोड़ कर आध्यात्मिक बन जायेंग तब आप समस्त सुखों और दुखों की अनुभूति से ऊपर उठ जायेंगे । हमारी सबसे बड़ी कमी यही है कि हम स्वयं को सुखी देखना चाहते है । इसी सुख की आकांक्षा आपको दुखी भी कर देती है । पहले तो सुख प्राप्त करने के लिए अधिक शारीरिक परिश्रम से और फिर आपकी इच्छा के अनुकूल कम सुख की प्राप्ति मानने से और अंत में सुख केर शीघ्र तिरोहित हो जाने के भय से । इन तीनो के कारण आप उपलब्ध हुए सुख का भी आनंद नहीं ले सकते ।
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, August 9, 2014

तुलसी का संसार-4

                                   गोस्वामी तुलसीदास की रामकथा मात्र एक कहानी ही नहीं है । रामचरितमानस में केवल परमात्मा की प्रशंसा ही नहीं है अपितु इस संसार में जीने की कला सिखाने की क्षमता भी है । सनातन शास्त्रों में जो स्थान गीता का है वही स्थान काव्य ग्रंथों में रामचरितमानस का है । जिन लोगों को भाषागत दृष्टि से गीता पढ़ने में आनन्द नहीं आता ,वे रामचरितमानस को  सरल भाषा में होने के कारण पढकर उतना ही लाभ प्राप्त कर सकते हैं । संसार में किस प्रकार रहे यह गीता भी बताती है और मानस भी  । दोनों में किसी भी प्रकार का विरोधाभास नहीं है ।
                                    गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -" यो मा पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।. "जो मुझे सबमे और सभी जगह मुझको देखता है ,वह मेरे लिए कभी भी अदृश्य नहीं होता और उसके लिए भी मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ । यह  गीता में लिखा है । गोस्वामीजी रामचरितमानस में  इसी के अनुरूप लिखते हैं-
                          सिया राम मय सब जग जानी । करहूँ प्रणाम जोरी जग पानी ।
               अर्थात समस्त संसार को मैं सीता-राम समझते हुए सभी को सम्मान देते हुए,प्रणाम करता हूँ । सियाराममय से अर्थ है समस्त संसार में परमात्मा को देखना, प्रकृति और पुरुष को देखना । संसार में जितना भी दृश्यमान और अदृश्य है उन सब में परमात्मा को ही देखना । जब हम सबमे उसी को और उसी के अंतर्गत होना देखना प्रारम्भ करते हैं तो मित्र और दुश्मन का ,अपने और पराये का भेद समाप्त हो जाता है । जिस दिन यह भेद समाप्त हो जाता है उसी दिन आप जीवन जीने की कला सीख लेते हैं । यह भेद समाप्त हो जाने पर संसार आलोच्य नहीं रह जाता । फिर किस की प्रशंसा और किस की आलोचना ? यह समतापूर्ण  व्यवहार ही है जो आपकी दृष्टि से  संसार को ओझल कर देता है ।ज्योंही संसार अव्यक्त होता है ,उसकी निंदा करना संभव ही नहीं रहेगा । निंदा सदैव ही व्यक्त और व्यक्ति की होती है । कभी आपने मृत्यु उपरांत किसी की निंदा होते अथवा निंदा करते सुना है । प्रायः उस समय  उसकी निंदा नहीं होती क्योंकि वह व्यक्ति अब व्यक्त नहीं रहा बल्कि अव्यक्त हो गया । और  अव्यक्त की निंदा भला कौन करे और क्यों करे ?
                     परमात्मा अव्यक्त है  इसलिए उसकी निंदा संभव ही नहीं है । जब परमात्मा भी अव्यक्त से व्यक्त होता है ,उसकी भी निंदा प्रारम्भ हो जाती है । राम की भी हुई थी और कृष्ण की भी हुई थी । विश्वास न हो तो वाल्मीकि रामायण व महाभारत उठाकर देख लीजिये । सियाराम से यहाँ तात्पर्य प्रकृतिऔर पुरुष से है यानि परमात्मा से है । तुलसी समस्त जग को परमात्ममय जानकर उसे प्रणाम करते है और परमात्मा कभी भी आलोच्य नहीं है । ऐसा था तुलसी का संसार । रहे भी इस संसार में, बिना उसकी निंदा किये । आप भी अपने संसार में  रहते हुए उसे इसी प्रकार जियें ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥      

Thursday, August 7, 2014

तुलसी का संसार-3

                           राम-जन्म का वर्णन करते हुए महान कवि गोस्वामी तुलसीदास ने बालकाण्ड में एक बहुत ही सुन्दर छंद लिखा है | यह लोकप्रिय छंद प्रायः प्रत्येक सनातनी व्यक्ति और यहाँ तक की बच्चों को भी कंठस्थ है । उन्होंने इस छंद में लिखा है -
                      "" भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी ।
                        हरषित महतारी मुनिमन हारी अद्भूत रूप बिचारी ॥
                        …………………………………………....... ।
                       यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ 
                           विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
                           निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ बालकाण्ड-१९२ ॥
                इस छंद के अंतिम भाग में तुलसी कहते हैं कि प्रभु के इस चरित्र को जो गाता है वह परम पद पाने का उत्तराधिकारी होता है और इस संसार रुपी कुए में पुनः नहीं गिरता । यहाँ तुलसी ने इस संसार को  एक कुए की संज्ञा दी है । इस संसार का निर्माण आपकी आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार ही होता है और इस संसार  में शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद भी बार बार नए शरीर धारण कर आते रहते हो । जबकि आप जानते हैं कि कामनाएं और अपूरणीय इच्छाएं  आपको बार बार  जन्म लेने को विवश करती हैं । और सबसे बड़ी बात तो यह कि आप चाहे जितने जन्म ले लें ,ये कामनाएं कभी भी पूरी नहीं होने वाली ।
               जब तुलसी ने इस संसार को एक कुए की संज्ञा दी है तो मुझे कूपमंडूक की कहानी याद आ रही है । एक बहित ही गहर कुआं था । उसमे बहुत सारे मेंढक रहते थे । एक बार एक मेंढक कुए में भरने आई बाल्टी के सहारे बाहर आ गया । बाहर आकर जब उसने विशाल संसार को देखा तो उसे पता चला कि उस कुए के अलावा यहाँ  बहुत सुन्दर और विशाल  दुनिया  भी है । वह कुछ दूर तक इधर उधर घूमा और वापिस कुए की तरफ लौट चला । उसने सोचा कि जाकर सबको बताऊंगा । उसने कुए में छलांग लगा दी । उसने अपने से बुजुर्ग  मेंढक ,जो कि उनका नेता था ,को सारी बात कही । परन्तु वह मानने को तैयार नहीं हुआ । उसने हवा अपने जिस्म में भरकर ,उसे फू\लाते हुए पूछा कि बाहर कितनी विशालता है ? छोटा मेंढक हर बार कहता गया कि और अधिक बड़ी है । अपने जिस्म में हर बार अधिक हवा भरने से उस मेंढक का शरीर फट गया और वह मर गया ।
                 उस मेंढक की तरह ही हम सब है । केवल कूप मंडूक बने बैठे है । उस सृजक की विशालता का ,उसके सृजन की विशालता का हमें ताउम्र अनुभव ही नहीं हो पाता और हम इस भवकूप को ही सब कुछ माने बैठे हैं और एक शरीर छोड़कर दुसरे शरीर के साथ पुनः इस कुए रुपी संसार में लौट आते हैं । परमात्मा के चरित्र को याद करने से हमें उसकी विशालता का अनुभव होता है और हम लौटकर इस कुए में आने का प्रयास ही नहीं करेंगे ।  
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥   

Wednesday, August 6, 2014

तुलसी का संसार-2

                             समता का पालन करना ,इस संसार में दुधारी तलवार पर चलने के बराबर है । एक तरफ आपसे परिवार,मित्रों आदि की अपेक्षाएं है और दूसरी तरफ आपके सांसारिक कर्तव्य । व्यक्ति इन दोनों ही मोर्चों के मध्य खड़ा संघर्ष करता रहता है । ऐसे में समता का व्यवहार भला कैसे संभव है ? आपके कथित मित्रों और परिवारजनों के अनुसार ,समता आपको परिवार से दूर करती है और जिम्मेदारियों से बचने का एक  बहाना बनती है । जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । समता आपकी  दृष्टि को विशालता प्रदान करती है । आपके लिए परिवार,मित्र और स्वजनों से अन्य सभी  भी आपको अपने लगने लगते हैं । मित्र और दुश्मन का भेद समाप्त हो जाता है । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मित्र से सम्बन्ध समाप्त हो जाते है बल्कि इसका अर्थ है कि इस संसार में कोई भी दुश्मन नहीं रहता ,सभी मित्रवत होते हैं । परन्तु भौतिक संसार के सभी निकट के सम्बन्ध इस समता को अन्य परिपेक्ष्य में देखते हैं । उनके अनुसार समता के कारण व्यक्ति  परिवार से दूर होता चला जाता है और अपने कर्तव्य के प्रति गंभीर नहीं रह पाता । समतापूर्वक व्यवहार करने वाले को लोग पलायनवादी तक करार देते हैं । हाँ !काफी हद तक यह सही भी है कि कई व्यक्ति समता  की आड़ लेकर पलायनवादी  बन जाते हैं परन्तु फिर उनका यह "समता" का आचरण नहीं है ।
                      तुलसीदास जी समता के आचरण को और अधिक स्पष्ट करते हैं-
                                   तुलसी इस संसार में,भांति भांति के लोग ।
                                   सबसे हिल मिल चालिये ,नदी नाव संजोग ॥
                      इस संसार में आपके मित्र भी है ,दुश्मन भी हैं,परिवार भी है,स्वजन भी है ,जान पहचान वाले भी हैं और अनजान लोग भी है ,इस प्रकार इस संसार में अलग अलग प्रकार के लोग है । ये सभी लोग मिलकर आपका संसार बनाते हैं । तुलसी ने ऐसे सभी लोगों से युक्त संसार को एक नदी की उपमा दी है । आपको इस नदी से पार उत्तरना है । अगर आप इस नदी को पार करना चाहते हैं तो फिर आपको नाव बनना  होगा । नाव बनने के लिए आपको नदी में उतरना होगा और तैरते हुए दूसरे  किनारे पर पहुँचना होगा ।  इसके लिए अगर नाव ,नदी के साथ मिलकर नहीं चले तो उसका पार जाना असंभव है । इसी प्रकार इस संसार में विभिन्न लोगों से हिल मिलकर रहना ही आपको इस संसार से पार कर सकता है ,उनसे दुश्मनी गाँठ कर नहीं । तुलसी ने बहुत ही सरलता से समता की व्याख्या की है । संसार में हिलमिलकर रहना ही समता है । आपको अपने आपको नाव बनाना होगा तभी इससे पार पाया जा सकता है अन्यथा नहीं ।
                                                 ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, August 5, 2014

तुलसी का संसार-1

                                  गोस्वामी तुलसीदासजी ने शकर भगवान के द्वारा यह तो कहला दिया कि संसार एक सपना है ,सत्य नहीं । सत्य तो परमात्मा का भजन करना ही है ,सदैव उस परमात्मा को ही याद करते रहे,स्वप्निल संसार में न खोएं । परन्तु तुलसी इस संसार में कैसे रहे और अपने स्व-निर्मित संसार को किस प्रकार जीया ? यह जानना आवश्यक है । संसार सबका अपना अपना होता है ,तो अवश्य ही तुलसी का भी अपना संसार होगा । कल्पना चाहे स्वयं के लिए हो या परमात्मा के लिए ,संसार का निर्माण अवश्य ही करती है । अतः यह कहना कि मेरा कोई संसार नहीं है ,एकदम मिथ्या है । स्मृति में चाहे आपकी निजी कल्पनाएँ हो अथवा परमात्मा को पाने की कल्पना हो ,संसार तो निर्मित हो ही जायेगा । याद रखें,यह संसार आपका स्वयं का होगा,इस संसार से किसी अन्य का किसी भी प्रकार का कोई लेना देना नहीं है ।  जब सबका अपना अपना संसार होता है और सब अपने अपने संसार में रहते है तो फिर किसी को भी संसार की निंदा करने का कोई हक़ नहीं है ।
              आइये,अब जरा तुलसी के संसार पर नज़र डालते हैं ।
                                तुलसी ममता राम सों,समता सब संसार ।
                                राग न रोष न दोष दुःख,"दास" भये भव पार ॥
                      तुलसी कहते है कि मनुष्य ममता रखने की अपनी स्वाभाविक आदत से छुटकारा पा ही नहीं सकता । जिस किसी ने इस धरा पर जन्म  लिया है वे सब किसी न किसी के साथ ,किसी न किसी रूप में ममता के बंधन में अवश्य ही  बंधे हैं । जब इस ममता से छूटना असंभव ही है तो फिर यह ममता संसार और परिवार के साथ न रखकर परमात्मा के साथ ही रखनी चाहिए । परमात्मा से ममता ही मुक्ति का द्वार खोलती है । मुक्ति इस स्व-निर्मित संसार की कल्पनाओं,कामनाओं और इच्छाओं से,जो कभी भी पूरी नहीं  होती ।
                       आपकी कल्पनाओं से निर्मित इस संसार के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए ? तुलसीदास जी कहते है -समता का । समता का अर्थ है सबको सामान दृष्टि से देखना और व्यवहार करना । जब संसार के साथ समता हो जाती है तो फिर न तो किसी भी प्रकार का राग होगा,न रोष होगा ,न ही कोई दुःख रहेगा और न ही किसी में कोई दोष दिखाई देगा । जब राग,रोष,दोष और दुःख ,इनमे से कुछ भी नहीं  होगा तो ऐसा आपका बनाया संसार भी आलोच्य नहीं होगा ।
                       संसार की आलोचना का आधार उपरोक्त वर्णित चारों कारण ही हैं । जब इनमे से कोई  एक कारण भी आपमें नहीं रहेगा तो आपका संसार स्वतः ही आपकी दृष्टि से ओझल हो जायेगा । इसी को भव सागर से पार होना कहते हैं ।  गोस्वामीजी कहते हैं की ज्योंही मैंने राम से,परमात्मा से ममता की,मेरे संसार में समता आ गयी । मेरे में से राग,रोष ,दोष और दुःख आदि सभी दोष दूर हो गए । इस प्रकार तुलसी ने परमात्मा का "दास"बनकर इस संसार सागर को पार कर लिया ।
                ऐसा संसार बनाया था महाकवि तुलसी ने ,उनका अनुभव हमें यही सीख देता है कि ममता ,परमात्मा के साथ रखें अपनी स्वार्थ हेतु की गई कल्पनाओं के साथ नहीं ।
क्रमशः
                              ॥ हरिः शरणम् ॥  

Monday, August 4, 2014

संसार -एक सपना |

                जब शंकर भगवान को अनुभव हो गया कि संसार मात्र एक सपना है, उससे अतिरिक्त वह कुछ नहीं है तो हमें भी मान लेना चाहिए कि उनको अवश्य ही सही अनुभव हुआ होगा । उनके अनुभव के असत्य होने का तो प्रश्न ही नहीं है ।  जिसको  साक्षात् परमात्मा भी भजते हैं और जो स्वयं  दिनरात परमात्मा को भजते हैं ,उनके अनुभव को अनुचित कहा भी कैसे जा सकता है । आम व्यक्ति तो हो सकता है अपने स्वार्थवश अपने अनुभव की मीमांसा  अलग प्रकार से करदे परन्तु परमात्मा के अतिनिकट प्रतिनिधि ऐसा कर ही नहीं सकते । शकर भगवान् साक्षात् परमात्मा के ही रूप हैं और उनके अनुभव से हमें भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
               "उमा कहहूँ मैं अनुभव अपना । सत हरि भजन जगत सब सपना ॥"चोपाई में दो बातें महत्वपूर्ण है । पहली तो शंकर भगवान का इस संसार के बारे में अनुभव और दूसरी महत्वपूर्ण बात है इस ब्रह्माण्ड का सत्य । शंकर भगवान के अनुभव की चर्चा हमने की अब दूसरी महत्त्व की बात पर आते हैं । इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ सत्य ही है,असत्य बिलकुल भी नहीं है । एक सत्य है परमात्मा को सदैव स्मृति में रखना । परमात्मा की स्मृति बनाये रखने को ही परमात्मा का भजन करना कहते हैं । भजन से तात्पर्य किसी पूजा पाठ, आरती या कर्मकांड से नहीं है । लोगों ने इन सबको बेवजह ही,बिना किसी आधार के भजन कहना प्रारम्भ कर दिया है । आप आरती कर रहे हैं,कीर्तन कर रहे हैं,जागरण देने में लगे हुए हैं या किसी प्रकार के अनुष्ठान में लगे हुए हैं ,जरा सोचिये आप परमात्मा को याद कर रहे हैं या ऐसा करने के पीछे आपका कोई स्वार्थ छिपा हुआ है अथवा कोई अन्य उद्देश्य है । जब अन्य कोई कारण है तो यह आपका भजन करना नहीं है  । परमात्मा का भजन करने के लिए ऐसे किसी भी प्रकार के आडम्बर की आवश्यकता नहीं होती है ।
                     फिर हरि का भजन सत्य क्यों है और संसार सपना कैसे हैं ? परमात्मा ,इस ब्रह्माण्ड का सत्य है ,इसका रचनाकार वह स्वयं है जबकि आपके संसार के रचनाकार परमात्मा कदापि नहीं है ,संसार के रचनाकार आप स्वयं है । इसीलिये सभी जीवभूतों का परमात्मा एक है चाहे नाम अलग अलग हों जबकि संसार सबका अपना अपना और अलग अलग होता है । सब अपने अपने संसार का निर्माण अपनी कल्पनाओं से करते हैं और कल्पनाएँ कभी भी सत्य नहीं हो सकती । सभी कल्पनाएँ मात्र स्वप्न ही होती हैं । इसी कारण से  संसार को एक सपना कहा गया है । स्मृति में रखना है तो परमात्मा को रखें क्योंकि वही एकमात्र और ध्रुव सत्य है । संसार तो अपनी कल्पनाओं से निर्मित है,अतः वह एक सपना मात्र है । शंकर भगवान के अनुभव को हमें आत्मसात करते हुए उसे यही सीख लेनी चाहिए।
                                                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, August 3, 2014

संसार का अनुभव |

              मानस में राम कथा सुनाने के दौरान शिव-शंकर,पार्वती को इस संसार की नश्वरता को समझाते  हुए  कहते हैं-
                   उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि  भजन जगत सब सपना ॥
               शंकर भगवान कहते हैं कि हे उमा !यह मेरा अनुभव है कि  यह संसार जो है. और जैसा हम इसे समझ रहे हैं,वह वैसा है, नहीं यह सत्य बात है । इस संसार में सत्य जो है वह यही है कि यह संसार सत्य नहीं है । फिर सत्य क्या है ?सत्य है ,परमात्मा  का भजन करना ।
                 तुलसी ने इस चौपाई में दो बातें महत्वपूर्ण कही है । पहली -शंकर भगवान का अनुभव और दूसरा इस ब्रह्माण्ड का सत्य । अनुभव सदैव ही बीते हुए कल से मिलता है ,अनुभव इतिहास का ही एकहिस्सा है ।  जिस किसी भी व्यक्ति को इतिहास से अनुभव प्राप्त होता है ,उस व्यक्ति का जीवन कभी भी संकटों से भरा नहीं हो सकता । अनुभव इतिहास की  पुनरावृति करना नहीं है बल्कि अनुभव इतिहास की एक सीख  है । जब मैं कहता हूँ कि  अनुभव की कोई कीमत नहीं है इसका तात्पर्य अनुभव को नकारना नहीं है बल्कि मेरा तात्पर्य इतिहास की पुनरावृति करने से है ,इतिहास को दोहराने से है । अपने अनुभव से कोई व्यक्ति अगर इतिहास को दोहराने का प्रयास करता है तो, ऐसे अनुभव की कीमत कुछ भी नहीं है । इसका कारण है कि इतिहास कभी भी दोहराया नहीं जा सकता ।  परमात्मा ने इस संसार में ,इस सृष्टि में कोई भी दो चीजें एक समान नहीं बनाई है,तो फिर इतिहास की पुनरावृति कैसे संभव हो सकती है ? इसीलिए मैं अनुभव की कीमत कुछ भी न होना कहता हूँ  क्योंकि लोग प्रायः अपने अनुभव से इतिहास  को दोहराने की कोशिश करते हैं ।  अनुभव से सीख जिंदगी में संकट न आने देने के लिए महती आवश्यकता है । मैं ऐसे अनुभव का समर्थक हूँ ।
              भगवान शंकर ने अपने अनुभव से सीख ली है और इसी सीख का परिणाम  है कि वे संसार में बिलकुल भी आसक्त नहीं है । संसार से दूर ,पहाड़ों और जंगलों में रहते हुए  वे  सदैव हरि नाम का स्मरण ही करते रहते हैं । उनकी धर्मपत्नी सदैव ही उनके साथ रहती आई हैं चाहे वह सती हो या पार्वती । परिवार उनका भी है । दो पुत्र हैं-गणेश और कार्तिकेय ।  परन्तु कभी आपने पढ़ा  या सुना है कि उनकी परिवार के प्रति कोई आसक्ति रही है । मृगछाला  ही उनका एक मात्र वस्त्र है ,नंदी  उनकी सवारी  है और विषयुक्त जीव उनके आभूषण है । भला ,ऐसे शंकर कभी और कहीं आसक्त हो सकते हैं ?  इतिहास के अनुभव से सीख का  ही परिणाम  है,यह सब ।
                          ॥ हरिः शरणम् ॥     

Friday, August 1, 2014

संसार -९

                              आने वाला कल भी बीते हुए कल की तरह ही आपके लिए संसार निर्मित करता है । इसका ज्ञान हमें नहीं होता । बीते हुए कल की स्मृतियाँ आपके संसार का निर्माण करती है जबकि आने वाले कल की कल्पनाएँ आपका संसार बनाती है ।  जो आप पूर्व में नहीं कर पाए उनकी स्मृति आपके भविष्य की कल्पना बन जाती है । स्मृतियों और कल्पनाओं के मध्य व्यक्ति झूलता रहता है और इसी उलझन में उसका "आज ", उसका वर्तमान भी उसके हाथ से निकल जाता है । याद रखें ,जब वर्तमान  हाथ से निकल जाता है तब आप केवल हाथ मलते रह जाते हैं और इसके लिए संसार को दोष देने लगते हैं । प्रायः लोग इस संसार की निंदा भी इसीलिए करते हैं कि वे "आज" कुछ भी नहीं कर सके ।जबकि वर्तमान को जीना ,उसे सजाना संवारना ,अपना भविष्य बनाना ही है ।
                           स्मृतियों और कल्पनाओं की इस उधेड़बुन से आखिर कैसे पार पाया जा सकता है ? आज के जीवन में विषमता, इसी उधेड़बुन के कारण ही है । इस उधेड़बुन से बाहर आने के लिए शताब्दियों से संत-पुरुष हमें बतलाते आ रहे हैं,हमारे शास्त्र हमें निर्देशित कर रहे हैं परन्तु कमी हमारी स्वयं की है जो इस जंजाल से ,इस संसार से बाहर आना ही नहीं चाहते । इस उधेड़बुनसे बाहर आने का एक ही रास्ता है कि सबसे पहले हम हमारे भूतकाल से पीछा छुडाएं । हमारे यहाँ एक उक्ति बहुत ही प्रसिद्द है-"बीत गई सो बात गई "। इसका तात्पर्य है कि जो बात पूर्व  में हो चुकी है,जो घटना घटित हो चुकी है,उसके बारे में आज और अब सोचने से कोई फायदा नहीं है । उस घटना को आज सोच-विचारकर भी पलटा नहीं जा सकता । जब हम बीते हुए घटनाक्रम को जरा सा भी परिवर्तित नहीं कर सकते तो फिर उसको स्मृतियों में रखकर भी हम क्या कर सकते हैं ? यह बात केवल कहने और सुनने की नहीं है बल्कि आत्मसात करने की है ।
                   परमात्मा का यह निर्णय मुझे बहुत ही अच्छा लगता है कि वह प्रत्येक  व्यक्ति को  उसकी  पूर्व जन्म की स्मृतियों से वंचित रखता है । अगर परमात्मा ऐसी व्यवस्था नहीं करता तो आज उन्ही पूर्व जन्म की स्मृतियों के कारण व्यक्ति का जीवन भी संकट में पड जाता । वह किधर का भी नहीं रहता-न तो इस जन्म का और न ही पूर्व जन्म का । यह परमात्मा की मनुष्य पर बड़ी अनुकम्पा है ।
                      अतः संसार में आनन्दमय जीवन जीना है तो भूतकाल की स्मृतियों को विस्मृत कर दें ,भविष्य की कल्पनाओं की उडान को थाम ले. आप स्वतः ही "आज" को जीने लगेंगे । आपको यह संसार सुन्दर और रुचिकर लगने लगेगा । परमात्मा "आज" में ही रहते हैं और अभी तत्काल ही आपको उपलब्ध है। बस,उनकी यही एक मात्र शर्त है कि "मुझे पाने वाला केवल आज में ही रहे,कल की स्मृतियों और कल्पनाओं में नहीं। मैं सदैव ही उसके साथ हूँ "।
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥