क्रमश:१६
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य ण तु सन्न्यासिनां क्वचित् || गीता १८/१२ ||
अर्थात्,कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा,बुरा और मिला हुआ-ऐसे तीन प्रकार के फल मरने के पश्चात् अवश्य होते हैं,किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता |अतः सभी कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करदेना ही परमात्मा प्राप्ति का सर्वोत्तम विकल्प है |
परमात्मा प्राप्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने प्रमुख रूप से तीन मार्ग बतलाये हैं | ध्यान मार्ग,ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग |गीता सबसे अधिक जोर कर्म मार्ग पर देती है,क्योंकि शेष दो मार्गों में भी कर्म आवश्यक है |सकाम कर्म करते हुए भी इन कर्मों को नष्ट करने के उपाय करके भी पुनर्जन्म से मुक्ति पाई जा सकती है |परन्तु केवल परमात्मा के प्रति प्रेम रख कर भी परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है,इसे प्रेम -पथ भी कह सकते हैं |जब परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है ,तब समस्त सकाम कर्मों से मनुष्य अपने आप को अलग कर लेता है |यही कर्म-सन्यास है|यह मार्ग देखने में बड़ा ही सरल लगता है क्योंकि इसमे कर्म करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती है |परन्तु वास्तविकता यह है कि कर्म न करने से ज्यादा आसान है कर्म करते रहना |प्रेम-मार्ग में कर्म होते ही नहीं है,केवल परमात्मा के प्रति असीम प्रेम ही होता है |
हरि व्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम से प्रकट होहि मैं जाना ||
ईश्वर सब जगह और सब काल में प्रत्येक स्थान पर उपस्थित रहते हैं |यह अपना भ्रम ही होता है कि हम सोचते हैं कि ईश्वर हमारी स्थिति,हमारे दुःख को क्यों नहीं देख रहा है ? वह सब कुछ देखता है,सब कुछ जानता है |हमारा प्रेम अगर उस के प्रति असीम है तो वह भी हमारे निकट है ,अन्यथा बहुत ही दूर है |यह सत्य है कि परमात्मा प्रेम से ही प्रकट हो सकता है |चैतन्य महाप्रभु ईश्वर प्रेम में डूबकर अपनी सुध-बुध खो बैठते थे |मीरा बाई ने श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम किया जिसके कारण सशरीर उसे परमात्मा के चरणों में स्थान मिला |संत रैदास आर्थिक अभाव में जीवनपर्यंत ईश्वर के गुण गाते रहे,ईश्वर से प्रेम करते रहे |तुलसीदास जी का राम के प्रति प्रेम जगजाहिर है |राम से प्रेम करते करते संसार को श्री रामचरितमानस जैसा महाकाव्य दे गए |
बिना प्रेम के,मात्र तत्वज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति बड़ी ही कठिन है |जब ह्रदय में ईश्वर के पति प्रेम होगा,तो ईश्वर दर्शन के लिए एक तड़प पैदा होगी |ईश्वर को हम जिस भाव से याद करेंगे,,ईश्वर भी उसी भाव से हमे याद करेगा |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि कोई मुझे प्रेम से भजता है तो मैं भी उसे वैसे ही भजता हूँ |कहने का अर्थ यह है कि हम ईश्वर से प्रेम करे और ईश्वर हमसे प्रेम न करे-ऐसा असंभव है |गीता में श्री कृष्ण आगे फिर कहते हैं कि यद्यपि मैं सब में समान भाव से उपस्थित हूँ परन्तु जो कोई भी मुझे प्रेम से भजता है तो फिर मैं भी उससे साक्षात्कार जरुर करता हूँ यानि उसको प्राप्त होता हूँ |
इसकोगीता में भगवान श्री कृष्ण इस प्रकार कहते हैं-
सततं कीर्त्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || गीता ९/१४ ||
अर्थात्,दृढ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए ,मेरी प्राप्ति का यत्न करते हुए और मुझको बार बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं |
यहाँ परमात्मा ने प्रेम-मार्ग के बारे में भी बताया है कि कई भक्त मेरे को प्रेमपूर्ण तरीके से प्राप्ति का यत्न करते हैं |ईश्वर भक्ति में प्रेम अनिवार्य है |अनंत प्रेम परमात्मा की प्राप्ति तत्काल ही करवा देता है |जब श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं प्रत्येक जीव में समान रूप से उपस्थित हूँ,तो प्रेमी भक्त भी सभी में परमात्मा को जानते हुए उनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार ही करेगा |प्रेम-व्यवहार से व्यक्ति पर द्वेष,ईर्ष्या,घृणा ,क्रोध और अहंकार का प्रभाव बिलकुल भी नहीं होगा |जिससे उस प्रेमी भक्त से कोई भी कर्म ऐसा हो ही नहीं सकता जिसका कर्मफल उसे फिर से जन्म - मरण के चक्र से मुक्त नहीं होने दे |
यह संसार नाशवान है,प्रतिपल अतीत में परिवर्तित होता जा रहा है |हम प्रत्येक मानव को ईश्वर का अंश मानकर प्रेम करें |इससे अच्छी बात कोई भी नहीं हो सकती |परमात्मा की सब संताने है ,अतः सब एक दूसरे के निकट है |इस लिए सभी अपने अपने विकार त्याग कर एक दूसरे से प्रेम करें ,तो हम सबका और साथ ही संसार एवं समाज का कल्याण संभव है |इससे प्रत्येक व्यक्ति आंतरिक रूप से मज़बूत होगा |यही परमात्मा को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है |
संत कबीर परमात्मा प्राप्ति के लिए प्रेम को सबसे ऊँचा स्थान देते हैं -
प्रेम गली अति सांकरि,ता में दो ना समाय |
जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ||
कबीर यहाँ कहते हैं कि जब आप परमात्मा के प्रति प्रेम में डूब जाते हैं ,तब आप अपने आप को खो देते हैं और जो बचता है वह केवल परमात्मा ही है | यही परमात्मा की प्राप्ति है |कबीर इससे भी आगे जाकर प्रेम पैदा करने का तरीका भी बताते हैं -
प्रेम ना बाड़ी उपजे,प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जो भी रुचे,शीश देहि ले जाय ||
कबीर ने कितने सरल शब्दों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि प्रेम प्राप्त करने के लिए स्वयं को मिटाना होता है |जैसा कि परमात्मा प्राप्ति के लिए किसी ना किसी का त्याग करना आवश्यक है,उसी के अनुरूप प्रेम-पथ में स्वयं का अर्थात् "मैं "का त्याग करना पड़ता है तभी परमात्मा से योग हो सकता है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य ण तु सन्न्यासिनां क्वचित् || गीता १८/१२ ||
अर्थात्,कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा,बुरा और मिला हुआ-ऐसे तीन प्रकार के फल मरने के पश्चात् अवश्य होते हैं,किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता |अतः सभी कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करदेना ही परमात्मा प्राप्ति का सर्वोत्तम विकल्प है |
परमात्मा प्राप्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने प्रमुख रूप से तीन मार्ग बतलाये हैं | ध्यान मार्ग,ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग |गीता सबसे अधिक जोर कर्म मार्ग पर देती है,क्योंकि शेष दो मार्गों में भी कर्म आवश्यक है |सकाम कर्म करते हुए भी इन कर्मों को नष्ट करने के उपाय करके भी पुनर्जन्म से मुक्ति पाई जा सकती है |परन्तु केवल परमात्मा के प्रति प्रेम रख कर भी परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है,इसे प्रेम -पथ भी कह सकते हैं |जब परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है ,तब समस्त सकाम कर्मों से मनुष्य अपने आप को अलग कर लेता है |यही कर्म-सन्यास है|यह मार्ग देखने में बड़ा ही सरल लगता है क्योंकि इसमे कर्म करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती है |परन्तु वास्तविकता यह है कि कर्म न करने से ज्यादा आसान है कर्म करते रहना |प्रेम-मार्ग में कर्म होते ही नहीं है,केवल परमात्मा के प्रति असीम प्रेम ही होता है |
प्रेम-पथ-
ज्ञान,भक्ति,वैराग्य व् साधना का कोई भी पथ ईश्वर प्रेम के भाव में अपूर्ण है |प्रत्येक पथ जो परमात्मा की ओर जाता है,उसमे परमात्मा के प्रति प्रेम-भाव का होना नितांत आवश्यक है |गोस्वामीजी श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं -हरि व्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम से प्रकट होहि मैं जाना ||
ईश्वर सब जगह और सब काल में प्रत्येक स्थान पर उपस्थित रहते हैं |यह अपना भ्रम ही होता है कि हम सोचते हैं कि ईश्वर हमारी स्थिति,हमारे दुःख को क्यों नहीं देख रहा है ? वह सब कुछ देखता है,सब कुछ जानता है |हमारा प्रेम अगर उस के प्रति असीम है तो वह भी हमारे निकट है ,अन्यथा बहुत ही दूर है |यह सत्य है कि परमात्मा प्रेम से ही प्रकट हो सकता है |चैतन्य महाप्रभु ईश्वर प्रेम में डूबकर अपनी सुध-बुध खो बैठते थे |मीरा बाई ने श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम किया जिसके कारण सशरीर उसे परमात्मा के चरणों में स्थान मिला |संत रैदास आर्थिक अभाव में जीवनपर्यंत ईश्वर के गुण गाते रहे,ईश्वर से प्रेम करते रहे |तुलसीदास जी का राम के प्रति प्रेम जगजाहिर है |राम से प्रेम करते करते संसार को श्री रामचरितमानस जैसा महाकाव्य दे गए |
बिना प्रेम के,मात्र तत्वज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति बड़ी ही कठिन है |जब ह्रदय में ईश्वर के पति प्रेम होगा,तो ईश्वर दर्शन के लिए एक तड़प पैदा होगी |ईश्वर को हम जिस भाव से याद करेंगे,,ईश्वर भी उसी भाव से हमे याद करेगा |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि कोई मुझे प्रेम से भजता है तो मैं भी उसे वैसे ही भजता हूँ |कहने का अर्थ यह है कि हम ईश्वर से प्रेम करे और ईश्वर हमसे प्रेम न करे-ऐसा असंभव है |गीता में श्री कृष्ण आगे फिर कहते हैं कि यद्यपि मैं सब में समान भाव से उपस्थित हूँ परन्तु जो कोई भी मुझे प्रेम से भजता है तो फिर मैं भी उससे साक्षात्कार जरुर करता हूँ यानि उसको प्राप्त होता हूँ |
इसकोगीता में भगवान श्री कृष्ण इस प्रकार कहते हैं-
सततं कीर्त्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || गीता ९/१४ ||
अर्थात्,दृढ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए ,मेरी प्राप्ति का यत्न करते हुए और मुझको बार बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं |
यहाँ परमात्मा ने प्रेम-मार्ग के बारे में भी बताया है कि कई भक्त मेरे को प्रेमपूर्ण तरीके से प्राप्ति का यत्न करते हैं |ईश्वर भक्ति में प्रेम अनिवार्य है |अनंत प्रेम परमात्मा की प्राप्ति तत्काल ही करवा देता है |जब श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं प्रत्येक जीव में समान रूप से उपस्थित हूँ,तो प्रेमी भक्त भी सभी में परमात्मा को जानते हुए उनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार ही करेगा |प्रेम-व्यवहार से व्यक्ति पर द्वेष,ईर्ष्या,घृणा ,क्रोध और अहंकार का प्रभाव बिलकुल भी नहीं होगा |जिससे उस प्रेमी भक्त से कोई भी कर्म ऐसा हो ही नहीं सकता जिसका कर्मफल उसे फिर से जन्म - मरण के चक्र से मुक्त नहीं होने दे |
यह संसार नाशवान है,प्रतिपल अतीत में परिवर्तित होता जा रहा है |हम प्रत्येक मानव को ईश्वर का अंश मानकर प्रेम करें |इससे अच्छी बात कोई भी नहीं हो सकती |परमात्मा की सब संताने है ,अतः सब एक दूसरे के निकट है |इस लिए सभी अपने अपने विकार त्याग कर एक दूसरे से प्रेम करें ,तो हम सबका और साथ ही संसार एवं समाज का कल्याण संभव है |इससे प्रत्येक व्यक्ति आंतरिक रूप से मज़बूत होगा |यही परमात्मा को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है |
संत कबीर परमात्मा प्राप्ति के लिए प्रेम को सबसे ऊँचा स्थान देते हैं -
प्रेम गली अति सांकरि,ता में दो ना समाय |
जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि है मैं नाहिं ||
कबीर यहाँ कहते हैं कि जब आप परमात्मा के प्रति प्रेम में डूब जाते हैं ,तब आप अपने आप को खो देते हैं और जो बचता है वह केवल परमात्मा ही है | यही परमात्मा की प्राप्ति है |कबीर इससे भी आगे जाकर प्रेम पैदा करने का तरीका भी बताते हैं -
प्रेम ना बाड़ी उपजे,प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जो भी रुचे,शीश देहि ले जाय ||
कबीर ने कितने सरल शब्दों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि प्रेम प्राप्त करने के लिए स्वयं को मिटाना होता है |जैसा कि परमात्मा प्राप्ति के लिए किसी ना किसी का त्याग करना आवश्यक है,उसी के अनुरूप प्रेम-पथ में स्वयं का अर्थात् "मैं "का त्याग करना पड़ता है तभी परमात्मा से योग हो सकता है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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