कर्म-मार्ग-क्रमश:
आसक्त हुए बिना जो भी कर्म किये जाते है वे अकर्म हो जाते हैं ,और अकर्म का कोई भी फल नहीं मिलता |परमात्मा की प्राप्ति का यह कर्म मार्ग सबसे आसान मार्ग कहा गया है |जब व्यक्ति क्षण मात्र के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो सबसे अच्छा और आसान यही है कि कर्म करते हुए ही परमात्मा की प्राप्ति का प्रयास किया जाये |भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कर्म-योग को ही सबसे सरल मार्ग बताया है |
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किन्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || गीता ३/२२ ||
अर्थात्, हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है,फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ यानि कर्म करता हूँ |
यहाँ भगवान यह कहना चाहतें हैं संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो उन्हें स्वयं को प्राप्त नहीं हों,फिर भी वे अपना कर्म करते ही हैं |अगर वे कर्म करना बंद कर दे या कर्म करे भी नहीं तो भी उन्हें हर वस्तु प्राप्त है |इतना सब कुछ होने के उपरांत भी परमात्मा इस संसार में व्यक्त होने के बाद कर्म करते हैं |क्योंकि अगर परमात्मा कर्म करना छोड़ दे तो उनका अनुसरण करते हुए मनुष्य भी कर्म करना छोड़ सकता है |जो कि उचित नहीं है |अगर मनुष्य कर्म करना बंद करदे तो उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं रहेगा ,इस प्रकार मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा |इससे समस्त प्रजा को नष्ट करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी परमात्मा पर आ जायेगी |इसलिए ईश्वर का भी इस संसार में कर्म करते रहना आवश्यक है |
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्यद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षूर्लोकसंग्रहम् || गीता ३/२५ ||
अर्थात्, हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं,आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |
यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि अज्ञानीजन ही किसी इन्द्रिय भोग के प्रति आसक्त होकर कर्म करते हैं ,परन्तु विद्वानजन आसक्ति रहित होकर वैसे ही कर्म कर सकते हैं |आसक्त हुए बिना कर्म करने से कर्मफल का प्रभाव नहीं रहता है | आसक्ति रहित मनुष्य भी लोक-संग्रह करना चाहते हुए भी कर्म कर सकता है ,इसके उपरांत भी उसे कर्मफल भोगने के लिए पुनर्जन्म में नहीं जाना पड़ता है |उसके सारे कर्म यहीं पर ही अकर्म हो जाते हैं और वह निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है |विद्वान पुरुष का यह दायित्व बनता है कि वह शास्त्र सम्मत कर्म करे और अज्ञानीजन को भी करने हेतु प्रेरित करे |अज्ञानीजन की बुद्धि भ्रमित नहीं करे |ज्ञानी व्यक्ति यह जानता है कि संसार में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते है परन्तु अज्ञानीजन "मैं ही कर्ता हूँ "ऐसा मानता है |परन्तु इस गुण(Properties ) विभाग और कर्म(Act) विभाग को तत्व से जानने वाला ज्ञानयोगी जानता है कि सब गुण गुणों में ही बरत रहे हैं (Properties works only )अर्थात् गुण ही कार्यरत है |ऐसा ज्ञानयोगी फिर आसक्त कैसे हो सकता है ?जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित होता है वह फिर गुणों और कर्मों के प्रति आसक्त भाव रखता है |यहाँ भगवान भी यही कहना चाहते हैं की अपना चित्त मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगाकर सम्पूर्ण कर्मों को मुझी को अर्पण कर | तभी मनुष्य आशारहित और ममता रहित रहकर कर्म कर सकता है |इस प्रकार कर्म करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है अर्थात उसके लिए किसीभी प्रकार का कर्म-बंधन नहीं रह जाता है |कर्म- बंधन नहीं है तो फिर कर्म-फल भी कैसे हो सकते हैं ?और जब कर्मफल नहीं होंगे तो पुनर्जन्म भी नहीं होगा |
यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की कर्म-मार्ग में त्याग या तो कर्मों का परमात्मा के प्रति होता है अथवा फिर कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करना होता है |बिना त्याग के कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना आवश्यक हो जाता है |कर्ताभाव समाप्त होते ही कर्म भी समाप्त हो जाते हैं |ऐसे में कर्मफल तो स्वतः ही नहीं बनते |अतः सबसे पहले बुद्धि के द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए इन्द्रियों पर नियंत्रण पाना अति आवश्यक है |इन्द्रियां ही कामनाएँ और इच्छाएं पैदा करती है जिसके कारण मनुष्य काम के वश में होकर अर्थात् आसक्त होकर कर्म करता है |
गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मनमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || गीता ३/४३ ||
अर्थात्, इस प्रकार बुद्धि से पर यानि सूक्ष्म बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर ,बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
इसलिए सर्वप्रथम इस प्रमुख शत्रु काम पर विजय पाना आवश्यक है |काम पर नियंत्रण होते ही सभी कर्म छूट जाते हैं और फिर जो भी कर्म किये जाते हैं ,वे सभी परमात्मा को ही अर्पित होते हैं |यही कर्ताभाव का उन्मूलन कर देता है और साथ ही कर्मों का त्याग भी |यही पुनर्जन्म से मुक्ति है और परमात्मा की प्राप्ति |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
यहाँ भगवान यह कहना चाहतें हैं संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो उन्हें स्वयं को प्राप्त नहीं हों,फिर भी वे अपना कर्म करते ही हैं |अगर वे कर्म करना बंद कर दे या कर्म करे भी नहीं तो भी उन्हें हर वस्तु प्राप्त है |इतना सब कुछ होने के उपरांत भी परमात्मा इस संसार में व्यक्त होने के बाद कर्म करते हैं |क्योंकि अगर परमात्मा कर्म करना छोड़ दे तो उनका अनुसरण करते हुए मनुष्य भी कर्म करना छोड़ सकता है |जो कि उचित नहीं है |अगर मनुष्य कर्म करना बंद करदे तो उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं रहेगा ,इस प्रकार मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा |इससे समस्त प्रजा को नष्ट करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी परमात्मा पर आ जायेगी |इसलिए ईश्वर का भी इस संसार में कर्म करते रहना आवश्यक है |
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्यद्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षूर्लोकसंग्रहम् || गीता ३/२५ ||
अर्थात्, हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं,आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |
यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि अज्ञानीजन ही किसी इन्द्रिय भोग के प्रति आसक्त होकर कर्म करते हैं ,परन्तु विद्वानजन आसक्ति रहित होकर वैसे ही कर्म कर सकते हैं |आसक्त हुए बिना कर्म करने से कर्मफल का प्रभाव नहीं रहता है | आसक्ति रहित मनुष्य भी लोक-संग्रह करना चाहते हुए भी कर्म कर सकता है ,इसके उपरांत भी उसे कर्मफल भोगने के लिए पुनर्जन्म में नहीं जाना पड़ता है |उसके सारे कर्म यहीं पर ही अकर्म हो जाते हैं और वह निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है |विद्वान पुरुष का यह दायित्व बनता है कि वह शास्त्र सम्मत कर्म करे और अज्ञानीजन को भी करने हेतु प्रेरित करे |अज्ञानीजन की बुद्धि भ्रमित नहीं करे |ज्ञानी व्यक्ति यह जानता है कि संसार में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते है परन्तु अज्ञानीजन "मैं ही कर्ता हूँ "ऐसा मानता है |परन्तु इस गुण(Properties ) विभाग और कर्म(Act) विभाग को तत्व से जानने वाला ज्ञानयोगी जानता है कि सब गुण गुणों में ही बरत रहे हैं (Properties works only )अर्थात् गुण ही कार्यरत है |ऐसा ज्ञानयोगी फिर आसक्त कैसे हो सकता है ?जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित होता है वह फिर गुणों और कर्मों के प्रति आसक्त भाव रखता है |यहाँ भगवान भी यही कहना चाहते हैं की अपना चित्त मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगाकर सम्पूर्ण कर्मों को मुझी को अर्पण कर | तभी मनुष्य आशारहित और ममता रहित रहकर कर्म कर सकता है |इस प्रकार कर्म करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है अर्थात उसके लिए किसीभी प्रकार का कर्म-बंधन नहीं रह जाता है |कर्म- बंधन नहीं है तो फिर कर्म-फल भी कैसे हो सकते हैं ?और जब कर्मफल नहीं होंगे तो पुनर्जन्म भी नहीं होगा |
यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है की कर्म-मार्ग में त्याग या तो कर्मों का परमात्मा के प्रति होता है अथवा फिर कर्म करते हुए कर्मफल का त्याग करना होता है |बिना त्याग के कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना आवश्यक हो जाता है |कर्ताभाव समाप्त होते ही कर्म भी समाप्त हो जाते हैं |ऐसे में कर्मफल तो स्वतः ही नहीं बनते |अतः सबसे पहले बुद्धि के द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए इन्द्रियों पर नियंत्रण पाना अति आवश्यक है |इन्द्रियां ही कामनाएँ और इच्छाएं पैदा करती है जिसके कारण मनुष्य काम के वश में होकर अर्थात् आसक्त होकर कर्म करता है |
गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मनमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || गीता ३/४३ ||
अर्थात्, इस प्रकार बुद्धि से पर यानि सूक्ष्म बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर ,बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
इसलिए सर्वप्रथम इस प्रमुख शत्रु काम पर विजय पाना आवश्यक है |काम पर नियंत्रण होते ही सभी कर्म छूट जाते हैं और फिर जो भी कर्म किये जाते हैं ,वे सभी परमात्मा को ही अर्पित होते हैं |यही कर्ताभाव का उन्मूलन कर देता है और साथ ही कर्मों का त्याग भी |यही पुनर्जन्म से मुक्ति है और परमात्मा की प्राप्ति |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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