क्रमश:१५
कर्म-मार्ग के अनुसार तीन विकल्प है-निष्काम कर्म(Act without attachment with target),परमात्मा के निमित्त कर्म (Act for God)और कर्मफल का त्याग (Detachment from the result of act )|इनको किस प्रकार अपने जीवन में आत्मसात(Apply) किया जाये कि पुनर्जन्म से मुक्ति पाते हुए परमात्मा को प्राप्त कर सके |इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने एकदम साधारण रूप से गीता में स्पष्ट किया है |
गीता में योगेश्वर कहते हैं-
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति || गीता १३/२९ ||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता(Not a doer) देखता है ,वही यथार्थ(Actual) देखता है |
हम सभी जानते हैं की इस संसार में जितनी भी घटनाएँ होती हैं ,वे सब प्राकृतिक(Natural) ही होती है |उसमे मानव चाहते हुए भी कोई बदलाव(Change) नहीं कर सकता |फिर भी मनुष्य के शरीर में जो कुछ भी घटित होता है ,उसे वह बदलकर अपनी ईच्छानुसार (According to will)करना चाहता है |परमात्मा ने जब इस ब्रह्माण्ड (Universe)की रचना की थी,तब समान रूप से एक सिद्धांत(Principle) के अनुसार की थी |यह प्रमुख सिद्धांत है कि जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है ,सब आपस में एक दूसरे से सम्बंधित(Related) है और जो कुछ भी एक अणु में है वह विराट में भी है |सब में समानता है,भिन्नता (Difference)कहीं भी नहीं है |यहाँ जो कुछ भी घटित होता है,चाहे वह इस संसार(World) में हो रहा हो अथवा इस भौतिक शरीर(Physical body) में,सब प्रकृति के द्वारा ही होता है |
प्रकृति के कारण ही समस्त परिवर्तन (Change)होते हैं ,परमात्मा तो अपरिवर्तनीय (unchangeable) है |जो भी परिवर्तन का कारण है ,वही सब कुछ करता और करवाता है |इस प्रकार प्रकृति, करने वाली(Doer) हुई और परमात्मा अकर्ता(Non-doer) |चूँकि आत्मा ,परमात्मा का ही एक अंश है इस कारण से आत्मा भी अकर्ता मानना होगा | यही इस संसार की वास्तविकता है |परन्तु सांसारिक व्यक्ति प्रकृति को कर्ता न मानकर आत्मा यानि स्वयं को कर्ता मान लेता है,यही उसकी सबसे बड़ी भूल है | शरीर एक प्रकृति है और आप स्वयं एक आत्मा |जब आप अपने आप को शरीर मानने लग जाते हैं तब आप अपने आप को ही सब कुछ करने वाला समझने लग जाते हैं |यहीं से मन में ममता और कामनाओं का प्रादुर्भाव शुरू हो जाता है |ममता और कामनाओं के कारण शरीर के प्रति मोह पैदा हो जाता है |इसी तरह कामनाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए कर्ता बनकर सकाम कर्म (Act with attachment )करने लग जाते हैं | सकाम कर्म आपका कभी भी पीछा नहीं छोड़ते हैं और आप जन्म-मृत्यु के भंवर में फंस जाते हैं |
जो पुरुष प्रकृति और आत्मा को सम्पूर्ण रूप से जान लेता है ,उसे इस बात का ज्ञान रहता कि जो भी कर्म वह कर रहा है वे सब प्रकृति द्वारा ही किये जा रहे हैं |उन कर्मों पर उसका किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है और न ही वह इन सब पर कभी भी नियंत्रण कर सकेगा |तभी वह अपने आप को कर्ताभाव से मुक्त कर पायेगा |कर्ता भाव से मुक्त होते ही कर्म-मार्ग के अनुसार तीनों ही विकल्प(Options) एक साथ संपन्न हो जाते हैं |फिर मनुष्य बिना आसक्ति के कर्म करता है यानि निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है |जो भी कर्म करता है वह परमात्मा के निमित्त ही करता है और कर्म-बंधन(Tie with act) नहीं रहता है |कर्मबंधन के समाप्त होते ही कर्मफल का त्याग (Detachment from result of an act)भी स्वतः(Automatically) ही हो जाता है |
मनुष्य मोह और ममता के कारण ही सकाम कर्म करता है |मोह और ममता एक आसक्ति पैदा करते हैं |यह आसक्ति व्यक्ति की स्वयं की पैदा की हुई है |लेकिन इस आसक्ति के कारण मनुष्य मोह पाश में इस प्रकार बन्ध जाता है कि उसे भी यह बंधन अच्छा लगने लगता है |यही कारण है कि मनुष्य लाख चाहने के बाद भी इस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता | लेकिन मनुष्य इस बंधन के लिए अपने आप को जिम्मेवार नहीं मानते हुए जिसके साथ बंधा हुआ है उसको जिम्मेवार मानता है |इसी कारण से इस बंधन को तोड़ पाने में वह असफल रहता है |जिस दिन वह यह वास्तविकता स्वीकार(Acceptance of reality) कर लेगा कि ये समस्त बंधन उसके स्वयं के पैदा किये हुए हैं उस दिन वह इस मोह-बंधन और आसक्ति से मुक्ति पा लेगा |
एक गुरु अपने शिष्यों के साथ किसी दूसरे स्थान पर जाने के लिए यात्रा पर थे| रास्ते में उन्हें एक व्यक्ति मिला जो एक गाय को लेकर जा रहा था|गाय से बंधी रस्सी का दूसरा सिरा उस व्यक्ति के हाथ में था |गुरूजी ने अपने शिष्यों से पूछा कि इन दोनों में से कौन बंधा(Attached) है ? स्वाभाविक रूप से शिष्यों ने कहा-गुरूजी इसमे कौन सी नयी बात है |इनमे तो गाय ही बंधी है |तभी गुरूजी ने उस व्यक्ति के हाथ से रस्सी छुडाकर गाय को मुक्त कर दिया |गाय तुरन्त ही वहाँ से भाग छूटी| तभी वह व्यक्ति गुरूजी को भला-बुरा कहता हुआ गाय के पीछे उसे पकड़ने के लिए दौड़ा |गुरूजी ने शिष्यों को समझाया कि गाय उस व्यक्ति के साथ नहीं बंधी थी, बल्कि वह व्यक्ति गाय के साथ बंधा है |अगर गाय बंधी होती तो रस्सी खोलने के उपरांत भी कहीं नहीं जाती |गाय के साथ मनुष्य बंधा है,तभी तो वह उसे पकड़ने के लिए दौड रहा है |यही हालत आम आदमी की हैं |वे स्वयं किसी के साथ बंधे हैं और मानते है कि दूसरा उसके साथ बंधा है |जिस दिन वह स्वयं के बंधने को स्वीकार कर लेगा उसी दिन उसे यह बंधन खोलना भी आ जायेगा |फिर वह इस बंधन को तोड़कर स्वतन्त्र हो जायेगा |स्वतन्त्र होते ही उसकी सभी आसक्तियां(Attachments) समाप्त हो जायेगी और सभी कर्म (Act)अकर्म(Non-act ) हो जायेंगे |यही पुनर्जन्म से मुक्ति और परमात्मा कि प्राप्ति का सरल व सुगम (Easy to follow)मार्ग है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
कर्म-मार्ग के अनुसार तीन विकल्प है-निष्काम कर्म(Act without attachment with target),परमात्मा के निमित्त कर्म (Act for God)और कर्मफल का त्याग (Detachment from the result of act )|इनको किस प्रकार अपने जीवन में आत्मसात(Apply) किया जाये कि पुनर्जन्म से मुक्ति पाते हुए परमात्मा को प्राप्त कर सके |इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने एकदम साधारण रूप से गीता में स्पष्ट किया है |
गीता में योगेश्वर कहते हैं-
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति || गीता १३/२९ ||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता(Not a doer) देखता है ,वही यथार्थ(Actual) देखता है |
हम सभी जानते हैं की इस संसार में जितनी भी घटनाएँ होती हैं ,वे सब प्राकृतिक(Natural) ही होती है |उसमे मानव चाहते हुए भी कोई बदलाव(Change) नहीं कर सकता |फिर भी मनुष्य के शरीर में जो कुछ भी घटित होता है ,उसे वह बदलकर अपनी ईच्छानुसार (According to will)करना चाहता है |परमात्मा ने जब इस ब्रह्माण्ड (Universe)की रचना की थी,तब समान रूप से एक सिद्धांत(Principle) के अनुसार की थी |यह प्रमुख सिद्धांत है कि जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है ,सब आपस में एक दूसरे से सम्बंधित(Related) है और जो कुछ भी एक अणु में है वह विराट में भी है |सब में समानता है,भिन्नता (Difference)कहीं भी नहीं है |यहाँ जो कुछ भी घटित होता है,चाहे वह इस संसार(World) में हो रहा हो अथवा इस भौतिक शरीर(Physical body) में,सब प्रकृति के द्वारा ही होता है |
प्रकृति के कारण ही समस्त परिवर्तन (Change)होते हैं ,परमात्मा तो अपरिवर्तनीय (unchangeable) है |जो भी परिवर्तन का कारण है ,वही सब कुछ करता और करवाता है |इस प्रकार प्रकृति, करने वाली(Doer) हुई और परमात्मा अकर्ता(Non-doer) |चूँकि आत्मा ,परमात्मा का ही एक अंश है इस कारण से आत्मा भी अकर्ता मानना होगा | यही इस संसार की वास्तविकता है |परन्तु सांसारिक व्यक्ति प्रकृति को कर्ता न मानकर आत्मा यानि स्वयं को कर्ता मान लेता है,यही उसकी सबसे बड़ी भूल है | शरीर एक प्रकृति है और आप स्वयं एक आत्मा |जब आप अपने आप को शरीर मानने लग जाते हैं तब आप अपने आप को ही सब कुछ करने वाला समझने लग जाते हैं |यहीं से मन में ममता और कामनाओं का प्रादुर्भाव शुरू हो जाता है |ममता और कामनाओं के कारण शरीर के प्रति मोह पैदा हो जाता है |इसी तरह कामनाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए कर्ता बनकर सकाम कर्म (Act with attachment )करने लग जाते हैं | सकाम कर्म आपका कभी भी पीछा नहीं छोड़ते हैं और आप जन्म-मृत्यु के भंवर में फंस जाते हैं |
जो पुरुष प्रकृति और आत्मा को सम्पूर्ण रूप से जान लेता है ,उसे इस बात का ज्ञान रहता कि जो भी कर्म वह कर रहा है वे सब प्रकृति द्वारा ही किये जा रहे हैं |उन कर्मों पर उसका किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है और न ही वह इन सब पर कभी भी नियंत्रण कर सकेगा |तभी वह अपने आप को कर्ताभाव से मुक्त कर पायेगा |कर्ता भाव से मुक्त होते ही कर्म-मार्ग के अनुसार तीनों ही विकल्प(Options) एक साथ संपन्न हो जाते हैं |फिर मनुष्य बिना आसक्ति के कर्म करता है यानि निष्कर्मता को प्राप्त हो जाता है |जो भी कर्म करता है वह परमात्मा के निमित्त ही करता है और कर्म-बंधन(Tie with act) नहीं रहता है |कर्मबंधन के समाप्त होते ही कर्मफल का त्याग (Detachment from result of an act)भी स्वतः(Automatically) ही हो जाता है |
मनुष्य मोह और ममता के कारण ही सकाम कर्म करता है |मोह और ममता एक आसक्ति पैदा करते हैं |यह आसक्ति व्यक्ति की स्वयं की पैदा की हुई है |लेकिन इस आसक्ति के कारण मनुष्य मोह पाश में इस प्रकार बन्ध जाता है कि उसे भी यह बंधन अच्छा लगने लगता है |यही कारण है कि मनुष्य लाख चाहने के बाद भी इस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता | लेकिन मनुष्य इस बंधन के लिए अपने आप को जिम्मेवार नहीं मानते हुए जिसके साथ बंधा हुआ है उसको जिम्मेवार मानता है |इसी कारण से इस बंधन को तोड़ पाने में वह असफल रहता है |जिस दिन वह यह वास्तविकता स्वीकार(Acceptance of reality) कर लेगा कि ये समस्त बंधन उसके स्वयं के पैदा किये हुए हैं उस दिन वह इस मोह-बंधन और आसक्ति से मुक्ति पा लेगा |
एक गुरु अपने शिष्यों के साथ किसी दूसरे स्थान पर जाने के लिए यात्रा पर थे| रास्ते में उन्हें एक व्यक्ति मिला जो एक गाय को लेकर जा रहा था|गाय से बंधी रस्सी का दूसरा सिरा उस व्यक्ति के हाथ में था |गुरूजी ने अपने शिष्यों से पूछा कि इन दोनों में से कौन बंधा(Attached) है ? स्वाभाविक रूप से शिष्यों ने कहा-गुरूजी इसमे कौन सी नयी बात है |इनमे तो गाय ही बंधी है |तभी गुरूजी ने उस व्यक्ति के हाथ से रस्सी छुडाकर गाय को मुक्त कर दिया |गाय तुरन्त ही वहाँ से भाग छूटी| तभी वह व्यक्ति गुरूजी को भला-बुरा कहता हुआ गाय के पीछे उसे पकड़ने के लिए दौड़ा |गुरूजी ने शिष्यों को समझाया कि गाय उस व्यक्ति के साथ नहीं बंधी थी, बल्कि वह व्यक्ति गाय के साथ बंधा है |अगर गाय बंधी होती तो रस्सी खोलने के उपरांत भी कहीं नहीं जाती |गाय के साथ मनुष्य बंधा है,तभी तो वह उसे पकड़ने के लिए दौड रहा है |यही हालत आम आदमी की हैं |वे स्वयं किसी के साथ बंधे हैं और मानते है कि दूसरा उसके साथ बंधा है |जिस दिन वह स्वयं के बंधने को स्वीकार कर लेगा उसी दिन उसे यह बंधन खोलना भी आ जायेगा |फिर वह इस बंधन को तोड़कर स्वतन्त्र हो जायेगा |स्वतन्त्र होते ही उसकी सभी आसक्तियां(Attachments) समाप्त हो जायेगी और सभी कर्म (Act)अकर्म(Non-act ) हो जायेंगे |यही पुनर्जन्म से मुक्ति और परमात्मा कि प्राप्ति का सरल व सुगम (Easy to follow)मार्ग है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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