Sunday, October 13, 2013

पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |-२०

क्रमश:२०
                 अभी तक हमने यह जानने की कोशिश की कि पुनर्जन्म से मुक्ति कैसे मिले?गीता के अनुसार ध्यान -मार्ग ,ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग का विवेचन किया |इन तीन मार्गों के अतिरिक्त एक मार्ग प्रेम का और दूसरा शरणागति का भी है |उपरोक्त सभी मार्गों की एक ही विशेषता है कि सभी में कर्मों का बड़ा ही महत्त्व है |सभी मे कर्मों के सम्बन्ध में कुछ ना कुछ त्याग करना ही पड़ता है |केवल ध्यान- मार्ग में विचारों का त्याग होता है |विचारों के त्याग के फलस्वरूप किये जाने वाले कर्मों की गुणवता में सुधार होता है जिसके कारण व्यक्ति शास्त्र विरुद्ध कर्म कर ही नहीं सकता |ज्ञान - मार्ग में भी कमोबेश यही स्थिति होती है,यानि कर्मों की गुणवत्ता में सुधार होता है |ये दोनों ही मार्ग आम मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है |क्योंकि इनका साधन करना यानि  पालन करना अत्यंत ही दुष्कर है |शेष बचे तीन मार्ग -जिनमे कर्म-मार्ग आज के समय में सबसे उपयुक्त है |प्रेम-मार्ग और शरणागति मनुष्य की भावना से सम्बंधित है जिनमे कर्मों के स्वरुप का त्याग स्वतः ही हो जाता है |
                                        गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                                    जरामरणमोक्षाय    मामाश्रित्य   यतन्ति    ये |
                                                    ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् || गीता ७/२९ ||
                                      अर्थात्,जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं ,वे पुरुष उस ब्रह्म को,सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं |
                       यहाँ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को शरणागत होकर किये जाने वाले प्रयास के बारे में समझा रहे हैं |शरणागत होकर जब व्यक्ति वृद्धावस्था और मृत्य से मुक्त होना चाहते हैं ,वे इस के लिए जो भी वे प्रयास करते हैं उससे वे ब्रह्म को ,सम्पूर्ण अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं |जरा अर्थात् बुढ़ापा और मरने से कोई भी व्यक्ति कैसे बच सकता है?इससे पहले भगवान गीता में ही कहते है कि जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी निश्चित है और उसके विपरीत यहाँ कहते हैं कि जो भी जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं वे ब्रह्म को जानते हैं |यहाँ जरा मरणसे छूटने का अर्थ है जन्म-मरण से मुक्ति |व्यक्ति जरावस्था को तभी प्राप्त होगा जब वह पुनर्जन्म लेगा और तभी वह फिर से मृत्यु को प्राप्त होगा |इसलिए इस जन्म-मरण के चक्कर से जो भी व्यक्ति बाहर निकलने का प्रयास करते हैं वे  इस ब्रह्म अर्थात् परम ब्रह्म परमात्मा को,सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान जाते हैं|यह सब जान लेने के बाद कोई व्यक्ति पुनर्जन्म के लिए कैसे जा सकता है ?प्रश्न यह उठना स्वाभाविक है कि यह ब्रह्म,अध्यात्म और कर्म क्या हैं जिसको शरणागत पुरुष जानता है |श्री कृष्ण गीता में इसका उत्तर देते हैं-
                                         अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते |
                                         भूतभावोद्भवकरो   विसर्गः    कर्मसंज्ञितः || गीता ८/३ ||
                               अर्थात्,परम अक्षर यानि जिसका कभी भी विनाश नहीं होता वाही 'ब्रह्म' है,अपना स्वभाव या स्वरुप ही 'अध्यात्म' है तथा भूतों यानि जीवों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है वही' कर्म' है |इन सबको को शरणागत जानता है |
                          अतः शरणागत होना एक ऐसी अवस्था को प्राप्त होना है जिसमे व्यक्ति केवल मात्र परमात्मा को ही सब कुछ समझने लगता है |परमात्मा को जान लेना ही सम्पूर्ण अध्यात्म को जान लेना है |इतना सब कुछ जान जाने के बाद वह सभी कर्मों के स्वरुप को समझ लेता है ,ऐसे में उसके लिए न तो कोई कर्म होता है और न ही कोई कर्म-बंधन |उसके लिए तो शरणागति ही मुक्ति का मार्ग बन जाती है |

                                                 || हरिः शरणम् ||


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