क्रमश:१७
गीता के अनुसार परमात्मा को प्राप्त करने के तीन मार्ग बताये गए हैं.यथा-ध्यान मार्ग,ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग|महापुरुषों ने एक चौथा मार्ग बताया है -प्रेम-मार्ग |कई मनीषी भक्ति को भी एक मार्ग बताते है |भक्ति का शाब्दिक अर्थ होता है भक्त होने की क्रिया(Action for attachment with God) |जिस भी प्रक्रिया के द्वारा आप परमात्मा के साथ योग करते हैं वह प्रक्रिया ही भक्ति कहलाती है |अतः भक्ति मार्ग बोलकर कोई भी अलग मार्ग के रूप में विकल्प नहीं है |भक्ति मार्ग में गीता में बताये गए सभी मार्ग समाहित है |ध्यान-मार्ग,ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग अपनाने वला प्रत्येक मनुष्य भक्त(Person attached to God) ही होता है |क्योंकि तीनों मार्गों का अनुसरण करने वाले मनुष्यों का लक्ष्य एक ही होता है-परमात्मा को प्राप्त करना |
इन मार्गों पर चलते हुए मनुष्य जब भक्त की अवस्था को प्राप्त करता है तब एक भक्त में जो लक्षण प्रकट हो जाते हैं ,उनका वर्णन भगवान श्री कृष्ण गीता में भक्ति-योग नमक १२वें अध्याय में बहुत ही सुन्दर तरीके से बताते हैं|उनके अनुसार निम्न प्रकार के लक्षण एक भक्त में होने चाहिए,वही भक्त मुझे प्रिय होते है |ये लक्षण हैं-
१ -सब प्राणियों से द्वेष भाव न होना |
२ -सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार रखना |
३-बिना स्वार्थ के सबके प्रति दयालु होना |
४-ममता रहित होना |
५ -अहंकार रहित होना |
६ -सुख-दुःख में समान रहना |
७-क्षमा भाव होना |
८-सभी ओर से संतुष्ट रहना |
९-दृढ निश्चयी होना |
१०-मन और बुद्धि को परमात्मा में अर्पित कर देना |
११-किसी भी जीव को उद्वेलित नहीं करना |
१२-किसी भी जीव से उद्वेलित न होना |
१३-हर्ष,अमर्ष(दूसरे की उन्नति देखकर परेशान होना ),भय और उद्वेग से रहित होना |
१४-आकांक्षा से रहित होना |
१५-बाहर और भीतर दोनों में शुद्ध रहना |
१६-प्रत्येक कार्य में दक्ष होना |
१७-पक्षपात से रहित होना |
१८-दुःख में दुखी न होना |
१९-सभी कार्य के प्रारंभ करने का श्रेय न लेना |
२०-अधिक हर्षित न होना |
२१-द्वेष न करना |
२२-शोक न करना |
२३-किसी भी प्रकार की कामना न करना |
२४-शुभ-अशुभ सभी कर्मों का त्याग कर देना |
२५-शत्रु और मित्र में सम रहना |
२६-मान-अपमान में सम रहना |
२७-सर्दी-गर्मी और में सम रहना |
२८-आसक्ति-रहित होना |
२९-निंदा और स्तुति को समान समझना |
३०- मनन शील होना |
३१ -भक्तिमान होना |
उपरोक्त ३१ लक्षण एक आदरह भक्त के योगेश्वर श्री कृष्ण ने बताएं है |आज के समय में किसी भी एक का पालन करना भी एक मनुष्य को कितना कहीं होता है ,यह किसी भी व्यक्ति से छिपा हुआ नहीं है |इसीलिए आज के समय म एक आदर्श भक्त का मिलना असंभव है |परन्तु भगवान कहते हैं कि जो भी मनुष्य जितना भी हो सकता है ,मेरे परायण होकर निष्काम भाव से इनकी पालना करता है वह भक्त मुझे प्रिय है |यथा-
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः || गीता १२/२० ||
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
गीता के अनुसार परमात्मा को प्राप्त करने के तीन मार्ग बताये गए हैं.यथा-ध्यान मार्ग,ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग|महापुरुषों ने एक चौथा मार्ग बताया है -प्रेम-मार्ग |कई मनीषी भक्ति को भी एक मार्ग बताते है |भक्ति का शाब्दिक अर्थ होता है भक्त होने की क्रिया(Action for attachment with God) |जिस भी प्रक्रिया के द्वारा आप परमात्मा के साथ योग करते हैं वह प्रक्रिया ही भक्ति कहलाती है |अतः भक्ति मार्ग बोलकर कोई भी अलग मार्ग के रूप में विकल्प नहीं है |भक्ति मार्ग में गीता में बताये गए सभी मार्ग समाहित है |ध्यान-मार्ग,ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग अपनाने वला प्रत्येक मनुष्य भक्त(Person attached to God) ही होता है |क्योंकि तीनों मार्गों का अनुसरण करने वाले मनुष्यों का लक्ष्य एक ही होता है-परमात्मा को प्राप्त करना |
इन मार्गों पर चलते हुए मनुष्य जब भक्त की अवस्था को प्राप्त करता है तब एक भक्त में जो लक्षण प्रकट हो जाते हैं ,उनका वर्णन भगवान श्री कृष्ण गीता में भक्ति-योग नमक १२वें अध्याय में बहुत ही सुन्दर तरीके से बताते हैं|उनके अनुसार निम्न प्रकार के लक्षण एक भक्त में होने चाहिए,वही भक्त मुझे प्रिय होते है |ये लक्षण हैं-
१ -सब प्राणियों से द्वेष भाव न होना |
२ -सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार रखना |
३-बिना स्वार्थ के सबके प्रति दयालु होना |
४-ममता रहित होना |
५ -अहंकार रहित होना |
६ -सुख-दुःख में समान रहना |
७-क्षमा भाव होना |
८-सभी ओर से संतुष्ट रहना |
९-दृढ निश्चयी होना |
१०-मन और बुद्धि को परमात्मा में अर्पित कर देना |
११-किसी भी जीव को उद्वेलित नहीं करना |
१२-किसी भी जीव से उद्वेलित न होना |
१३-हर्ष,अमर्ष(दूसरे की उन्नति देखकर परेशान होना ),भय और उद्वेग से रहित होना |
१४-आकांक्षा से रहित होना |
१५-बाहर और भीतर दोनों में शुद्ध रहना |
१६-प्रत्येक कार्य में दक्ष होना |
१७-पक्षपात से रहित होना |
१८-दुःख में दुखी न होना |
१९-सभी कार्य के प्रारंभ करने का श्रेय न लेना |
२०-अधिक हर्षित न होना |
२१-द्वेष न करना |
२२-शोक न करना |
२३-किसी भी प्रकार की कामना न करना |
२४-शुभ-अशुभ सभी कर्मों का त्याग कर देना |
२५-शत्रु और मित्र में सम रहना |
२६-मान-अपमान में सम रहना |
२७-सर्दी-गर्मी और में सम रहना |
२८-आसक्ति-रहित होना |
२९-निंदा और स्तुति को समान समझना |
३०- मनन शील होना |
३१ -भक्तिमान होना |
उपरोक्त ३१ लक्षण एक आदरह भक्त के योगेश्वर श्री कृष्ण ने बताएं है |आज के समय में किसी भी एक का पालन करना भी एक मनुष्य को कितना कहीं होता है ,यह किसी भी व्यक्ति से छिपा हुआ नहीं है |इसीलिए आज के समय म एक आदर्श भक्त का मिलना असंभव है |परन्तु भगवान कहते हैं कि जो भी मनुष्य जितना भी हो सकता है ,मेरे परायण होकर निष्काम भाव से इनकी पालना करता है वह भक्त मुझे प्रिय है |यथा-
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः || गीता १२/२० ||
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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