क्रमश:११
कर्म-मार्ग-क्रमश:
अंतःकरण की प्रसन्नता के बिना कोई भी मनुष्य कर्म-योगी नहीं हो सकता और बिना कर्म योग के उसकी बुद्धि परमात्मा के प्रति स्थिर नहीं हो सकती |कर्मयोगी मनुष्य कैसे हो सकता है इसको श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया है |
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोश्नुते |
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || गीता ३/४ ||
अर्थात्,मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्य निष्ठां को ही प्राप्त होता है |
गीता में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं की कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये क्षण भर के लिए भी नहीं रह सकता है |कर्मों को त्यागने से कोई व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता |अतः कर्मो का करना आवश्यक है |कर्मों के करने से ही व्यक्ति का उत्थान और पतन होता है |समबुद्धि से किये गए कर्मों से व्यक्ति निष्कर्मता को प्राप्त होता है अर्थात उसके सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं जिससे उनका कोई भी कर्मफल नहीं होता है जिससे उसे पुनर्जन्म लेकर इस संसार में नहीं आना होता है |
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेSर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते || गीता ३/७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है |
मनुष्य जब क्षण भर के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो यह साबित होता है कि कर्म इस भौतिक शरीर के लिए आवश्यक है |अब मनुष्य कर्म किस प्रकार करता है यह उसके विवेक पर निर्भर करता है |कर्म करने का कारण जब इन्द्रियां हो जाती है तब व्यक्ति आसक्त होकर कर्म करता है,जबकि परमात्मा अनासक्त होकर कर्म करने की बात करते हैं | आसक्ति या अनासक्ति आपकी बुद्धि का विषय है ,और बुद्धि शरीर की तुलना में आत्मा के ज्यादा निकट है |जब मनुष्य इन्द्रियों के वश में होकर कर्म करता है तब वे कर्म आसक्त होकर किये जाते हैं |और जब कर्म इन्द्रियों को वश में करके किये जाते हैं वे आसक्ति रहित कर्म माने जाते हैं |इन्द्रियों को वश में करना बुद्धि का कार्य क्षेत्र है | अतः कहा जा सकता है कि आत्मा ही बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों को वश में करते हुए शरीर से आसक्ति रहित कर्तव्य कर्म करवा सकती है |
गीता में योगेश्वर कहते हैं -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || गीता ३/१७ ||
अर्थात्,जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्त तथा संतुष्ट हो,उसके लिए लिए कोई कर्तव्य नहीं है |
सब कुछ आत्मा को ही मानने वाला मनुष्य आत्मा मे ही तृप्त,संतुष्ट और मस्त रहता है ,जिसके कारण उसका नियंत्रण मन और इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से रहता है |ऐसा मनुष्य कोई भी आसक्त कर्म नहीं कर सकता |ऐसे में उसका कोई कर्तव्य भी सिद्ध नहीं होता है |कर्तव्य तो आसक्त होकर कर्म करने वालों के लिए माना गया है,जहाँ पर कर्तापन का भाव होता है |ऐसे मनुष्य का न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्मों के न करने से |इस प्रकार संसार में जितने भी प्राणी है उनसे भी उसका कोई स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता है |क्योंकि स्वार्थ ही आसक्त होकर कर्म करने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है |इससे आगे परमात्मा कहते हैं --
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: || गीता ३/१९ ||
अर्थात्, इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह |क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |
आसक्ति से कर्म करने पर व्यक्ति किसी भी तरीके से अपनी कामनाएं पूरी करना चाहता है,जिसके कारण वह बुद्धि और इन्द्रियों पर से अपना नियंत्रण खो बैठता है |इसके फलस्वरूप वह यह भी नहीं जान पाता कि कर्म शास्त्र सम्मत हो रहे हैं या शास्त्र विरुद्ध |तत्काल ही फल चाहने वाला यह समझने की कोशिश भी नहीं करता कि इस जन्म में जो कुछ भी उसे प्राप्त हो रहा है अथवा होना है,वह सब उसके पूर्व जन्मों के कर्मफल ही है |इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के फल तो अगले जन्म से पहले उसे मिलने असंभव है |अतः प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है कि इस वास्तविकता को अंगीकार करे और आसक्ति रहित होकर कर्म करे |यही उसकी मुक्ति का द्वार है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
मनुष्य जब क्षण भर के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो यह साबित होता है कि कर्म इस भौतिक शरीर के लिए आवश्यक है |अब मनुष्य कर्म किस प्रकार करता है यह उसके विवेक पर निर्भर करता है |कर्म करने का कारण जब इन्द्रियां हो जाती है तब व्यक्ति आसक्त होकर कर्म करता है,जबकि परमात्मा अनासक्त होकर कर्म करने की बात करते हैं | आसक्ति या अनासक्ति आपकी बुद्धि का विषय है ,और बुद्धि शरीर की तुलना में आत्मा के ज्यादा निकट है |जब मनुष्य इन्द्रियों के वश में होकर कर्म करता है तब वे कर्म आसक्त होकर किये जाते हैं |और जब कर्म इन्द्रियों को वश में करके किये जाते हैं वे आसक्ति रहित कर्म माने जाते हैं |इन्द्रियों को वश में करना बुद्धि का कार्य क्षेत्र है | अतः कहा जा सकता है कि आत्मा ही बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों को वश में करते हुए शरीर से आसक्ति रहित कर्तव्य कर्म करवा सकती है |
गीता में योगेश्वर कहते हैं -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || गीता ३/१७ ||
अर्थात्,जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करनेवाला और आत्मा में ही तृप्त तथा संतुष्ट हो,उसके लिए लिए कोई कर्तव्य नहीं है |
सब कुछ आत्मा को ही मानने वाला मनुष्य आत्मा मे ही तृप्त,संतुष्ट और मस्त रहता है ,जिसके कारण उसका नियंत्रण मन और इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से रहता है |ऐसा मनुष्य कोई भी आसक्त कर्म नहीं कर सकता |ऐसे में उसका कोई कर्तव्य भी सिद्ध नहीं होता है |कर्तव्य तो आसक्त होकर कर्म करने वालों के लिए माना गया है,जहाँ पर कर्तापन का भाव होता है |ऐसे मनुष्य का न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्मों के न करने से |इस प्रकार संसार में जितने भी प्राणी है उनसे भी उसका कोई स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता है |क्योंकि स्वार्थ ही आसक्त होकर कर्म करने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है |इससे आगे परमात्मा कहते हैं --
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: || गीता ३/१९ ||
अर्थात्, इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह |क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |
आसक्ति से कर्म करने पर व्यक्ति किसी भी तरीके से अपनी कामनाएं पूरी करना चाहता है,जिसके कारण वह बुद्धि और इन्द्रियों पर से अपना नियंत्रण खो बैठता है |इसके फलस्वरूप वह यह भी नहीं जान पाता कि कर्म शास्त्र सम्मत हो रहे हैं या शास्त्र विरुद्ध |तत्काल ही फल चाहने वाला यह समझने की कोशिश भी नहीं करता कि इस जन्म में जो कुछ भी उसे प्राप्त हो रहा है अथवा होना है,वह सब उसके पूर्व जन्मों के कर्मफल ही है |इस जन्म में किये जाने वाले कर्मों के फल तो अगले जन्म से पहले उसे मिलने असंभव है |अतः प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है कि इस वास्तविकता को अंगीकार करे और आसक्ति रहित होकर कर्म करे |यही उसकी मुक्ति का द्वार है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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