क्रमश:
सिद्धांत वादियों के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञान मार्ग को सबसे अच्छा साधन बताया है जबकि योगियों के लिए कर्म मार्ग को |सिद्धांतवादी बिना ज्ञान अर्जित किये किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं |अतः उनके लिए परमात्मा प्राप्ति का साधन ज्ञान मार्ग के अतिरिक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता |जबकि साधारण व्यक्ति जो कि केवल परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है,शेष उसके लिए महत्वहीन है उन योगियों के लिए श्री कृष्ण ने सबसे सुगम साधन कर्म-मार्ग को बताया है |
सिद्धांत वादियों के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञान मार्ग को सबसे अच्छा साधन बताया है जबकि योगियों के लिए कर्म मार्ग को |सिद्धांतवादी बिना ज्ञान अर्जित किये किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं |अतः उनके लिए परमात्मा प्राप्ति का साधन ज्ञान मार्ग के अतिरिक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता |जबकि साधारण व्यक्ति जो कि केवल परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है,शेष उसके लिए महत्वहीन है उन योगियों के लिए श्री कृष्ण ने सबसे सुगम साधन कर्म-मार्ग को बताया है |
कर्म-मार्ग यानि कर्म-योग ---
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं--
नेहाभिक्रमनाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || गीता २/४० ||
अर्थात्,इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और इसके विपरीत फलरूप दोष भी नहीं है,बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है |
आज जब भी हम किसी सम्मान समारोह आदि में जाते हैं तो सम्मानित व्यक्ति को प्रायः वक्ता कर्म-योगी की उपमा दे देते हैं |कुछ समय के लिए विचार कीजिये कि क्या उस सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना उचित है ?गीता में भगवान श्री कृष्ण जो कर्म-योग के बारे में बताते हैं उसके अनुसार सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना अनुपयुक्त ही प्रतीत होता है |कर्मयोग के अनुसार जो भी मनुष्य द्वारा कर्म किये जाते हैं उन कर्मों के कर्मफल में कोई दोष भी नहीं होता है |कर्म-योग में इस योग के प्रारंभ का कभी भी नाश नहीं होता ,चाहे बाद में मनुष्य कर्म-योग से भटक गया हो या विचलित हो गया हो |अगर कोई भी व्यक्ति कर्म-योग का साधन कुछ समय के लिए भी कर लेता है तो फिर उसमें जन्म-मरण का भय नहीं रहता है |
गीता में भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं --
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्स्त्यनामयम् || गीता २/५१ ||
अर्थात्,समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं |
यहाँ श्री कृष्ण समत्व की बात करते हैं |सम बुद्धि किसी भी योग के लिए आवश्यक है |समता अध्यात्म की पहली आवश्यकता है |समता का अर्थ है समान भाव |सब जीवों में परमात्मा के अंश को देखना |जब व्यक्ति सभी जीवों में अपने में स्थित परम तत्व की उपस्थिति की तरह ही परमात्मा के अंश को देखता है ,तो फिर वह शत्रु और मित्र में भी समान भाव रख सकता है |इसी प्रकार वह प्रत्येक घटनाक्रम को भी अन्यथा नहीं लेता है |सर्दी-गर्मी,सुख-दुःख,मान-अपमान,निन्दा-स्तुति आदि में स्थिर रहता है |गीता के अनुसार ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहलाता है |जो मनुष्य स्थितप्रज्ञ की स्थिति प्राप्त कर लेता है ,वह फिर ऐसे कर्म कर ही नहीं सकता जो कर्मफल देने वाले हों |ऐसे में उस मनुष्य को पुनर्जन्म से मुक्ति मिलने की सम्भावना रहती है |स्थितप्रज्ञ मनुष्य का इसीलिए जन्म-मरण से भय समाप्त हो जाता है |
समत्व योग पढने सुनने में आसान प्रतीत होता है परन्तु जब इसको जीवन में उतारना होता है ,तब उसके एक अंश मात्र को अपनाना भी कठिन हो जाता है | जब आज इस आर्थिक युग में एक एक मुद्रा के लिए संघर्ष होता है वहाँ समत्व की कल्पना करना भी निरर्थक प्रतीत होता है |
यहाँ श्री कृष्ण सम बुद्धि की चर्चा करते हैं |आप सोच सकते हैं की कर्म-मार्ग के लिए सम-बुद्धि की क्या आवश्यकता है ?आप निश्चित हो जाएँ,परमात्मा कभी भी निरर्थक बात नहीं करते हैं |प्रत्येक कर्म बुद्धि के द्वारा ही संपन्न होता है |इसलिए जैसी बुद्धि होगी,उसके अनुसार किये हुए कर्म का फल भी उसी के अनुरूप होगा |और सम-बुद्धि युक्त व्यक्ति ऐसा कर्म कर ही नहीं सकता जो उसे कर्म-बंधन क लिए विवश करे और कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना पड़े |अतः कर्म-मार्ग से परमात्मा को अगर पाना है तो सबसे पहले सम-बुद्धि का अभ्यास करना होगा |
बुद्धि का स्थिर होना अर्थात सम होना कैसे संभव है ,इसकोभगवान श्री कृष्ण और स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते || गीता २/६५ ||
अर्थात्, अन्तः करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही भलीभांति स्थिर हो जाती है |
जब तक आंतरिक रूप से व्यक्ति प्रसन्न नहीं होगा तब तक वह न तो कर्मयोगी बन सकता है और न ही सम-बुद्धिवाला ही |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
आज जब भी हम किसी सम्मान समारोह आदि में जाते हैं तो सम्मानित व्यक्ति को प्रायः वक्ता कर्म-योगी की उपमा दे देते हैं |कुछ समय के लिए विचार कीजिये कि क्या उस सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना उचित है ?गीता में भगवान श्री कृष्ण जो कर्म-योग के बारे में बताते हैं उसके अनुसार सम्मानित व्यक्ति को कर्म-योगी कहना अनुपयुक्त ही प्रतीत होता है |कर्मयोग के अनुसार जो भी मनुष्य द्वारा कर्म किये जाते हैं उन कर्मों के कर्मफल में कोई दोष भी नहीं होता है |कर्म-योग में इस योग के प्रारंभ का कभी भी नाश नहीं होता ,चाहे बाद में मनुष्य कर्म-योग से भटक गया हो या विचलित हो गया हो |अगर कोई भी व्यक्ति कर्म-योग का साधन कुछ समय के लिए भी कर लेता है तो फिर उसमें जन्म-मरण का भय नहीं रहता है |
गीता में भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं --
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्स्त्यनामयम् || गीता २/५१ ||
अर्थात्,समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं |
यहाँ श्री कृष्ण समत्व की बात करते हैं |सम बुद्धि किसी भी योग के लिए आवश्यक है |समता अध्यात्म की पहली आवश्यकता है |समता का अर्थ है समान भाव |सब जीवों में परमात्मा के अंश को देखना |जब व्यक्ति सभी जीवों में अपने में स्थित परम तत्व की उपस्थिति की तरह ही परमात्मा के अंश को देखता है ,तो फिर वह शत्रु और मित्र में भी समान भाव रख सकता है |इसी प्रकार वह प्रत्येक घटनाक्रम को भी अन्यथा नहीं लेता है |सर्दी-गर्मी,सुख-दुःख,मान-अपमान,निन्दा-स्तुति आदि में स्थिर रहता है |गीता के अनुसार ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहलाता है |जो मनुष्य स्थितप्रज्ञ की स्थिति प्राप्त कर लेता है ,वह फिर ऐसे कर्म कर ही नहीं सकता जो कर्मफल देने वाले हों |ऐसे में उस मनुष्य को पुनर्जन्म से मुक्ति मिलने की सम्भावना रहती है |स्थितप्रज्ञ मनुष्य का इसीलिए जन्म-मरण से भय समाप्त हो जाता है |
समत्व योग पढने सुनने में आसान प्रतीत होता है परन्तु जब इसको जीवन में उतारना होता है ,तब उसके एक अंश मात्र को अपनाना भी कठिन हो जाता है | जब आज इस आर्थिक युग में एक एक मुद्रा के लिए संघर्ष होता है वहाँ समत्व की कल्पना करना भी निरर्थक प्रतीत होता है |
यहाँ श्री कृष्ण सम बुद्धि की चर्चा करते हैं |आप सोच सकते हैं की कर्म-मार्ग के लिए सम-बुद्धि की क्या आवश्यकता है ?आप निश्चित हो जाएँ,परमात्मा कभी भी निरर्थक बात नहीं करते हैं |प्रत्येक कर्म बुद्धि के द्वारा ही संपन्न होता है |इसलिए जैसी बुद्धि होगी,उसके अनुसार किये हुए कर्म का फल भी उसी के अनुरूप होगा |और सम-बुद्धि युक्त व्यक्ति ऐसा कर्म कर ही नहीं सकता जो उसे कर्म-बंधन क लिए विवश करे और कर्मफल पाने के लिए पुनर्जन्म में जाना पड़े |अतः कर्म-मार्ग से परमात्मा को अगर पाना है तो सबसे पहले सम-बुद्धि का अभ्यास करना होगा |
बुद्धि का स्थिर होना अर्थात सम होना कैसे संभव है ,इसकोभगवान श्री कृष्ण और स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते || गीता २/६५ ||
अर्थात्, अन्तः करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही भलीभांति स्थिर हो जाती है |
जब तक आंतरिक रूप से व्यक्ति प्रसन्न नहीं होगा तब तक वह न तो कर्मयोगी बन सकता है और न ही सम-बुद्धिवाला ही |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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