क्रमश:
ज्ञान-योग-क्रमश:
ज्ञेय का ज्ञान जिसे हो जाये वही ज्ञाता है |केवल पुस्तकीय ज्ञान से ही कोई ज्ञाता नहीं हो जाता है |इसीलिए भारतीय-दर्शन में गुरु और सत्संग का विशेष महत्त्व है |स्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में ज्ञान के सम्बन्ध में साफतौर से लिखा है कि--
बिनु सत्संग विवेक न होई |रामकृपा बिनु सुलभ न सोई ||
होई विवेक मोह भ्रम भगा |तब रघुनाथ चरण अनुरागा ||
इसका अर्थ यह है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान ही ज्ञान नहीं है |इस ज्ञान को विवेक में परिवर्तित करने के लिए सत्संग यानि अच्छे लोगों के साथ विषय विशेष की परिचर्चा आवश्यक है |इन सत्पुरुषों का साथ भी बिना ईश्वरीय कृपा के मिलना असंभव है |एक बार जब व्यक्ति में विवेक जागृत हो जाता है तब उसका परमात्मा के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है |इस प्रकार वह ज्ञान मार्ग पर चलते हुए परमात्मा का सानिध्य पा सकता है |
जब ज्ञेय मात्र एक परमात्मा ही है,और सब ज्ञान परमात्मा में आकर समाप्त हो जाते हैं तब ज्ञाता का अस्तित्व कैसे बना रह सकता है ? जब ज्ञान का त्याग करके व्यक्ति ज्ञानशून्य हो जाता है तब ज्ञाता होने का अहंकार स्वतः ही समाप्त हो जाता है |जब ज्ञान का त्याग कर दिया जाता है तब वास्तव में शरणागति (Surrender )की स्थिति आ जाती है |शरणागति का अर्थ है कि फिर व्यक्ति के लिए सभी कर्म और उनका कर्ताभाव समाप्त हो जाता है |जब कर्म और कर्ताभाव समाप्त हो जाते हैं तो कोई भी कर्म,कर्मफल देने हेतु शेष नहीं रहता है |अतः फिर पुनर्जन्म की कोई सम्भावना ही नहीं बन सकती |यही मुक्ति है और यही परम तत्व की प्राप्ति |
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्ञान मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमे शरणागति की स्थिति आसानी से प्राप्त की जा सकती है |ज्ञान प्राप्त करते ही व्यक्ति की समझ में आ जाता है कि इस ज्ञान का अब कोई महत्त्व नहीं है |ज्ञान के त्याग के साथ ही शरणागति का प्रादुर्भाव हो जाता है |
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं--
लोकेSस्मिन्द्विविधा निष्ठां पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || गीता ३/३ ||
अर्थात्,हे निष्पाप अर्जुन!इस लोक में दो प्रकार की निष्ठां मेरे द्वारा पहले कही गयी है |उनमे से सान्ख्ययोगियों की निष्ठां तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठां कर्मयोग से होती है |
यहाँ भगवान ने स्पष्ट किया है कि जो भी सांख्ययोगी यानि सिद्धांतवादी(Man of principle) हैं वे मेरे प्रति निष्ठां ज्ञानयोग से प्राप्त कर सकते हैं |ज्ञानमार्ग ही ऐसे व्यक्तियों के लिए परमात्मा को प्राप्त करने का उपयुक्त मार्ग है |जबकि योगियों की निष्ठां कर्म योग से बताई गयी है |योगी से तात्पर्य है -जो व्यक्ति केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता है ,उसे ज्ञान और ध्यान से कोई मतलब नहीं होता है |ऐसे योगियों के लिए परमात्मा प्राप्ति का उपयुक्त मार्ग कर्म योग ही है |
ज्ञान मार्ग में सिद्धांतवादी तात्विक ज्ञान(Elemental knowledge) प्राप्त करते हैं |तात्विक ज्ञान ही वास्तविकता में परमात्म तत्व का ज्ञान है |इस तात्विक ज्ञान के प्राप्त होते ही बाकि सभी ज्ञान लुप्त हो जाते हैं |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह |
सर्वथा वर्तमानोSपि न स भूयोSभिजायते || गीता १३/२३ ||
अर्थात्,इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है,वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता |
यहाँ भगवान श्री कृष्ण एक बार फिर से स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह पुरुष और प्रकृति के गुणों को पूर्ण रूप से जान जाता है |ऐसी स्थिति में वह अपने कर्तव्य को जानते और समझते हुए जो भी कर्म करता है वे कर्म किसी भी प्रकार का कर्मफल देने वाले नहीं होते हैं |और बिना कर्मफल के कोई भी कर्म व्यक्ति को पुनर्जन्म की तरफ नहीं ले जाते हैं |ऐसा व्यक्ति कर्तव्य कर्म करता हुआ फिर नहीं जन्मता है |पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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