क्रमश:१९
शरणागति( Surrender to supreme power )
परमात्मा अपनी शरण में आये किसी भी मनुष्य को निराश नहीं करते हैं |यही उनकी मुख्य विशेषता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि तू अपने सब धर्मों को ,सभी कर्तव्य कर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आ जा ,मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा |इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरित मानस में कहते हैं-
जों सभीत आवा सरनाई |रखिहउं ताहि प्रान की नाई ||
(रामचरितमानस ५/४४/८)
यहाँ भगवन श्री राम कहते हैं कि जो मेरी शरण में भयभीत होकर आता है ,उसे मैं अपने प्राणों की तरह रखता हूँ |यही परमपिता परमात्मा की विशेषता है |शरण में आना ,परमात्मा को पाने के लिए वर्णित सभी मार्गों से बिलकुल ही अलग है |अन्य मार्गों में तो फिर भी पर्याप्त परिश्रम की आवश्यकता होती है परन्तु शरणागति में तो सब प्रकार के परिश्रमों का त्याग है,केवल मात्र स्वयं को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देना होता है |समर्पण के पश्चात शरणागत की समस्त जिम्मेवारी सवयं प्रभु की हो जाती है |जब रावण किसी भी हालत में विभीषण की बात मानने को तैयार नहीं हुआ और क्रोध में आकर रावण ने उसे लात मरकर लंका से निकाल दिया था तब विभीषण सभी तरफ से निराश होकर प्रभु श्री राम की शरण में चला गया था |श्री राम ने उसे सहृदय स्वीकार किया |
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भगवान श्री राम के मुख से शरणागत के बारे में स्पष्ट करते हैं कि -
जों नर होई चराचर द्रोही |आवै सभय सरन तकि मोहि ||
तजि मद मोह कपट छल नाना |करऊं सद्य तेहि साधू समाना ||
(रामचरितमानस ५/४८/२-३)
यहाँ भगवान श्री राम कहते हैं कि मेरा स्वभाव है कि कोई भी मनुष्य सम्पूर्ण जड-चेतन जगत का द्रोही हो,यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण में आता है और मद,मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग देता है, तो मैं उसे बहुत ही शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ | और जब शरणागत साधू सामान हो जाता है तो फिर पुनर्जन्म का प्रश्न ही पैदा नहीं होता |रामचरितमानस में ही भगवान श्री राम अपने श्रीमुख से कहते हैं-
सखा नीति तुम्ह नीक बिचारी |मम पन सरनागत भय हारी ||
सुनी प्रभु बचन हरष हनुमाना |सरनागत बच्छल भगवाना ||
सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमान |
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि||मानस ५/४३/७-८)
कोटि विप्र बध लागहिं जाहू |आएँ सरन तजऊं नहिं ताहू ||
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं |जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||
(रामचरितमानस ५/४४/१-२)
यहाँ भगवान श्री राम कहते हैं कि मेरा एक मात्र प्रण है-शरणागत के भय को हर लेना |यह बात सुनकर हनुमानजी प्रसन्न हुए और अमन ही मन कहने लगे कि भगवान शरणागत को एक पिता की तरह प्रेम करते हैं |भगवान श्री राम आगे कहते हैं कि जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके अपनी शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं,वे निम्नतम स्तर के होते हैं,वे पापमय हैं |ऐसे व्यक्ति को देखने में भी हानि है |श्री राम तो जिसने करोड़ों ब्राह्मणों की हत्याओं का पाप किया हो ,उसे भी शरण में आने पर नहीं त्यागते हैं |भगवान आगे कहते हैं कि ज्यों ही जीव मेरी तरफ उन्मुख होता है,त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं |
विभीषण रावण द्वार त्यागे जाने पर भगवान श्री राम के शरणागत हुआ |दूर से ही भगवान श्री राम को देखकर विभीषण कहते हैं -
श्रवण सुजसु सुनि आयउं,प्रभु भंजन भव भीर |
त्राहि त्राहि आरति हरन,सरन सुखद रघुवीर || ( रामचरितमानस ५/४५)
अर्थात्,मैं अपने कानों से आपका यश सुनकर आया हूँ कि प्रभु जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं |हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर!मेरी रक्षा कीजिये |
गीता में भी भगवन श्री कृष्ण शरणागति के बारे में स्पष्ट करते हैं-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येSपि स्यु: पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || गीता ९/३२ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!स्त्री,वैश्य,शुद्र तथा पापयोनि -चांडालादि जो कोई भी हो ,वे भी मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं |
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानंप्राप्स्यसि शाश्वतम् || गीता १८/६२ ||
अर्थात्,हे भारत !तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में ही जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा |
इस प्रकार हम देखते हैं कि जब मनुष्य असमंजस की स्थिति में होता है और उसे किसी भी तरीके से संकट से निकलने का कोई भी रास्ता नहीं मिलता तो ऐसे व्यक्तियों के लिए परमात्मा के शरणागत होना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
सखा नीति तुम्ह नीक बिचारी |मम पन सरनागत भय हारी ||
सुनी प्रभु बचन हरष हनुमाना |सरनागत बच्छल भगवाना ||
सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमान |
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि||मानस ५/४३/७-८)
कोटि विप्र बध लागहिं जाहू |आएँ सरन तजऊं नहिं ताहू ||
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं |जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ||
(रामचरितमानस ५/४४/१-२)
यहाँ भगवान श्री राम कहते हैं कि मेरा एक मात्र प्रण है-शरणागत के भय को हर लेना |यह बात सुनकर हनुमानजी प्रसन्न हुए और अमन ही मन कहने लगे कि भगवान शरणागत को एक पिता की तरह प्रेम करते हैं |भगवान श्री राम आगे कहते हैं कि जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके अपनी शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं,वे निम्नतम स्तर के होते हैं,वे पापमय हैं |ऐसे व्यक्ति को देखने में भी हानि है |श्री राम तो जिसने करोड़ों ब्राह्मणों की हत्याओं का पाप किया हो ,उसे भी शरण में आने पर नहीं त्यागते हैं |भगवान आगे कहते हैं कि ज्यों ही जीव मेरी तरफ उन्मुख होता है,त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं |
विभीषण रावण द्वार त्यागे जाने पर भगवान श्री राम के शरणागत हुआ |दूर से ही भगवान श्री राम को देखकर विभीषण कहते हैं -
श्रवण सुजसु सुनि आयउं,प्रभु भंजन भव भीर |
त्राहि त्राहि आरति हरन,सरन सुखद रघुवीर || ( रामचरितमानस ५/४५)
अर्थात्,मैं अपने कानों से आपका यश सुनकर आया हूँ कि प्रभु जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं |हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर!मेरी रक्षा कीजिये |
गीता में भी भगवन श्री कृष्ण शरणागति के बारे में स्पष्ट करते हैं-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येSपि स्यु: पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || गीता ९/३२ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!स्त्री,वैश्य,शुद्र तथा पापयोनि -चांडालादि जो कोई भी हो ,वे भी मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं |
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानंप्राप्स्यसि शाश्वतम् || गीता १८/६२ ||
अर्थात्,हे भारत !तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में ही जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा |
इस प्रकार हम देखते हैं कि जब मनुष्य असमंजस की स्थिति में होता है और उसे किसी भी तरीके से संकट से निकलने का कोई भी रास्ता नहीं मिलता तो ऐसे व्यक्तियों के लिए परमात्मा के शरणागत होना ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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