Wednesday, April 30, 2014

सत्य - असत्य |-३

                           राजा जनक तो सत्य और असत्य जानने के जंजाल से मुक्त होकर जीते जी ही "विदेह"हो गए । परन्तु यह संसार न तो सत्य को और न ही असत्य को , आज तक समझ पाया है । आज जिसे हम सत्य कह रहे हैं ,जरा गंभीरता के साथ विचार कीजिये-क्या वास्तव में वही सत्य है ?असत्य और सत्य को कहना और जानना मात्र सांसारिकता के  अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । आध्यात्मिकता के लिए इनके कोई मायने नहीं है। हम सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र  की बातें बहुत करते हैं । परन्तु उनको सत्यवादी कैसे  और किस आधार पर कहा जाता है,कभी जानने की कोशिश की है । नहीं,हम सब इनके जीवन को एक कथा और कहानी के रूप में ही पढ़ते ,देखते और सुनते आएं है । आज हम इसी कहानी को फिर से दोहराते हैं , यह जानने के लिए कि  वास्तव में क्या वो सत्यवादी थे,सत्य को उन्होने पहचान लिया था या नहीं ।
                          हम सब जानते ही हैं कि हरिशचन्द्र एक राजा थे और सत्य की राह पर चलते हुए वे बड़ी ही दीन हीन अवस्था में आ गए थे । उनका यह सत्य के प्रति अनुराग की ही पराकाष्ठा थी जो इन परिस्थितियों के लिए उत्तरदाई थी । क्या सत्य के मार्ग पर चलने वालों के साथ ऐसा भी हो सकता है ? विचारणीय विषय यही है । अगर सत्य के  कारण  ऐसी परिस्थितियां आ सकती है ,तो ऐसे में क्या सत्य के मार्ग पर चलते रहना उचित है ? मैं नहीं कहता कि परिस्थितियों के विपरीत हो जाने की संभावनाओं के भय से व्यक्ति को सही राह का परित्याग कर देना चाहिए । परन्तु राजा हरिशचन्द्र  की तरह अगर किसी को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो आज के युग में किसी भी व्यक्ति का ऐसे सत्य से मोह भंग हो सकता है । 
                       सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र एक समय अयोध्या के राजा हुआ करते थे । एक बार जब वे अपने राज्य में  भ्रमण थे ,उस दौरान उन्होंने किसी महिला की करूण पुकार सुनी ।वे उस आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़े । उनको उस दिशा में कुछ भी दिखाई नहीं दिया । जल्दबाजी में वे विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में प्रवेश कर गए । ऋषि उस समय ध्यान समाधि में थे । अचानक आश्रम में हो रहे घटनाक्रम से उनकी समाधि भंग  हो गई । समाधि भंग जानकर राजा हरिशचन्द्र भयभीत हो गए । ऋषि विश्वामित्र के संभावित क्रोध  को सम्मुख देखकर उन्होंने उनका क्रोध शांत करने के उद्देश्य से अपना समस्त राज्य ऋषि को दान में दे दिया । ऋषि ने दान स्वीकार करने के लिए दक्षिणा की मांग की । परन्तु राजा हरिशचंद्र  ने अपना सर्वस्व दे दिया था ,उनके पास तो दक्षिणा में देने के लिए कुछ भी नहीं था । उन्होंने ऋषि को दक्षिणा चुकाने के लिए एक माह का  समय माँगा ।  
                       राजा हरिशचन्द्र तत्काल ही अयोध्या छोड़कर अपनी धर्मपत्नी शैव्या और एक मात्र पुत्र रोहिताश्व के साथ अयोध्या छोड़कर काशी के लिए निकल पड़े । वहां पर उन्होंने मेहनत मज़दूरी करना प्रारम्भ किया । लेकिन यह सब दान की दक्षिणा के लिए प्रयाप्त नहीं  था । इधर ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा चुकाने का समय बड़ी ही तेजी के साथ पास आता जा रहा था । राजा हरिशचन्द्र , जो अब राजा नहीं रहे थे ,एक साधारण नागरिक हो गए थे ,बहुत ही चिंतित रहने लगे । 
क्रमशः
                                      || हरिः शरणम् ||       

Tuesday, April 29, 2014

सत्य - असत्य |-२

                                            अष्टावक्र,जिनका शरीर आठ स्थानों से मुड़ा हुआ था ,राजा जनक के गुरु थे |गर्भावस्था के दौरान अपने ऋषि पिता द्वारा उच्चारित मंत्रों और श्लोकों को सुनकर उन्होंने पाया कि वे गलत उच्चारण कर रहे हैं |उन्होंने अपने पिता को गर्भ से ही आवाज़ देकर आठ बार उनके उच्चारण में हुई भूलों के बारे में बताया |प्रत्येक बार उनके पिता ने अहंकारवश इसे अनुचित मानते हुए एक एक अंग को टेढ़ा हो जाने का श्राप दिया |इस प्रकार आठ बार ऐसा होने पर उनके शरीर के विभिन्न भाग आठ स्थानों से टेढ़े यानि वक्रता लिए हुए हो गए | जब वे पैदा हुए तब उनका शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था ,इसी कारण से उनका नाम अष्टावक्र हो गया | वे अद्वेतवादी थे |अद्वेतवादी,अर्थात् संसार में एक मात्र शक्ति या परम ब्रह्म को मानना |जो भी इस संसार में है,हो रहा है या भविष्य में होने वाला है ,वह सब उस एक का ही खेल है और एक मात्र वही सब कुछ है ,करता है और व्यक्त होता है |प्रकृति भी वही है ,व्यक्ति भी वही है ,वही सब करता है और करवाता है |वह अपनी मर्जी से सारा खेल चलाता है और अपनी मर्जी से उस खेल को समेट भी लेता है |आज के इस युग में अद्वेतवादी बहुत कम ही देखने को मिलते है |आदिगुरू शंकराचार्य अद्वेतवादी थे |अष्टावक्र भी मात्र एक परमब्रह्म को ही मानने वाले अद्वेतवादी ही थे |
                              राजा जनक अपने रात को देखे स्वप्न से इतने उद्वेलित थे कि उन्होंने देरी करना उचित नहीं समझा और शीघ्रता से तैयार होकर पहुँच गए अपने गुरु अष्टावक्र के पास |अष्टावक्र ने उनको समय से पहले आया देखकर उन्हें आदर सहित बैठाकर  आने का प्रयोजन पूछा |राजा जनक ने रात को देखे गए स्वप्न को विस्तार से बताकर पूछा-"हे आचार्य!जो कुछ भी मैंने रात को सपने में देखा वह असत्य है या सत्य तथा जो मैं वर्तमान में हूँ वह सत्य है या असत्य ?"अष्टावक्र महाराज ने उन्हें शांति के साथ बैठाकर जवाब दिया कि "राजन ! न तो स्वप्न असत्य है और न ही वह जो आप वर्तमान में है और अगर सपना असत्य है तो फिर वर्तमान में जो भी आप हैं वह भी असत्य है | इस संसार में कुछ भी असत्य नहीं है , सब सत्य ही है ।"
                             यह सुनकर राजा जनक आश्चर्यचकित रह गए |उनकी उलझन सुलझने के स्थान पर और ज्यादा बढ़ गयी |उन्होंने पुनः अष्टावक्र से पूछा-"गुरुदेव!मैं कुछ समझा नहीं |कृपा करके इस बात को और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करे |"अष्टावक्र ने उत्तर दिया _"राजन ! इस संसार में कोई भी व्यक्ति राजा से भिखारी कभी भी हो सकता है और एक भिखारी कभी भी राजा भी बन सकता है ,ऐसे में सपना और आपका यह वर्तमान सत्य हुआ या नहीं |" राजा जनक ने सहमति में अपना सिर हिलाया और स्वीकार किया कि आप सत्य कह रहे हैं |अष्टावक्र ने आगे कहा-"यह सपना और आपका वर्तमान आपके नियंत्रण में कदापि भी नहीं है जबकि आप सोच रहे हैं कि वर्तमान आपके नियंत्रण में है और स्वप्न आपके नियंत्रण में नहीं है |आप ऐसा समझ रहे हैं कि सपना असत्य है और वर्तमान सत्य |आप ऐसा गलत सोच रहे है |दोनों पर ही आपका नियंत्रण नहीं है |ऐसे में आपका यह सोचना असत्य हुआ |अगर आप एक को असत्य मानते हैं तो फिर दोनों को ही असत्य मानें और इसी प्रकार अगर एक को सत्य मानते हो तो फिर दोनों ही सत्य है |"राजा जनक इस उत्तर से कुछ संतुष्ट हुए |आगे कई दिनों तक वे अष्टावक्र जी से अद्वेत पर चर्चा करते रहे |सब कुछ स्पष्टतः जानकर वे "विदेह" हो गए अर्थात सब कुछ उस परमब्रह्म का खेल ही मानते रहे |इस प्रकार सब कुछ -सत,असत आदि को जानकर इनसे ऊपर उठ गए |यही अध्यात्म की उच्च अवस्था है जो व्यक्ति को "विदेह" होने की और ले जाती है |
क्रमशः
                                                 || हरिः शरणम् ||
     

Monday, April 28, 2014

सत्य - असत्य |-१

                               इस संसार में सत्य और असत्य की हम सबसे ज्यादा चर्चा करते हैं |जबकि वास्तविकता यह है कि हममें से कोई विरला ही इस के बारे में स्पष्टतः जानता होगा |सत्य और असत्य में भेद करना इतना आसान नहीं है |कहा भी जाता है कि एक असत्य को अगर कई बार दोहराया जाये तो एक अवस्था ऐसी भी आती है जब प्रायः लोग उस असत्य को ही सत्य समझने लगते है |परन्तु यह भी सत्य है कि चाहे असत्य को हजारों बार दुहराया जाये वह कभी भी सत्य नहीं हो सकता | इस संसार में क्या तो सत्य है और क्या असत्य ,समझ पाना लगभग असंभव है |जो आज असत्य लग रहा है, वह कल सत्य भी हो सकता है और इसी तरह जो आज सत्य है ,कल असत्य भी प्रमाणित हो सकता है |यह सब देश,काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है | अतः एक बात को ही सदैव के लिए सत्य या असत्य मान लेना उचित नहीं होगा |                  
                                                    राजा जनक के जीवन का एक वृतांत है | एक रात को नींद में राजा जनक ने एक स्वप्न देखा | वे भिखारी हो गए | कृशकाय शरीर भूख से बिलबिला रहा था |शरीर में इतनी भी शक्ति नहीं थी कि भीख मांगने के लिए जा सके |हाथ में कोई कटोरा भी नहीं था,जिसमे वे भिक्षा का कुछ अन्न भी ले सके |उन्होंने आस पास किसी मिटटी से बने टूटे फूटे पात्र की तलाश की|परन्तु वे किसी भी पात्र को ढूंढ पाने में असफल रहे |अंत में उन्हें एक मानव कपाल नज़र आया |उन्होंने उसे ही भिक्षा पात्र बना लिया |अब उनकी भूख और तीव्र हो गयी |उन्होंने किसी व्यक्ति की तलाश शुरू की ,जो उन्हें भिक्षा के रूप में कुछ खाने को दे सके | अंत में उनकी तलाश पूरी हुई |एक साधारण महिला ने रात के खाने में से बचा हुआ रूखा सूखा बासी भोजन उनके खप्पर में डाल दिया |जनक ने इतना सा पाकर भी यूँ महसूस किया मानो पूरे विश्व की दौलत उन्हें प्राप्त हो गयी हो |वे उसको उदरस्थ करने की सोच ही रहे थे कि आसमान से एक चील ने उनके खप्पर ,उनके भिक्षा पात्र को झपट्टा मारा |उनके हाथ से भिक्षा पात्र नीचे कीचड़ में गिर पड़ा |भिक्षा में प्राप्त सारा अन्न कीचड़ से सनकर खाने योग्य नहीं रह गया था |भिखारी जनक की हिम्मत टूट गई |अब उनका बचा खुचा धैर्य भी जवाब दे चूका था |उनके मुहं से चीत्कार निकल गयी |बदहवास से होकर वे भोजन के लिए इधर उधर दौड़ने लगे | अचानक एक पत्थर की ठोकर लगी और भिखारी जनक धरती पर गिर पड़े |भिखारी जनक के पत्थर की ठोकर लगते ही राजा जनक का सपना टूट गया |उन्होंने पाया कि वे शाही महल में आराम से अपने आरामदायक पलंग पर सो रहे हैं |उन्हें बड़ा ही अचरज हुआ कि अभी कुछ पल पहले वे क्या थे ?एक रोटी के छोटे से तुकडे के लिए वे तरस रहे थे और इधर नींद से जागते ही वे राजा हैं और उनके पास सभी प्रकार की भोग सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं |सब कुछ जानते हुए भी वे अपने स्वप्न को चाहकर भी भूला नहीं पा रहे थे |वे शेष रात्रि की अवधि को करवटें बदल बदल कर व्यतीत कर रहे थे |आखिर रात्रि ने विदा ली और प्रभात वेला में राजा जनक उठकर तैयार होने लगे |उनको जल्दी थी ,अष्टावक्र जी के पास जाने की और उनसे अपने स्वप्न के बारे में जानने की और अपनी वास्तविकता को जानने की |वे जानना चाहते हैं कि दोनों में से कौन सा सत्य है और कौन सा असत्य ?
क्रमशः
                                              || हरिः शरणम् ||

Sunday, April 27, 2014

सत्य की खोज|

"माचिस की जरूरत यहाँ नहीं पड़ती,
क्योंकि यहाँ आदमी से आदमी जलता  है ।
दुनियां के बड़े से बड़े वैज्ञानिक यह ढूंढने में लगे हैं कि
मंगल पर जीवन है या नहीं ,
पर कोई यह नहीं ढूंढता कि जीवन में मंगल है या नहीं ।"
                             आज सुबह सुबह भूपेंद्र की पोस्ट फेसबुक पर पढ़कर दिल को छू गई । बड़ी ही मार्मिक बात  कही है । आज हम कहाँ को , किधर से और किस लिए जा रहे हैं ,इसका ज्ञान और भान किसी को भी  नहीं है । आधुनिक युग में हम वह सब हासिल करने की कोशिश में लगे है जो इस जिंदगी का सत्य नहीं है। और जो जिंदगी का सत्य है ,हम उसे खोते जा रहे हैं ।
                             सब कुछ अमन और चैन छोड़ कर अगर तथाकथित कोई उपलब्धि अगर भविष्य में हासिल भी कर ली तो उसकी कीमत बड़ी भारी चुकानी पड़ेगी । जीवन में सुख शांति से जीना ही प्रत्येक व्यक्ति का मकसद होता है । उपलब्ध शांति का परित्याग कर संभावित शांति के लिए दौड़ लगाना कहीं की भी समझदारी नहीं है ।
                      आज आवश्यकता है हम सत्य को पहचाने । सत्य से विमुख होना कहीं की भी समझदारी नहीं है । आज हम सब सत्य के बारे में बड़े ही भ्रमित हैं । जो इस संसार में सत्य है वह सब कहीं खोता जा रहा है । असत्य ,सत्य का मुखौटा लगाकर केवल घूम ही नहीं रहा बल्कि अपने को ही सत्य साबित करने में लगा हुआ है । इसीलिए आज चारों ओर हमें सत्य ही सत्य नज़र आ रहा है ,जबकि वास्तव में वह सत्य नहीं है ।  जब तक हम असत्य का छद्म वेश नहीं पहचानेंगे तब तक हम सत्य से कोसों दूर ही बने रहेंगे । सबसे बड़ी विडम्बना यह है की सत्य के रूप में असत्य को पहचान कर भी हम उसे ही सत्य स्वीकार करने और मानने  को विवश है । यह किसी भी धर्म  के प्रभाव को न समझ पाने की पराकाष्ठा ही तो है । इसी कारण  से आज चारों ओर संसार में सभी लोग हिन्दू सनातन धर्म का उपहास कर रहे है । अत्यंत दुःख की बात है की इस उपहास करने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे हिन्दू और सनातन भाईयों की  हैं ।
                    अतः आवश्यकता है कि हम हमारी जड़ों की और लौटे । बिना जड़ों को मज़बूती प्रदान किये कोई भी वृक्ष आसमान की बुलंदियों तक नहीं पहुँच सकता । सत्य को पहचानो और जाग उठो । आप ही दुनियां में सवश्रेष्ठ हो । यही सनातन धर्म का सनातन सत्य है ।
                     आज भूपेंद्र की पोस्ट ने मुझे प्रेरित किया है कि मैं सत्य और असत्य पर भी कुछ कहूँ । हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत नहीं हो ,फिर भी मेरा प्रयास यही होगा कि मेरे शास्त्रों ने सत्य को किस प्रकार परिभाषित किया है ,उसे सरल भाषा में आपके समक्ष प्रस्तुत करूँ ।
कल से "सत्य -असत्य "…।
                                           || हरिः शरणम् || 

Saturday, April 26, 2014

जीवन-अर्थ (Meaning of the life)

               आप अपनी जिंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? यह तय करना जरूरी है। आखिरकार जिंदगी है आपकी। यकीनन, आप जवाब देंगे-"जिंदगी को अच्छी तरह जीने की तमन्ना है।"
              यह भाव, ऐसी इच्छा इस तरह का जवाब बताता है कि आपका मन सकारात्मकता से परिपूर्ण है, लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है-जिंदगी क्या है, इसके मायने क्या हैं? इसका यही निष्कर्ष सामने आया है कि दूसरों के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं वही जिंदगी है, पर कोई जीवन अर्थवान कब और कैसे हो पाता है, यह जानना बेहद आवश्यक है।
              दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो जड़ नहीं चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जिंदगी की अपनी एक फिलासफी है, यानी जीवन-दर्शन। सनातन सत्य के कुछ सूत्र, जो बताते हैं कि जीवन की अर्थवत्ता किन बातों में है। ये सूत्र हमारी जड़ों में हैं। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, जिंदगी की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जाएंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जाएंगे। मकान की नींव देखे बगैर मंजिलें बना लेना खतरनाक है, पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।
             परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आए हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। हम चिंतन के हर मोड़ पर कई भ्रम पाल लेते हैं। प्रतिक्षण और हर अवसर का महत्व जिसने भी नजरअंदाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही क्षण देती है और दूसरा क्षण देने से पहले उसे वापस ले लेती है। याद रखें, वर्तमान भविष्य से नहीं अतीत से बनता है।
                  || हरिः शरणम् ||

Friday, April 25, 2014

परमात्म--कृपा (Mercy of the God)

                  जीवन संग्राम में परमात्मा की कृपा का होना नितांत आवश्यक है। आपके अंतर्मन में प्रभु का स्मरण रहेगा तो जीवन यात्रा निर्विघ्न पूरी होगी। संग परमात्मा रहे, सत्य रहे, संग धर्म रहे, मानवता रहे। अगर ये हमारे संग रहे तो चिंता करने की कोई बात नहीं। जैसे अर्जुन के सद्गुणों की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बनकर आए थे।
                  तभी तो कहते हैं-जहां धर्म है वहां कृष्ण हैं। जहां कृष्ण हैं वहां विजय सुनिश्चित है। प्रभु संग रहते हैं तो कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर सकता, परंतु जीवन में ये सद्गुण तभी कायम रह सकते हैं जब हम सजग व सतर्क रहें। अपने हर कर्म को पूजा बना लें। साथ ही, उसका चिंतन करें। उसे अनुभूत करें।
                 परमात्मा के चिंतन से चिंता स्वयं समाप्त हो जाती है। दुख-चिंता-मुसीबत, इन सबके बादल प्रभु कृपा से जीवन में छट जाते हैं। हमारे प्रारब्धवश, कर्मवश ये बादल बार-बार आते रहते हैं। कई बार बरसते भी हैं, लेकिन हमारे प्रभु यदि एक छाता हाथ में पकड़ा दें, तो दुख रूपी बरसात से काफी हद तक छुटकारा मिलता है। ध्यान रहे, ये संसार दुखालय है। एक दुख हटता नहीं, दूसरा सिर पर मंडराने लगता है। एक परेशानी दूर होती नहीं कि दूसरी सिर उठा लेती है। यह संसार परिवर्तनशील है। यहां कुछ भी स्थिर नहीं है। प्रभु की कृपा हर पल, हर क्षण हमारे ऊपर बनी रहती है। हम उस कृपा को समझें या न समझे। हमारी संस्कृति युद्ध के चिंतन की नहीं है, यह धर्मानुसार जीवन जीने का चिंतन देने वाली संस्कृति है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य का उद्घोष भारतीय संस्कृति और सभ्यता के रक्षार्थ किया था। वह भी युद्ध नहीं चाहते थे, परंतु धर्म के रक्षार्थ उन्हें दुष्टों के दमन के लिए युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा।
              भगवान श्रीराम ने रावण को बहुत समझाया। नहीं माना तो सोने की लंका भी गई। हमारे देश में अवतरित होने वाले हर अवतार के पीछे जन्म लेने वाले महापुरुष के पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता है। यह मानव देह परमात्मा की अनंत कृपा के बाद मिली है। हमें इसे माध्यम बनाते हुए अपने व्यक्तित्व को सर्वागीण बनाकर ध्यान-साधना के जरिये ईश्वर की अनुभूति करनी चाहिए।
                                 || हरिः शरणम् ||

Thursday, April 24, 2014

निर्माण और विध्वंश (Construction and destruction)

                  विकार अपने आप में बुरे नहीं हैं। सवाल है उनसे जुड़ने का। देव से जु़ड़कर वे सद्गुण बन जाते हैं और दानव से जुड़कर दुर्गुण । यह वैसे ही होता है जैसे जल नाली में गिरने से गंदा और गंगा में मिलने से निर्मल हो जाता है।
                 भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं 'मैं इच्छाओं में काम हूं।' यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, परंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचार का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है वहीं रावण का काम सर्वनाश का कारण।
                विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और दुर्व्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसे लोकसंग्रह के क्षेत्र में निरंतर बहते रहना चाहिए। हम धन के मालिक न होकर उसके 'ट्रस्टी' हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ में चला गया तो संतों का उत्पीड़क बन गया।
               शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार, दोनों सृष्टि के विधान के अंतर्गत हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। राजा बलि के दंभ को मिटाने के लिए भगवान को वामन का रूप धारण करना पड़ा था। काम और लोभ पर विजय हासिल करने वाले परशुराम के क्रोध के शमन के लिए भगवान राम को झुकना पड़ा था। काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगता है। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। यानी काम और लोभ की अतृप्त वृत्तियां क्रोध को जन्म देती हैं। नारद में कामजन्य क्रोध है तो कैकेयी में लोभजन्य क्रोध। नारद भगवान को बुरा-भला कहते हैं। चूंकि देवर्षि नारद भगवान के भक्त हैं इसलिए वह अपनी करुणा से उन्हें काम की जकड़ से मुक्त कर देते हैं। राम ने भरत को सन्निपात का सबसे बड़ा वैद्य माना। भरत ने राज्य न लेकर लोभ को जीता, मंथरा को क्षमा करके क्रोध को जीता और नंदी ग्राम में तपस्या करके काम को जीता।
                        || हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 23, 2014

संयम-मन का निग्रह |

                  मन हमारी इंद्रियों का राजा है। उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं। आंखें रूप-अरूप को देखती हैं। वे मन को बताती हैं और हम उसी के अनुसार आचरण करने लगते हैं। आशय यह है कि हम मन के दास हैं। गलत काम करने को मन करता है और हम उसे करने लगते हैं। गलत काम कराते समय मन हम पर हावी हो जाता है। काम कराकर वह भाग जाता है और जब हमें होश आता है, तब लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया। यही पछताने वाली हमारी आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है।
                संत व महापुरुष मन को वश में करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे मन के पार जा सकें, क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आत्मा का ही मार्ग है। ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है। इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं। जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य आदि भाव। मन को केवल अनुभव किया जा सकता है। आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं। आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है।
               इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं। आंख को सुंदर रूप देखने का मौका मिले, जीभ को स्वाद मिले, हाथ को स्पर्श सुख चाहिए। सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं। मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं। इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है। इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है। इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है। मन महास्वार्थी है, उसे भोग चाहिए। अगर वह विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं, उन्हें कैसे पूरा कर सकता है? विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता। मन और विवेक का बैर है। मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है। इसी को संयम कहते हैं।
                                                       || हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 22, 2014

बुद्धि vs शारीरिक शक्ति | (Intelligence vs physical power).

                      नीतिशास्त्र का एक कथन है कि जिसमें बुद्धि है, उसमें बल है। निरबुद्धि में बल कहां से आ सकता है? जो जितना बुद्धिमान है, वह उतना ही बलवान है। इसी बुद्धि के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर दिखाई देता है। जिसमें जितना अधिक बुद्धि-तत्व है, वह उतना ही सफल व्यक्ति बन जाता है।
                   एक कहावत है कि अक्ल बड़ी या भैंस? निश्चय ही शारीरिक बल से बुद्धिबल बड़ा होता है। हर व्यक्ति विद्या व बुद्धि की शक्ति से संपन्न नहीं होता, किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान-संपदा मिलती है। ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, वे दूरदर्शी हुआ करते हैं। जिन्होंने विस्तृत अध्ययन किया हुआ है।
                  वही असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं। इसके विपरीत जिन्हें कम बुद्धिबल प्राप्त है, वे छोटी-छोटी अड़चनों से ही घबरा जाते हैं और कभी-कभी अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं। आए दिन तरह तरह के दुख भोगा करते हैं। अगर एक विशेष पहलू से देखें, तो मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में पिछड़ा हुआ है। जैसे पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता, कछुओं और मछलियों की तरह जल में किल्लोल नहीं कर सकता। हिरन और घोड़े की तरह दौड़ नहीं सकता, हाथी के बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह जैसा बलवान नहीं है, उल्लू व चमगादड़ की तरह रात्रि में देख नहीं सकता।
                 इतना निर्बल व पिछड़ा होते हुए भी वह अन्य समस्त जीव-जंतुओं से अधिक ताकतवर है। वह सृष्टिकर्ता विधाता की अनुपम रचना है।
                बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं। हर इंसान का उद्देश्य अज्ञान के अंधकार में डूबे लोगों को आलोक प्रदान करना होना चाहिए। दीन-दुखियों की पीड़ा को समझकर उनका निवारण करना चाहिए। इन्हीं महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनकानेक धर्मो और धर्मग्रंथों की रचना की गई है। ये धर्मग्रंथ ही श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर करने में हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। सभी श्रेष्ठ कर्म बुद्धि बल के द्वारा ही संभव हैं।
                                             ॥ हरिः शरणम् ॥  

Monday, April 21, 2014

मौन -आपकी एक शक्ति |(Power of silence)

                  मौन की अपनी एक भाषा होती है। मौन की अभिव्यक्ति को हर कोई नहीं समझ सकता। अत्यधिक वाचालता हमें उच्छृंखल बनाती है, जबकि मौन हमें समझदार। मौन से शक्ति प्राप्त होती है, जिससे व्यक्ति का जीवन ऊर्जास्वित होता है।
                  क्षुब्ध मन को एकाग्र करके उसे समाधि की अवस्था में पहुंचाना सबके वश की बात नहीं है। अपने देश में अनेक कथाएं अनेक व्यक्तियों के संबंध में मिलती हैं, जिन्होंने अखंड समाधि के द्वारा अपरिमित ऊर्जा प्राप्त की। दुनिया के लगभग सभी आध्यात्मिक महापुरुषों ने मौन की महिमा का बखान किया है। वैदिक काल से लेकर पुराणकाल तक अनेक ऋषियों-मुनियों के द्वारा समाधि लगाकर मौन की सिद्धि की गई और इसके फलस्वरूप मनोरथ पूर्ण करने के प्रमाण मिलते हैं।
                  मौन इंद्रिय संयम का सर्वोपरि साधन है। महाभारत का लेखन समाप्त होने पर कृष्ण द्वैपायन व्यास ने श्रीगणोश से कहा था, 'मेरा बोलना अकथ था, किंतु आप मौन में अवस्थित होकर धैर्यपूर्वक लेखन कार्य में निमग्न रहते थे। आपको धन्यवाद! ऐसा वाक् संयम अप्रतिम है।' इस पर श्रीगणोश ने उत्तर दिया था, 'मूल ऊर्जा तो प्राण है। प्राण ही समस्त इंद्रियों को चैतन्य करने वाला चिन्मय पीयूष है। उसका अनावश्यक क्षरण महापातक है। वाक्-संयम के साध लेने से अन्य इंद्रियों का संयम भी स्वत: सध जाता है।' श्रीगणोश ने अपनी बात जारी रखी-'अधिक बोलने वाले व्यक्ति के मुख से कभी-कभी अवांछित शब्द भी निकल जाते हैं। इसका कुफल इंद्रियों को भोगना पड़ता है। आप मेरे इस गुण पर मुग्ध हैं तो यह मेरी उपास्य देवता वचोगुप्ति (मौन) का ही कृपा प्रसाद है।' इसीलिए इंद्रिय संयम में वाक् संयम प्रमुख है। महावीर, तथागत बुद्ध, ईसा, मूसा, जरथुस्त्र आदि लोगों ने आध्यात्मिक ऊर्जा वाक् संयम से ही प्राप्त की थी। महात्मा गांधी कहते थे-'बोलना सुंदर कला है, मौन इससे भी ऊंची कला है। मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर एक शब्द से काम चले तो दो मत बोलो।' इसलिए मौन का अभ्यास अवश्य करें। यह शक्तिशाली अस्त्र है। इसमें शांति के फल लगते हैं। मौन आत्मा का सर्वोत्तम मित्र है। मौन बहुत से सवालों का जवाब भी है, लेकिन यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।
                              || हरिः शरणम् || 

Sunday, April 20, 2014

जीवन का अर्थ |

               मनुष्य इस जगत में जीवन भर नाचता रहता है। उसके नृत्य का यह चक्र अनेक जन्मों तक चलता ही रहता है। भारतीय चिंतक, संत और भक्त इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे। तभी तो सूरदास जी कहते हैं, 'अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।'
               इसी पद में वह आगे कहते हैं कि मुझे तो यह भी याद नहीं है कि मैं कितनी योनियों में कितने जन्म लेकर जल और थल में यह नृत्य करता रहा हूं। यही दशा हम सभी की है। यह नृत्य क्या है? मनुष्य की सांसारिक भोगों में लिप्तता, जिसके चलते वह अकरणीय कर्म भी करता रहता है। अनादिकाल से चला आ रहा जीव अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। मनुष्य-रूप में ही जीव ज्ञान-प्राप्ति व जीवन-मुक्ति के प्रयास कर सकता है। जीव को मानव-शरीर मुश्किल से मिलता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- 'बड़े भाग मानुष तन पावा'।
               मानव-शरीर ही साधनों का भंडार और मुक्ति का द्वार है। इसलिए साधनों के भंडार इस मानव-शरीर को पाकर हमें अपने जीवन को संवार लेना चाहिए। मनुष्य को ही केवल विवेक-बुद्धि मिली हुई है, जिसके द्वारा वह यह निर्धारण कर सकता है कि उसके लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय? उसे अपने अच्छे और बुरे सभी कर्मों के फलों का भोग भोगना ही पड़ता है। मनुष्य अपने कर्मो में से कुछ का भोग अपने इसी जीवन में करता है और कुछ का अगले जन्मों में। इस प्रकार मनुष्य के कर्मो के फल आंशिक फलीभूत होते हैं, शेषांश संचित कर्म-रूप में एकत्र रहते हैं। इन्हीं संचित कर्मो से प्रारब्ध बनता है और मनुष्य सुख-दु:ख का भोग करता है। 'कर्म का भोग, भोग का कर्म' यही मानव-नियति है। इससे मुक्ति केवल विवेक से ही प्राप्त हो सकती है।
              विवेक सत्संग से मिलता है और सत्संग ईश कृपा के बिना संभव नहीं है। निष्काम कर्म और निष्काम उपासना की साधना भी इसका एक उपाय है। इससे साधक का चित्त शुद्ध और एकाग्र हो जाता है। उसकी अविद्या नष्ट हो जाती है। वह मोह-निद्रा से जाग जाता है। संत तुलसीदास कहते हैं कि राम की कृपा से एक बार जाग्रत (ज्ञान-प्राप्ति) हो जाने के बाद अब जीवात्मा फिर से सांसारिक भोगों में लिप्त नहीं होगी, बल्कि वह अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी।
                             || हरिः शरणम् || 

Saturday, April 19, 2014

मोक्ष -जीवन-मुक्ति |

            पुरुषार्थ चटुष्ट्य अर्थात संसार के चार पदार्थ जिन्हे मनुष्य अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर सकता है --धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | इनमें सेमोक्ष यानी मुक्ति अंतिम है, किंतु है सबसे महत्वपूर्ण। यही मानव का चरम लक्ष्य है, किंतु मुक्ति की प्राप्ति के लिए जीवनकाल में ही सात्विक वृत्तियों को अर्जित करना पड़ता है। इसके लिए साधना करनी पड़ती है। वस्तुत: साधना का अभ्यास इस प्रकार करना चाहिए जिससे जीवित स्थिति में ही मृत्यु के भय से छुटकारा मिल सके। जो लोग जीते जी मौत से भयभीत नहीं होते वे ही मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करते हैं। पूर्ण सत्य की अनुभूति किए बगैर मृत्यु के भय को जीता नहीं जा सकता। जो व्यक्ति जीवनकाल में पूर्ण सत्य की अनुभूति कर सकने में सक्षम हो जाते हैं, मृत्यु काल में ईश-कृपा से उनकी वह उपलब्धि अपने-आप अनायास हो जाती है। गीता में भी कहा गया है कि मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ अंतकाल में देह त्याग करता है, उसी भाव से भावित होकर वह सदा उसी भाव को प्राप्त होता है। इसीलिए लोग मृत्यु के मुहाने पर बैठे व्यक्ति के चित्त में सात्विक भावों को उत्पन्न करने के लिए कई धार्मिक विधि-विधान करते हैं, किंतु ऐसे सद्भाव व्यक्ति की मृत्यु के पूर्व किए गए सतत अभ्यास से ही चित्त में जागृत होते हैं।
           मृत्यु के बाद दो प्रकार की गति होती है। जिस गति में पुनरावर्तन नहीं होता वह 'परा' गति है, जिस गति में कर्मफल भोगने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है वह 'अपरा' गति है। परा गति के एक होने पर भी उसमें विभेद है। एक में मृत्यु के साथ ही भगवान के परमधाम में प्रवेश मिल जाता है तो दूसरे में मृत्यु के बाद कई स्तरों से होते हुए परम धाम में पहुंचा जाता है। हां, इस स्तर पर अधोगति नहीं होती, क्रमश: ऊ‌र्ध्व गति ही होती है। इस विभेद में पहली गति मृत्यु के बाद सद्योमुक्ति है और दूसरी गतिक्रम मुक्ति है। एक अवस्था और है, जिसमें गति नहीं रहती। इस अवस्था में जीवनकाल में ही परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। यही जीवनकाल में सद्योमुक्ति यानी 'जीवन मुक्ति' है। जो पुरुष इस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं उनके लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता।
          प्रारब्धवश शरीर चलता है और कर्मक्षय होने पर देहावसान हो जाता है। निधन के वक्त अंत:करण, वाह्यकरण और प्राणादि सभी अव्यक्त ईश्वरीय शक्ति में लीन हो जाते हैं। देहत्याग के साथ ही विदेह-मुक्ति का लाभ प्राप्त होता है।
                                                           || हरिः शरणम् ||

Friday, April 18, 2014

मुक्ति-आसक्ति का अभाव |

              आत्म-सुधार। शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्म साक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्यों और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है। अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्यों में हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो।
              आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है। यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए।
            जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्मों को अपनाएं। पाप कर्मों से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है। किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो हर हाल में भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को पीड़ा मत दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति व ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।
                                  || हरिः शरणम् ||

Thursday, April 17, 2014

आध्यात्मिक अनुभूति |

                  मन का मापदंड। मनुष्य जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो?
                  इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात महसूस करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है। किसी जलाशय को हम अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो जाएंगे।
                 मान लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम उसे 'विशाल' कहेंगे। जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत्' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी को कहा जाता है 'वृहत्'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।1 जो उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'।
                 विपुल हैं, इस कारण ही वह ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिक अनुभूति की जरूरत है। यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।
                    || हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 16, 2014

योग और भक्ति |

                 योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना के। हमें ज्ञान और कर्म की भी साधना करनी पड़ेगी। सिर्फ आसन और प्राणायाम करने से परमसत्ता को नहीं पाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है भक्ति। एक अनपढ़ व्यक्ति भी भगवान को पा सकता है, जबकि एक विद्वान भी उसे नहीं प्राप्त कर सकता है।
                 इस संदर्भ में सवाल उठता है कि ज्ञान क्या है? सभी वस्तुओं में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करना ही ज्ञान साधना है। सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता को अनुभव करने के लिए लोग आध्यात्मिक साधना करते हैं। परमात्मा सभी वस्तुओं में नहीं है, बल्कि सभी वस्तुएं उन्हीं में हैं, सभी वस्तुएं वे ही हैं। ज्ञान साधना में यह बोध होता है कि सभी वस्तुएं परमात्मा ही हैं। अब सवाल उठता है कि कर्म साधना क्या है? भौतिक विश्व में सभी व्यक्तियों में कार्य करने की संभावना है, किंतु कुछ लोग ही शत-प्रतिशत संभावना का उपयोग कर पाते हैं, 90 प्रतिशत का उपयोग हो ही नहीं पाता।
               कर्म साधना का आशय है- दूसरों के लिए अधिक और अपने लिए कम कर्म करना। साधारणतया मनुष्य अपने लिए ही कार्य में संलग्न रहता है। जो दूसरों के लिए भी कर्म करता है, वह वास्तव में महान है। जो सिर्फ दूसरों के लिए ही कर्म करता है वह 'कर्मसिद्ध' कहा जाता है। इसलिए ज्ञान और कर्म द्वारा भक्ति का जागरण किया जाता है। इस बात को मन में रखें कि ज्ञान और कर्म दोनों को ही करना है, किंतु कर्म साधना, ज्ञान साधना से ज्यादा करनी है। जब कर्म की तुलना में ज्ञान साधना ज्यादा हो जाए, तो अहंकार के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका परिणाम पतन होता है।
            जब ज्ञान से अधिक कर्म किए जाते हैं, तब भक्ति जाग्रत हो जाती है, तब योगी परमात्मा की तरफ बढ़ सकता है। इसके पहले नहीं। एक योगी संपूर्ण रूप से भक्ति पर आश्रित रहता है। जहां भक्ति नहीं है, उस योगी का हृदय मरुभूमि की तरह हो जाता है। एक साधक का हृदय मिट्टी की तरह होता है। इष्टमंत्र बीज है और भक्ति जल के समान है। जहां भक्ति की ठंडी फुहार नहीं है, उस मरुभूमि में बीज बोना व्यर्थ है। इसलिए एक आदर्श योगी बनना सबका लक्ष्य है, किंतु यह याद रखना चाहिए कि भक्ति की लौ को अंतर्मन में जाग्रत करना जरूरी है।
                         || हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 15, 2014

भक्त-एक शरणागत |

                   भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं।
                   रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती। तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है।
                गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है। वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है।
               प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें। जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।
                        || हरिः शरणम् ||

Monday, April 14, 2014

परमात्मा की शरणागति |

                    शरणागत का शाब्दिक अर्थ है शरण में आया हुआ, किंतु इसका निहितार्थ आध्यात्मिक संदर्भ में ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण से है। अपनी रक्षा के लिए शरण में वही आता है जिसे कहीं से किसी आपदा का आभास होता है। सभी आपदाओं, विपत्तियों, प्रवृत्तियों व समस्याओं के निराकरण के एकमात्र आधार ईश्वर ही हैं।
                   किसी एक कष्ट के कारण शरणागत होने पर शांति प्राप्त होती है और सभी कष्टों के निराकरण की अनुभूति होती है। ईश्वर की शरण में जाना साधक को निर्भय बनाता है।
                   प्रभु की शरण प्राप्त करने के लिए साधक में श्रद्धा और विश्वास का होना आवश्यक है। इसके अलावा साधक में सहृदयता, सरलता, शांति व समदृष्टि का प्रवेश स्वत: हो जाता है। वह ईष्र्या-द्वेष से अलग सर्वदा आनंदातिरेक में निमग्न रहता है। ईश्वर ही सृष्टा हैं। समर्पित भाव से उनकी शरण में पहुंच जाने से अपार शांति व संतोष की अनुभूति होती है। जो प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार है वही सच्चा शरणागत है। वस्तुत: ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं। उनकी शरण में आया हुआ व्यक्ति गुणों से अछूता नहीं रह सकता। शरणागत प्रभु के सान्निध्य में आने पर स्वत: ही गुणों व अच्छाइयों को आत्मसात कर लेता है। उसका सांसारिक दोषों-काम-क्रोध, लोभ-मोह व अहंकार से दूर-दूर तक का संबंध नहीं रहता। ऐसी स्थिति में प्रभु को समर्पित पुरुष सद्गुणों से संपन्न हो जाता है। उसे सांसारिक उपलब्धियों-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में से किसी की भी कामना नहीं सताती। धर्म का पालन तो वह स्वयं स्वेच्छापूर्वक कर ही रहा है। अर्थ व काम का लालच उसके पास तक नहीं फटकता। वह पुरुष समय के अनुसार मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। उसकी आत्मा परमात्मा के सानिध्य में पहुंच कर सर्वोच्च आनंद की अनुभूति करती है। शरणागत होने के लिए कोई विशेष प्रयास करना आवश्यक नहीं है। अपने आपको भगवान पर पूर्णत: आश्रित करते हुए करने योग्य कर्मो को फल की इच्छा के बगैर करना चाहिए। शरणागत होने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, जिनका आशय यह है-यह संकल्प कि मैं सदा प्रभु के अनुकूल रहूंगा, प्रतिकूलता का त्याग करूंगा, प्रभु मेरी रक्षा करेंगे, प्रभु मेरे संरक्षक हैं, भगवान के प्रति पूरा विश्वास करते हुए और उनके सामने दीनता के भाव से प्रार्थना करूंगा। इन नियमों पर अमल कर आप चेतना में व्याप्त ईश्वर की शरण में जा सकते हैं।
                           || हरिः शरणम् ||

Sunday, April 13, 2014

तप |

               तप के आयाम। जीवन में कठिन तप के बिना सफलता नहीं मिलती। तप का सीधा सा अर्थ है-तपना। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बनता है। तभी तो इस देश के सिद्ध-साधकों और ऋषि-मुनियों ने तप के सहारे जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति की। सत्य के महान खोजियों ने तप को एक दर्शन माना। तप एक कठोर साधना है। इस साधना के अंतर्गत तप मनुष्य करता है और सिद्धि परमात्मा देता है।
              अध्यात्म में तप के विविध आयामों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि अपने जीवन के दीपक को तपस्या से प्रकाशित करो। तप के भी कई प्रकार हैं। बहुत से लोग शरीर के तप को महत्व देते हैं। जो सच्चा साधक है वह तपस्वी होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके जीवन में तप स्वत: बस जाता है। वह दुविधा में भी हर कार्य सुविधा से करता है। उसके आभामंडल का तो कहना ही क्या। देश को राजनीतिक आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी तप को जीवन में प्रमुखता दी। जहां गांधीजी सत्याग्रह कर रहे थे वहीं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे तपस्वी क्त्रांतिकारी आजादी की अलख जगा रहे थे।
              गौतम बुद्ध ने करुणा को साधा और महावीर ने अहिंसा को साधा। लोग उनकी तपश्चर्या की चर्चा आज भी करते हैं। सदाचरण की साधना दैहिक तप है। वैचारिक रूप से पवित्र रहना मानसिक तप है। एक तप वाणी का भी है। जो कहा वह सोच-समझकर। जो तपस्वी होता है उसका जीवन संतुलित होता है, परंतु अफसोस कि कई बार कुछ तथाकथित लोग इसका भी आडंबर रचकर समाज से छलावा करते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क व सजग रहने की आवश्यकता है। भारत का स्वाधीनता संग्राम हम परम तपस्वियों के तप से जीत सके। तप कठोर व अनवरत साधना के बाद ही फल देता है। प्रभु श्रीराम 14 वर्षो तक वन में रहे और आसुरी शक्तियों को हराने के लिए तप किया। यह उत्कृष्ट तप है। मनुष्य जीवन में तप का संबंध भी जन्म-जन्मांतरों से होता है। भगवान श्रीराम तो कहते हैं कि एक साधक की साधना को मैं जन्म-जन्मांतर तक निरंतरता प्रदान करता हूं। प्रभु तो हम पर हर पल कृपा बरसाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम अपने जीवन को सही तरीके से साधें तो।
                           || हरिः शरणम् ||

Saturday, April 12, 2014

प्रार्थना की शक्ति |

                       परिस्थितियां हमारे जीवन को इतना दुखी बना देती हैं कि हम अपने को एकदम असहाय और निरुपाय पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना चाहिए कि हम अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र, समर्थ और अपने भाग्य के विधाता हैं, क्योंकि परमपुरुष परमात्मा सदैव हमारे साथ हैं और हमारे लिए सच्चे, मार्ग-दर्शक और कल्याणकारी हैं।
                       परमात्मा अंतर्मन में साहस का संचार करते हैं और साहस हमें सच की राह पर चलना और झूठ का तिरस्कार करना सिखाता है। हममें से तमाम लोग जानते हुए भी गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। बात दिल को जंचती नहीं, फिर भी न जाने किस मजबूरी में दूसरों की हां में हां मिलाते रहते हैं और अपने मन को मारते रहते हैं। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है। हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं।
                     हमें उनकी कृपा प्राप्त होने लगती है। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। ऐसे में परमात्मा भी हमारी सहायता के लिए किसी न किसी के हृदय में प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। फिर हमारे समक्ष उत्पन्न परिस्थितियों में नया मोड़ आ जाता है। हमारी हारी हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है। असफलता तो हमारे निकट फटकती भी नहीं। जैसा हमारा विश्वास होता है, हमें वैसा ही फल भी प्राप्त होता है। हमारी जैसी आकांक्षाएं होती हैं वे वैसी ही फलीभूत होती हैं।
                 सुविचार और कल्याण की भावना से किए गए कार्य का परिणाम बेहद सुंदर होता है। इसके लिए केवल आपके विचारों में दृढ़ता होनी चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि आपकी हर क्रिया सुविचारित और कल्याणकारी हो। वह आपके और आपके परिवार के साथ ही समाज के लिए भी कल्याणकारी हो। प्रभु से प्रार्थना के क्षणों में जब हमारा मन एकाग्र होता है और हम अपनी समस्याएं उनके समक्ष रखकर उनसे कुछ याचना करते हैं तो हमें तुरंत समाधान मिल जाता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है।
                                    || हरिः शरणम् ||

Friday, April 11, 2014

परमात्मा-ज्योति स्वरुप |

                   परमात्मा ज्योतिस्वरूप है। सृष्टि का कण-कण उसकी ज्योति से ही प्रकाशित है। ऊर्जा के रूप में वही ज्योति चारों ओर बिखरी है। जीवात्मा उसी ज्योति का अंश है। परमात्मा अनश्वर है, चेतन है, पवित्र है और आनंदमय है। इसलिए अंशरूप जीवात्मा भी अनश्वर, चेतन, पवित्र और आनन्द स्वरूप है। माया के कारण आत्मा और परमात्मा के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं। आनंद उससे कोसों दूर भाग जाता है।
                वह दुख-सुख के चक्र में चक्कर काटता रहता है। सुख पाने का वह जितना प्रयास करता है उसे उतना ही अधिक दुख झेलना पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सुख का विपर्यय दु:ख है। यदि मनुष्य को सुख मिलेगा तो दु:ख भी अनिवार्य है, किंतु आनंद का कोई विपर्यय नहीं है। एक बार आनंदानुभूति हो जाए तो हम बार-बार आनंद ही पाना चाहेंगे, सुख की कामना धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। इसीलिए तो भारतीय मनीषियों ने आत्म-साक्षात्कार द्वारा आनंद प्राप्त करने की बात कही है। आनंद-प्राप्ति का सबसे बड़ा स्नोत यही है। आत्मनिष्ठ होकर इस आनंद को सभी पा सकते हैं। कला की साधना भी आनंद-प्राप्ति का एक स्नोत है। वैसे तो सभी ललित कलाएं हमें आनंद प्रदान कराती हैं, जैसे स्थापत्य कला के अंतर्गत ताजमहल व दिलवाड़ा जैन मंदिर आदि हमें आनंद देते हैं। संगीत कला में नृत्य, गान और वाद्य-यंत्रों से निकलने वाली ध्वनियां हमें आनंदित करती हैं, पर काव्य-कला से मिलने वाला आनंद सर्वोपरि है। इसीलिए उसे 'ब्रह्मानंद सहोदर' भी कहा गया है। अविद्या के नष्ट होने पर जैसे आत्मा के चारों ओर छाया कालुष्य का घेरा मिट जाता है और साधक माया के बंधनों से मुक्त होकर आनंदावस्था को प्राप्त होता है, वैसे ही साहित्य से हृदय सारे बंधनों से मुक्त होकर 'रसदशा' को प्राप्त होता है और सहृदय पाठक या श्रोता आनंद-सागर में डूब जाता है। यदि हम अपने जीवन में वास्तविक सुख-शांति पाना चाहते हैं, तो हमें सुख की मृगतृष्णा को छोड़कर आनंद पाने का प्रयास करना चाहिए। आत्म-साक्षात्कार और कला-साधना सबके लिए संभव नहीं है, पर परोपकार और सेवा-मार्ग पर तो सभी चल सकते हैं। इस पथ पर चलने वाले का धीरे-धीरे यही संस्कार और स्वभाव बन जाता है और फिर उसके जीवन का हर क्षण आनन्दमय हो जाता है।
                     || हरिः शरणम् ||

Thursday, April 10, 2014

श्रद्धा का प्रतिफल |

                          पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है तो उसे पूजने का मन होता है। सगुण उपासक को पूजा के लिए एक 'स्वरूप' की आवश्यकता होती है। निगरुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर धर्म गुरुओं के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है। कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ 'व्यक्ति विशेष' की पूजा में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से लेकर विशेष आदमी तक, सभी लोग पूजा फल के लिए ही करते हैं।
                         गीता जैसे ग्रंथ 'निष्काम' पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो को बिना फल की इच्छा किए बगैर ही प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा से बंधे कर्म को उचित नहीं ठहराता। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कर्म करना ही 'निष्काम-कर्म' दर्शन का आधार है। रिश्तों में बंधे अर्जुन महाभारत युद्ध के आरंभ में कृष्ण के गीता-उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। जीवन के महाभारत में निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है।
                       माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने निहित कर्मो का कुशलतापूर्वक संपादन करते हैं और साथ में निष्काम भाव से प्रभु की पूजा करते हैं। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंपकर परमानंद में जीता है। श्रद्धा से ही मन में सकारात्मक विचारों का आगमन होता है जिसकी मदद से व्यक्ति बड़े से बड़ा काम भी कर डालता है। श्रद्धा हमें जीवन की नई राह दिखाती है। यह किसी के प्रति हो सकती है, लेकिन यह आवश्यक है कि हम श्रद्धा के नाम पर अंधविश्वास की ओर आगे न बढ़ें। हमें उचित-अनुचित का विचार अपने मन-मस्तिष्क से कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए।
                          || हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 9, 2014

विचार और तर्क |

               मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सोचकर करता है। वह मंदिर जाता हो, चोरी करता हो या अनैतिक काम करता हो, वह सोचकर करता है।
               मंदिर जाने के पहले वह मंदिर आने का विचार करता है, तब मंदिर जाता है। अनैतिक काम करने से पहले भी वह विचार करता है। विचार करते समय उस काम के अच्छे-बुरे प्रभाव के बारे में भी सोचता है, लेकिन जब उसके दिमाग पर बुरे विचारों का प्रभाव रहता है, तो वह अपने सभी अच्छे विचारों को अपने ही तर्क से दबा देता है और अपने बुरे विचारों के समर्थन में तर्क भी गढ़ लेता है।
               वह अपने तर्को द्वारा मान लेता है कि उसका प्रत्येक गलत काम सही है। ऐसा इसलिए क्याेंकि मनुष्य तार्किक व्यक्ति है। ऐसा होता भी है कि जो व्यक्ति गलत करता है, उसके पास अपने गलत काम के समर्थन में बहुत तर्क होते हैं। शराब पीने वाला आपको मनवा देगा कि वह सही कर रहा है, क्योंकि वह अपनी चालाकी से अपने समर्थन में मजबूत तर्क एकत्र कर लेता है। जैसे किसी वकील के पास आप जाइए और यह कहें कि मैंने कोई दुराचार किया है, तो वह अपने तर्क से यह साबित कर देगा कि आपने गलत नहीं किया। गलत काम करने वालों के पास तर्क बहुत होते हैं।
               सत्य को साबित करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। तर्र्को के द्वारा असत्य को सत्य साबित किया जा सकता है। कई लोग आपको भी यह साबित कर बता देंगे कि अमुक व्यक्ति मनुष्य नहीं पशुतुल्य है। कई बार सत्य बोलने वाले को असत्यवादी लोग चौराहे पर खड़ा करके असत्य साबित कर देते हैं और ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा देते हैं, सुकरात को जहर पिला देते हैं। ऐसे लोग बड़े तार्किक होते हैं। तर्क का जन्म विचार से होता है। शरीर में जो ऊर्जा बनती है, उस ऊर्जा को अगर विवेकपूर्ण कार्यो में खर्च किया जाए तो उसका प्रभाव रचनात्मक होता है। अगर इस ऊर्जा को गलत दिशा में खर्च किया जाए तो मानवता का नाश करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी की घटना घट जाती है। मनुष्य मूल रूप से न अच्छा होता है और न बुरा होता है। वह केवल मनुष्य होता है। बाद में वह जिस परिवेश में पलता है जैसा विचार करता है, वैसा ही बन जाता है।
                     || हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 8, 2014

प्रेम ही परमेश्वर है |

         प्रेम ही संसार में प्रेरक शक्ति है, जो निरंतर स्फूर्त रखता है और बड़े से बड़ा काम करने को प्रेरित करता है। यही प्रेम सर्वव्यापी होकर ईश्वर का रूप ले लेता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
            प्रेम सर्वसाक्षी, सर्वव्यापी और सर्वत्र है। चेतन और अचेतन में, व्यष्टि और समष्टि में यही भगवत्प्रेम आकर्षक शक्ति के रूप में प्रकट होता है। संसार में यही एक प्रेरक शक्ति है। इसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मानव जाति के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है और बुद्ध एक प्राणी तक के लिए, माता अपनी संतान के लिए और पुरुष स्त्री के लिए कुछ भी कर सकता है। इसी प्रेम की प्रेरणा से मनुष्य अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को उद्यत रहते हैं। संसार की यह प्रेरक शक्ति प्रेम निर्लेप और सभी में प्रकाशमान है। इसके बिना संसार क्षण भर में चूर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। यह प्रेम ही परमेश्वर है।
             'पति से कोई पत्नी पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन पति में जो आत्मा है, उसी के लिए वह प्रेम करती है। कोई पति पत्नी से पत्नी के लिए नहीं, वरन उसमें जो आत्मा है, उसके लिए प्रेम करता है। कोई किसी भी चीज पर केवल आत्मा को छोड़कर और किसी अन्य बात के लिए प्रेम नहींकरता। (वृहदारण्यकोपनिषद)।' यह भी उसी प्रेम का ही एक रूप है।
             इस खेल को छोड़कर अलग खड़े हो जाओ, उसमें अपने को शामिल न करो, वरन इस अद्भुत दृश्य को, इस अपूर्व नाटक को, एक के बाद दूसरे अंक के अभिनय को देखते चलो और इस अद्भुत स्वर-संगति को सुनते जाओ। सभी उसी प्रेम की अभिव्यक्तियां हैं। स्वार्थपरायणता में भी वही आत्मा या 'स्व' अनेक हो जाता है और बढ़ता ही जाता है। वही एक आत्मा मनुष्य का विवाह हो जाने पर दो आत्मा और बच्चे पैदा होने पर अनेक आत्मा हो जाएगी। वही पूरा गांव हो जाएगा, शहर हो जाएगा और फिर भी बढ़ता ही जाएगा, जब तक कि वह सारी दुनिया को आत्मस्वरूप अनुभव न करने लगे।
               वही आत्मा अंत में सभी पुरुषों, सभी स्त्रियों, सभी बच्चों, सभी जीवधारियों, यहां तक कि समग्र विश्व को अपने में ढक लेगा। वही सामान्य प्रेम आगे चलकर बढ़कर सर्वव्यापी प्रेम अर्थात अनंत प्रेम का स्वरूप धारण कर लेगा और वही प्रेम ही तो ईश्वर है।
               आज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म-दिन है |आप सभी को रामनवमी की शुभकामनाएं |
                   || हरिः शरणम् ||

Monday, April 7, 2014

मन और अस्तेय |

                अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बगैर या परिश्रम किए बिना उस वस्तु को प्राप्त करना भी चोरी है। जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं उसे पाने की इच्छा बीजरूप में चोरी ही मानी जाएगी। मन पर काबू करते हुए इस दुर्गुण से बचना अस्तेय व्रत है। काम, क्रोध, लोभ आदि मनोविकारों के कारण अपराधों में वृद्धि हो रही है। सभी इंद्रियों में मन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इससे होने वाली चोरी सूक्ष्मतम होती है।
               किसी वस्तु को देखकर मन ललचाता है। लालच या प्रलोभन के वशीभूत होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं है। किसी चीज की जरूरत न होने पर भी उसे हड़प कर फालतू चीजों का अंबार लगा लेना परिग्रह कहलाता है, जो अस्तेय व्रत का शत्रु है। आज भी यदि हमें नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है तो आर्थिक मर्यादा निश्चित करते हुए संयम आवश्यक है। तभी न केवल हमारे तनाव दूर होंगे, बल्कि हमें सुख व संतोष भी प्राप्त होगा।
              आज उपभोगवाद का दौर चल रहा है। ऐसे समय में अस्तेय व्रत की प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसके द्वारा ही हम उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं। महात्मा गांधी ने अपने एकादश व्रतों में अस्तेय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ अस्तेय को जीवन का अभिन्न अंग माना है। अस्तेय एक मानसिक संकल्प है, जिससे मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि संसार का समस्त कार्य-व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता, साक्षी और विवेकी है।
              मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया जा सकता है। मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं। अस्तेय व्रत साधने के लिए संतोष का सद्गुण अपनाना होगा। हम जानते हैं कि सारे व्रत या संकल्प एक दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए अस्तेय की प्राप्ति के लिए सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का भी पालन करना होगा। संतोष के बिना परिग्रह समाप्त नहीं किया जा सकता है और न ही चोरी समाप्त हो सकेगी। इसलिए सुखमय जीवन और स्वस्थ समाज के लिए अस्तेय व्रत परमावश्यक है।
                       || हरिः शरणम् ||

Sunday, April 6, 2014

चिन्तन-मनन |

                  चिंतन का अर्थ है सोचना या विचारना। किसी सुने हुए, पढ़े हुए या विचारणीय विषय पर एकांत स्थान में बैठकर गंभीर विचार करना मनन है। मननशीलता का गुण होने के कारण मानव को मनुष्य कहा जाता है। जैसा मन का स्वभाव या गुण होता है वैसा ही मनुष्य होता है।
                  मन आत्मा का सर्वोपरि साधन है। मन का कार्य है आत्मा से प्राप्त संदेशों को क्रियान्वित कराने का संकल्प करना। मन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों के जरिये कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मन की गुणवत्ता पर ही मनुष्यता निर्भर करती है, अन्यथा मन के पतित होने पर मानव का व्यवहार भी पशुवत हो जाता है। हमारे अंत:करण के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को शुमार किया जाता है। कार्य के विभाजन को देखते हुए मन और चित्त भिन्न-भिन्न हैं।
                 चित्त का काम चिंतन करना है और मन का काम मनन करना है। चिंतन चित्त में होने के कारण उसके साथ बुद्धि का समावेश रहता है। शास्त्रों में बुद्धि को निश्चयात्मक बताया गया है। इस गुण के कारण यह किसी भी विषय का निश्चय करा देती है। चिंतन निर्विकल्प स्थिति है, जो ज्ञानपूर्वक होती है। आध्यात्मिक जगत में केवल आत्मा और परमात्मा का चिंतन होता है, किसी अन्य विषय का नहीं। मनुष्य ज्ञानरहित अवस्था में ही चिंता करता है। वेदों में कहा गया है कि मनुष्य चिंता न करे, क्योंकि यह हमें पतन की ओर ले जाती है।
                शास्त्रों में चिंता और चिता पर विचार करते हुए बताया गया है कि मनुष्य चिंता करके चिता की स्थिति तक पहुंच जाता है, परंतु यदि वह चित्त में चिंतन करे तो परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। चिंतन साधना की प्रारंभिक अवस्था है। व्यक्ति अपने चित्त को योग साधना के माध्यम से बाहरी कार्यों और विषयों से हटाकर अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेता है। इस स्थिति को गीता में कामनाओं से रहित होकर योगनिष्ठ होना बताया गया है। ऐसा योगनिष्ठ साधक आत्मानंद का अनुभव प्राप्त करते हुए अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वेदों के अनुसार मन हृदय में स्थित है, मस्तिष्क में नहीं। आत्म तत्व को सुसारथि बताया गया है जो चिंतन-मनन के विवेक से परिपूर्ण होकर जीवन रूपी रथ का संचालन करता है।
                          || हरिः शरणम् ||

Saturday, April 5, 2014

मन-एक परमात्म तत्व |

                    मिथ्या है अभिमान। मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते।
                    जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं। अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार (जैसे धन, वैभव, तप और ज्ञान आदि) का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें।
                    खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें। शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है। सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो। कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।
                    लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।
                             || हरिः शरणम् ||

Friday, April 4, 2014

खुशी-एक मनोदशा |

                    वस्तुत: प्रसन्नता या खुशी आपकी मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए खुश रहना एक हुनर है। तमाम लोगों की धारणा है कि अमुक-अमुक वस्तुओं को हासिल करने से उन्हें खुशी मिलेगी तो उनकी ऐसी सोच बेबुनियाद है। इसका कारण यह है कि खुशी का अहसास किसी वस्तु विशेष पर निर्भर नहीं करता।
                    दुनिया में तमाम ऐसे धनवान व्यक्ति हैं जिनके पास समस्त भौतिक व विलासितापूर्ण वस्तुएं उपलब्ध हैं। इसके बावजूद आए दिन अखबारों व अन्य प्रचार माध्यमों में इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं कि अमुक धनवान व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि ऐसे लोग स्वयं से या हालात से अप्रसन्न होने की स्थिति में ही आत्महत्या करते हैं। इस प्रकार यह बात स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है कि प्रसन्नता का कारण सिर्फ धन या वैभव ही नहीं है। वस्तुत: खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है, जिसमें आप शांति व आनंद की अनुभूति करते हैं।
                    यदि आपके जीवन में अथक प्रयासों के बाद भी खुशी का अहसास नहीं हुआ है तो इसका अर्थ है कि आपने जीवन के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा की है। बात चाहे संबंधों की प्रगाढ़ता की हो या परिस्थिति विशेष से निबटने में कार्यकुशलता की, आप बेहतर तभी कर सकते हैं जब खुश हों। सच तो यह है कि खुश रहना या नहीं रहना आप पर निर्भर है। जीवन में चाहे आप जो भी पा लें, यह मायने नहीं रखता। यदि आप खुश हैं, कुछ और नहीं भी हासिल करते हैं तो आपका क्या बिगड़ जाता है? खुश रहना आपका स्वभाव है। इसलिए आप खुश रहना चाहते हैं। जब आप छोटे थे तो खुश थे, लेकिन जीवन-यात्र में खुशियों को आपने कहीं खो दिया है, क्योंकि आपका मन और शरीर आपकी पहचान को आसपास की चीजों से जोड़कर देखने का आदी हो चुका है। जिसे आप मन कहते हैं उस पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आप जैसे समाज में पले-बढ़े हैं, आपके मन-मस्तिष्क की अवधारणा वैसी ही होगी। आपके मन-मस्तिष्क में भी वही है जो आपने समाज में देखा है। आप इन चीजों से इतने गहन रूप में जुड़ गए हैं कि यह प्रवृत्ति आपकी परेशानियों का मूल कारण बन गई है।
                         II हरि:: शरणम् II

Thursday, April 3, 2014

कामना और वासना |

                         मनुष्य का सारा जीवन उम्मीद पर टिका रहता है। यह सही है कि आशा जीवनी-शक्ति प्रदान करती है और मनुष्य को बहुत कुछ करने के लिए प्रेरित करती है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आशा और कामना की एक कड़ी पार करते ही मनुष्य अनंत आशाओं के चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है।
                        जीवन में अगर रचनात्मक व क्रियात्मक आशाएं संजोई जाएं तो सफलता मिलती है, लेकिन जब समुद्र की लहरों की तरह मन में आशा की अनंत लहरें उठने लगती हैं, तो उन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। जब एक-दो बार आशा पूरी हो जाती है, तब मनुष्य स्वभावत: अहंकारी हो जाता है। वह प्रतिक्षण अपने मन में उठते मनोवेग की तरह वह सब कुछ पा लेना चाहता है, जिसकी वह कल्पना करता है। प्रत्येक मनुष्य धन कमाना चाहता है। एक बार जब धन की प्राप्ति हो जाती है, तब वह और धन प्राप्त करना चाहता है। मनुष्य की चाह का कोई अंत नहीं है। कामना और वासना दो ऐसे मनोवेग हैं, जो कभी पूरे नहीं होते।
                        आज तक धन की कामना और वासना की पूर्ति से कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआ। इस कामना और वासना की पूर्ति में मनुष्य अपना सारा जीवन नष्ट कर देता है और उसे सुख कभी नहीं मिलता। सुख की खोज में भटकते-भटकते मनुष्य अंत में दुख प्राप्त करके घर लौटता है। आज हमारे समाज में इतने दुखी, अशांत, चिंताग्रस्त और बीमार लोग इसलिए दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि वे अपनी कामनाओं को पूरा नहीं कर सके। आम तौर पर पहली सफलता मिलते ही मनुष्य अहंकारी बन जाता है और वह चाहता है कि उसे सब कुछ प्राप्त हो जाए जो वह चाहता है। जब कभी उसे कोई सफलता नहीं मिलती तो वह आक्रामक हो जाता है, आहत हो जाता है और हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। हीन भावना से ग्रस्त लोग ही विध्वंसक होते हैं। आशावादी होना अच्छा है, लेकिन आशा जब परवान चढ़ने लगे, आशा जब समुद्र की लहरों की तरह अनंत बन जाए, तो जीवन के लिए खतरनाक बन सकती है। आज प्रत्येक परिवार में इतना कलह, इतना विषाद इसलिए है क्योंकि परिवार के प्रत्येक सदस्य अपने-अपने अहंकार की पूर्ति की आशा में बैठे हैं। जहां इस आशा की पूर्ति में थोड़ा अवरोध पैदा हुआ कि झगड़े शुरू हो जाते हैं। आज परिवार इसलिए विघटित हो रहे हैं, क्योंकि लोग अपनी आशाओं की पूर्ति के लिए अहंकार के घोड़े पर सवार हैं।
                         || हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 2, 2014

इच्छाशक्ति |

                 इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग। जीवन में सफलता और विफलता के निर्णायक तत्वों में इच्छाशक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छाशक्ति के माध्यम से व्यक्ति असंभव लगने वाले कार्यो को संभव बना सकता है। इच्छाशक्ति के अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है।
                 इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है। छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रसदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता।
                     जीवन की इस मूलभूत त्रासदी की स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान श्रीकृष्ण के सामने होती है- 'धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूं, किंतु इसे करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूं, किंतु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता।'
                     दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छाशक्ति की दुर्बलता व विफलता का मर्म निहित है। जीवन की सफलता के लिए एकमात्र रास्ता इच्छाशक्ति का विकास रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा कि इच्छाशक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया यानी प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है।
                     स्वामी विवेकानंद के शब्दों में- इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग है। व्यवहारिक जीवन में इच्छाशक्ति मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है। इच्छाशक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इच्छाशक्ति के विकास में एकाग्रता बहुत सहायक है। हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छाशक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यो से बचें, जिनमें ऊर्जा अनावश्यक क्षय होती है। स्पष्ट है, जब आप आत्मजागरण, आत्म-विकास व ईश्वरभक्ति में संलग्न होंगे, उतना ही इच्छाशक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा और उतना ही हमारा जीवन सुख, शांति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा।
                                || हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 1, 2014

अनंत इच्छाएं |

            मनुष्य जीवन भर अपनी इच्छाओं के पीछे भागता रहता है। जीवन में कुछ इच्छाओं की पूर्ति तो हो जाती है, पर ज्यादातर इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य द्वारा मनवांछित इच्छाओं की जब पूर्ति हो जाती है, तब वह फूले नहीं समाता। उस कार्य की पूर्ति का सारा श्रेय वह स्वयं को देता है। जब इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती, तब वह ईश्वर को दोष देने लगता है और अपने भाग्य को दोष देने लगता है।
                     मनुष्य की इच्छाएं अनंत होती हैं। वे धारावाहिक रूप से एक के बाद एक आती और चली जाती हैं। एक इच्छा की पूर्ति के बाद दूसरी इच्छा मन में फिर उठने लगती है। इस प्रकार जीवन-पर्यन्त यही क्रम निरंतर चलता रहता है। इस वर्तमान भौतिक युग में लोग इच्छाओं से भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को मन में संजोने लगे हैं। ऐसी-ऐसी महत्वाकांक्षाएं संजोते हैं, जिनके बारे में स्वयं जानते हैं कि वे शायद ही कभी पूरी हो सकें। इस क्षणभंगुर संसार में सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए मनुष्य सदा प्रयत्‍‌नशील रहता है। इसके लिए वह सदैव कामना करता रहता है। वह नहीं जानता कि सुख स्वरूप तो वह स्वयं ही है। ये सांसारिक सुख तो क्षणभंगुर ही हैं। यह समाप्त होने वाला है, तब फिर संसार के इन सुखों की इच्छाओं के पीछे क्यों भागा जाए?
                   भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि रजोगुण से उत्पन्न हुई यह कामना बहुत खाने वाली है, जिसकी पूर्ति कभी नहीं होती। इसका पेट कभी नहीं भरता।
                  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में उठने वाली कामना यदि पूरी हो जाती है, तो राग उत्पन्न हो जाता है और इच्छाओं की पूर्ति न होने पर मन में क्त्रोध जन्म ले लेता है। इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि होनी तय है। संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो पाती, जबकि इन इच्छाओं की पूर्ति करने में मनुष्य अपना सारा श्रम लगा देता है। मनुष्य को चाहिए कि वह इन इच्छाओं का दामन छोड़कर अपने नियमित कर्मो को आसक्तिरहित होकर करे। कर्मो के फलों को परमात्मा पर न्योछावर कर दे। व्यक्ति को इस जगत में निर्लिप्त होकर रहना चाहिए। तभी वह शाश्वत सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा और वह इच्छाओं के जाल में नहीं फंसेगा।
                                 ॥ हरिः शरणम् ||