अर्जुन एक क्षत्रिय है और इस
कारण से वह रजोगुण प्रधानता लिए हुए था | एक क्षत्रिय का प्राकृतिक गुण होता है, युद्ध
करना |अगर कुरुक्षेत्र से अर्जुन पलायन करता तो भी उसे युद्ध भूमि में युद्ध करने
के लिए वापिस आना ही होता | इस युद्ध में भाग लेने के लिए उसमें स्थित प्रकृति के
गुण उसे विवश कर देते | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में उसे यही समझाया है कि तेरा
कर्तव्य युद्ध भूमि से पलायन करना नहीं है बल्कि युद्ध भूमि में समत्व रखते हुए
युद्ध करना है |इस कुरुक्षेत्र की भूमि पर जय-पराजय का विचार किये बिना, इसे अपना कर्तव्य
समझ कर युद्ध करना ही समत्व है | इससे यह सिद्ध होता
है कि मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता परमात्मा ने अवश्य प्रदान की है परन्तु प्रकृति
के गुणों के बंधन के साथ | यह आंशिक स्वतंत्रता और आंशिक परतंत्रता मनुष्य को कुछ
सोचने को विवश अवश्य ही करती है | इस सोच और विचार करने की भूमिका में प्रकृति के
शेष बचे तीनों तवों की भूमिका रहती है |यह सब मन, बुद्धि और अहंकार के वश में है
कि वह मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त गुणों की पराधीनता को कर्मों को करने की
स्वतंत्रता में कैसे बदले ? इन गुणों के स्वरूप को परिवर्तित करते हुए मनुष्य आकाश
की ऊँचाइयों को भी छू सकता है या फिर पाताल की गहराइयों तक पतन की पराकाष्ठा तक भी
पहुँच सकता है | सब प्रकृति के गुणों के सदुपयोग या दुरुपयोग का खेल मात्र है |
मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचता है, परन्तु क्या वह उसमें से थोडा बहुत भी अपने कारण, अपने अनुसार और स्वयं के द्वारा करने की क्षमता रखता है ? यही वह प्रश्न है, जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है | करना तो व्यक्ति परमात्मा से भी अधिक चाहता है परन्तु जब जीवन का संध्या काल आता है तब उसके हाथ खाली के खाली ही रह जाते हैं |फिर इस जन्म की शतायु भी बौनी नज़र आने लगती है |इसलिए जीवन चाहे सौ वर्ष का हो चाहे चंद दिनों का, आपके कर्म ही आपके साथ चलते हैं और कर्मों का चयन करने की स्वतंत्रता आपके पास है |कर्मों के कारण ही आप निरंतर प्रगति करते हुए आकाश की ऊँचाई छू सकते हैं और पतन के गर्त में भी जा सकते हैं |अतः जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है, किये जाने वाले कर्मों का चयन |आप कर्म को करने से विमुख नहीं हो सकते क्योंकि कर्म करने को आप विवश हैं | ऐसे में आपके पास एक ही रास्ता बचता है, कर्म करने का, सही कर्म करने का, जो कर्म आपको पुनर्जन्म से मुक्त भले ही न कर सके परन्तु कर्म-योगी अवश्य ही बना दे |
मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचता है, परन्तु क्या वह उसमें से थोडा बहुत भी अपने कारण, अपने अनुसार और स्वयं के द्वारा करने की क्षमता रखता है ? यही वह प्रश्न है, जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है | करना तो व्यक्ति परमात्मा से भी अधिक चाहता है परन्तु जब जीवन का संध्या काल आता है तब उसके हाथ खाली के खाली ही रह जाते हैं |फिर इस जन्म की शतायु भी बौनी नज़र आने लगती है |इसलिए जीवन चाहे सौ वर्ष का हो चाहे चंद दिनों का, आपके कर्म ही आपके साथ चलते हैं और कर्मों का चयन करने की स्वतंत्रता आपके पास है |कर्मों के कारण ही आप निरंतर प्रगति करते हुए आकाश की ऊँचाई छू सकते हैं और पतन के गर्त में भी जा सकते हैं |अतः जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है, किये जाने वाले कर्मों का चयन |आप कर्म को करने से विमुख नहीं हो सकते क्योंकि कर्म करने को आप विवश हैं | ऐसे में आपके पास एक ही रास्ता बचता है, कर्म करने का, सही कर्म करने का, जो कर्म आपको पुनर्जन्म से मुक्त भले ही न कर सके परन्तु कर्म-योगी अवश्य ही बना दे |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||