Tuesday, December 30, 2014

कर्म-योग |-9

                 अर्जुन एक क्षत्रिय है और इस कारण से वह रजोगुण प्रधानता लिए हुए था | एक क्षत्रिय का प्राकृतिक गुण होता है, युद्ध करना |अगर कुरुक्षेत्र से अर्जुन पलायन करता तो भी उसे युद्ध भूमि में युद्ध करने के लिए वापिस आना ही होता | इस युद्ध में भाग लेने के लिए उसमें स्थित प्रकृति के गुण उसे विवश कर देते | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में उसे यही समझाया है कि तेरा कर्तव्य युद्ध भूमि से पलायन करना नहीं है बल्कि युद्ध भूमि में समत्व रखते हुए युद्ध करना है |इस कुरुक्षेत्र की भूमि पर जय-पराजय का विचार किये बिना, इसे अपना कर्तव्य समझ कर युद्ध करना ही समत्व  है | इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता परमात्मा ने अवश्य प्रदान की है परन्तु प्रकृति के गुणों के बंधन के साथ | यह आंशिक स्वतंत्रता और आंशिक परतंत्रता मनुष्य को कुछ सोचने को विवश अवश्य ही करती है | इस सोच और विचार करने की भूमिका में प्रकृति के शेष बचे तीनों तवों की भूमिका रहती है |यह सब मन, बुद्धि और अहंकार के वश में है कि वह मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त गुणों की पराधीनता को कर्मों को करने की स्वतंत्रता में कैसे बदले ? इन गुणों के स्वरूप को परिवर्तित करते हुए मनुष्य आकाश की ऊँचाइयों को भी छू सकता है या फिर पाताल की गहराइयों तक पतन की पराकाष्ठा तक भी पहुँच सकता है | सब प्रकृति के गुणों के सदुपयोग या दुरुपयोग का खेल मात्र है |                         
                 मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचता है, परन्तु क्या वह उसमें से थोडा बहुत भी अपने कारण, अपने अनुसार और स्वयं के द्वारा करने की क्षमता रखता है ? यही वह प्रश्न है, जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है | करना तो व्यक्ति परमात्मा से भी अधिक चाहता है परन्तु जब जीवन का संध्या काल आता है तब उसके हाथ खाली के खाली ही रह जाते हैं |फिर इस जन्म की शतायु भी बौनी नज़र आने लगती है |इसलिए जीवन चाहे सौ वर्ष का हो चाहे चंद दिनों का, आपके कर्म ही आपके साथ चलते हैं और कर्मों का चयन करने की स्वतंत्रता आपके पास है |कर्मों के कारण ही आप निरंतर प्रगति करते हुए आकाश की ऊँचाई छू सकते हैं और पतन के गर्त में भी जा सकते हैं |अतः जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है, किये जाने वाले कर्मों का चयन |आप कर्म को करने से विमुख नहीं हो सकते क्योंकि कर्म करने को आप विवश हैं | ऐसे में आपके पास एक ही रास्ता बचता है, कर्म करने का, सही कर्म करने का, जो कर्म आपको पुनर्जन्म से मुक्त भले ही न कर सके परन्तु कर्म-योगी अवश्य ही बना दे |
 क्रमशः  
                        || हरिः शरणम् ||

Saturday, December 27, 2014

कर्म-योग |-8

         इतना समझाने पर भी अर्जुन के ना समझ पाने पर गीता के अंतिम अध्याय में आखिर थक हारकर भगवान श्री कृष्ण को कहना ही पड़ा-
         यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
         मिथ्येष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||गीता 18/59||
अर्थात् जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है ;क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा |
         स्वभावजेन कौन्तेय निबध्दःस्वेन कर्मणा |
         कर्तुंनेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोsपि तत् ||गीता 18/60||
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी तू अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |

        यहाँ इस 60 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अर्जुन ! जो तुमने पूर्व में कर्म किये हैं अर्थात पूर्वजन्म में तुमने जो कर्म किये हैं उनसे तुम्हारा यह स्वभाव बना और इस जन्म में यही स्वभाव संस्कार बना जिसके कारण तुम क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हो |अतः तुम इस स्वाभाविक कर्म अर्थात क्षत्रिय कर्म के वश में हो, जिसके फलस्वरूप तुम्हें भोग-कर्म के रूप में वर्तमान जन्म में युद्ध करना ही पड़ेगा |
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||             

Wednesday, December 24, 2014

कर्म-योग |-7

          सभी कर्म जो इन्द्रियों द्वारा किये जाते हैं, उन सब कर्मों में भूमिका जड़ तत्वों की होती है |चेतन तत्व-आत्मा की इन कर्मों में किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं होती है |गीता में भगवान 13 वें अध्याय, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नामक अध्याय में एकदम स्पष्ट करते हैं| वे अर्जुन को कहते हैं -                   
             अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |                                               
 शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता 13/31||
                            अर्थात् हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष (चेतन, आत्मा) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |                       
                  यहाँ परमात्मा श्री कृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्मा इस भौतिक शरीर में रहते हुए कर्मों को न तो करता है और न ही कर्मों में लिप्त होता है |आप आत्मा है, शरीर नहीं है |इस प्रकार आप न तो कर्म कर सकते हैं और न ही कर्मों में लिप्त हो सकते हैं | कर्ता तो जड़ तत्व, यह शरीर है ,ऐसे में चेतन तत्व यानि आत्मा कर्ता कैसे हो सकती है ? आप आत्मा हैं, शरीर नहीं है ,ऐसे में आप कर्ता हो ही नहीं सकते |

                अब प्रश्न यही उठता है कि जब व्यक्ति कर्ता नहीं है तो फिर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता कैसे है ? कर्म करने की स्वतंत्रता में प्रकृति के शेष बचे तीन तत्वों यानि मन, बुद्धि और अहंकार की भूमिका होती है |उपरोक्त तीन तत्व केवल मनुष्य नाम के प्राणी के शरीर में ही उपस्थित होते हैं, अन्य किसी भी प्राणी में नहीं |यही कारण है कि अन्य सभी प्राणी केवल भोग-कर्म ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म भी कर सकता है |इसीलिए मनुष्य की योनि को भोग योनि के साथ साथ योग-योनि या कर्म-योनि भी कहा जाता है जबकि अन्य प्राणियों की योनि को केवल भोग-योनि कहा जाता है |
                 लेकिन यह कर्म करने की स्वतंत्रता भी सम्पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है | जैसा कि भगवान श्री कृष्ण गीता में बार बार अर्जुन को यही समझाते हैं कि तू कौन होता है युद्ध करने वाला या युद्ध न करने वाला ? जब युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने ,अपने और दुर्योधन ,दोनों ही पक्षों में अपने सगे-सम्बन्धियों, परिवारजनों और मित्रों को देखा तब उसे लगा कि इस युद्ध में जीत चाहे किसी की भी हो, मरने वाले तो उसके अपने ही होंगे |ऐसा विचार कर उसने हथियार डाल दिए और युद्ध से पलायन की बात करने लगा | अगर कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता मनुष्य को होती तो अर्जुन कभी का युद्ध भूमि छोड़ भाग खड़ा होता |परन्तु श्री कृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध करने या न करने का निर्णय तू स्वयं कर ही नहीं सकता क्योंकि कर्म मनुष्य प्रकृति के गुणों के वश में होकर करता है अर्थात मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र तो है परन्तु उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म प्रकृति के गुणों के अधीन होते हैं | ऐसे में कहा जा सकता है कि मनुष्य को अपने जीवन में कर्म करने की स्वतंत्रता अवश्य है परन्तु प्रकृति के गुणों के वश में रहकर ही वह कर्म करेगा |
क्रमशः 
                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 
 

Monday, December 22, 2014

कर्म-योग |-6

             जब इस शरीर में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण ही होते हैं अथवा किये जाते हैं ,तो फिर ऐसे कर्मों का कोई कर्ता कैसे हो सकता है ?इसी बात को और अच्छे तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ | किसी भी व्यक्ति में तीन मूल तत्व उपस्थित होते हैं - भौतिक शरीर, मन और आत्मा | शरीर बनता हैं, पांच भौतिक तत्वों से, यथा -भूमि, आकाश, जल, वायु और अग्नि | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच उनके विषय भी इन पञ्च भौतिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं | भूमि से नाक और गंध, आकाश से कान और शब्द या ध्वनि, जल से जिह्वा और स्वाद ,अग्नि से आँख और दृष्टि तथा वायु से त्वचा और स्पर्श से/का ज्ञान |परन्तु इन पंद्रह तत्वों के बाद भी कर्म करने लिए पांच कर्मेन्द्रियाँ आवश्यक है |उपरोक्त बीस तत्वों के साथ जब मन, बुद्धि और अहंकार का तादात्म्य स्थापित होता है तब व्यक्ति कर्म करने की अवस्था को उपलब्ध होता है | इस प्रकार जब मनुष्य शरीर में उपरोक्त 23 जड़ तत्व इकट्ठे हो जाते हैं तब उसके कर्म करने की स्थिति में आने के लिए 24 वें तत्व के रूप में आत्मा का प्रवेश होता है |
                                          यह आत्मा ही चेतन तत्व है, जो किसी भी प्रकार का कोई कर्म नहीं करती है, जबकि कर्म करने वाले जो शेष 23 तत्व हैं, वे सभी जड़ तत्व है | कर्म जड़ तत्व करते हैं न कि चेतन तत्व | प्रारम्भिक 20 जड़ तत्वों (मन, बुद्धि और अहंकार को छोड़कर) का आधार पांच भौतिक तत्व ही हैं |इन पांच भौतिक तत्वों को प्रकृति में आप कर्म करते हुए साफ साफ देख सकते हैं |पृथ्वी या भूमि आपको सभी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन उपलब्ध करवाती है, यह उसका कर्म है |इससे उत्पन्न घ्रानेंद्रिय से आप गंध का अनुभव कर सकते हैं |जल के कर्म आप समुद्र में देख सकते है ,जिसमें सदैव ही लहरें उठती रहती है | इसके जल से भाप बनकर बादल उठते हैं जो दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरसते हैं | इस बरसे जल से हमें भूख मिटाने के लिए अन्न और प्यास बुझाने के लिए जल प्राप्त होता है |जल का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय जीभ है, जिससे आप स्वाद का अनुभव कर सकते हैं | जीभ का कर्म स्वाद का ज्ञान करना है | वायु का कर्म है-बहना |जिसका स्पष्ट अनुभव आप इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय त्वचा से कर सकते हैं | त्वचा का कर्म है-स्पर्श का ज्ञान, छूकर किसी का अहसास कराना, जैसे ठंडा, गर्म, पतला, मोटा आदि |अग्नि का कर्म है-गर्मी और प्रकाश देना |इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है नेत्र| नेत्रों से हम दृष्टि पाते है| इस प्रकार नेत्र का कर्म है-देखना | इसी प्रकार आकाश में हम शब्द या ध्वनि का अनुभव कर सकते हैं |आकाश का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है-श्रवनेंद्रिय यानि कान | कानों से हमें आवाज और उसकी दिशा का ज्ञान प्राप्त होता है | 
क्रमशः 
                           || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 21, 2014

कर्म-योग |-5

                       हमने कर्मों को दो भागों में विभाजित किया है |अगर गंभीरता से देखा जाये तो भोग-कर्म वास्तव में ऐसे कर्म है जिस पर करने वाले का किसी भी प्रकार से नियंत्रण नहीं है, जबकि योग-कर्म का नियंत्रण सदैव ही कर्ता के पास होता है और समस्त ब्रह्माण्ड में एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसको अपने मन के अनुसार कर्म करने की स्वतंत्रता है और वह इसी के अनुरूप योग-कर्म करता भी है | अतः जहाँ पर भी और जिस किसी भी शास्त्र में कर्म नाम से जो भी उल्लेखित है, उन सबका तात्पर्य योग-कर्म से ही है | अतः इस श्रृंखला में आगे जहाँ भी कर्म शब्द का प्रयोग होगा ,उसका अभिप्राय योग-कर्म से ही होगा | यह सब कर्म मनुष्य एक कर्ता बन कर करता अवश्य है परन्तु वास्तव में वह इन कर्मों का कर्ता होता नहीं है |आप कहेंगे कि एक तरफ आप कह रहे हैं कि मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसको कर्म करने की स्वतंत्रता है और दूसरी तरफ कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है | ऐसा विरोधाभास क्यों ?              
                                   गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं-                                                                                              प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः ।                                                                                                 अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते I।3/27।।                
अर्थात् वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है |
क्रमशः
                                            || हरिः शरणम् ||

Friday, December 19, 2014

कर्म-योग |-4

भोग-कर्म और योग-कर्म के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
                प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||गीता 3/33||
अर्थात् सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |ज्ञानवान भी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है |फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? 
      यहाँ भगवान स्पष्ट कहते हैं कि सभी प्राणी अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |पूर्व मनुष्य जन्म में किये हुए कर्मों (योग-कर्मों) से उसके स्वभाव का निर्माण होता है | यही स्वभाव नए जन्म में उसके साथ रहता है |नए शरीर में प्राणी अपने उसी पूर्व-जन्म के स्वभाव के वश में रहता है |इस नए शरीर में वह चाहे कितना ही हठ करे ,वह स्वभाव के परवश हुए भोग-कर्म करेगा ही | उसके हठ के अनुरूप किसी भी प्रकार के कर्म हो ही नहीं सकते |ज्ञानवान भी इसी प्रकार अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास  करता है |इस प्रयास से व्यक्ति भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म कर सकता है |अगर कोई मनुष्य कर्म करने को अनुचित मान भी ले और कर्म न करने की ठान ले, तो भी उसे अपने पूर्व-जन्म के स्वभाव के अनुसार भोग-कर्म करने को तो विवश होना ही पड़ेगा |इसी कारण से गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता |अपनी जिद्द से वह योग-कर्म से विमुख अवश्य हो सकता है परन्तु भोग-कर्म करने से वंचित नहीं हो सकता |इन्हीं भोग-कर्मों को करते हुए वह एक दिन योग-कर्म करने को भी विवश हो जायेगा | इस प्रकार कर्मों की एक अंतहीन श्रृंखला बन जाती है जिसके पाश से छूट पाना साधारण मनुष्य के वश में नहीं है | 
   क्रमशः 
                        || हरिः शरणम् || 

Tuesday, December 16, 2014

कर्म-योग |-3

कर्म-
      कर्म ही इस संसार को गतिमान बनाये रखने की धुरी है | सारा संसार कर्म के चारों और परिक्रमा कर रहा है |जिस दिन यह कर्मों का संसार समाप्त हो जायेगा, वह दिन इस भौतिक संसार का भी अंतिम दिन होगा | कर्म इस भौतिक संसार का आधार है क्योंकि परमात्मा ने कर्म करते रहने को ही प्राथमिकता दी है | बिना कर्म किये इस संसार में न तो कुछ प्राप्त किया जा सकता है और न ही कुछ खोया जा सकता है | रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- “कर्म प्रधान बिस्व करि राखा ” अर्थात् परमात्मा ने इस संसार में कर्म को ही मुख्य भूमिका में रखा है | कर्म के बिना इस संसार का गतिमान बने रहना मुश्किल है |अगर कर्म नहीं है तो संसार भी नहीं है और इसी प्रकार कर्म हैं तो यह संसार है |
      जब कर्म की प्रधानता इस संसार में है और कर्म पर ही संसार का अस्तित्व टिका हुआ है तो यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि कर्म कैसे होते हैं , कौन करता है और क्यों करता है ? हम सब कर्म में विश्वास रखते हैं |यह इसी बात से साबित होता है कि प्रत्येक दिन प्रातःकाल से ही मनुष्य कर्म करने में लग जाता है | समस्त विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी विशेष कर्म को करने से पहले परमात्मा का स्मरण अवश्य करता है | इसका कारण गीता में भगवान श्री कृष्ण सटीक रूप से स्पष्ट करते हैं | कही भी, किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है |कर्म की व्याख्या जिस प्रकार से श्रीमद्भगवद्गीता में की गई है उतनी सटीक व्याख्या आपको अन्य किसी भी धर्मशास्त्र में नहीं मिलेगी |
   कर्म करने के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
                  न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
                  कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै : ||गीता 3/5 ||
   अर्थात् निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

                यहाँ एकदम स्पष्ट है कि समस्त मनुष्य जो भी योग-कर्म करते हैं ,वे कर्म व्यक्ति के प्राकृतिक गुणों के कारण ही होते हैं | जैसा कि हम जानते है कि प्रकृति के तीन गुण है-सत, रज और तम | प्रत्येक व्यक्ति में उपरोक्त तीनों गुण ही उपस्थित होते हैं परन्तु जिस गुण की प्रधानता होती है, व्यक्ति का स्वभाव उसी गुण के अनुरूप माना जाता है | जिस पुरुष में सात्विक गुणों की प्रधानता होती है, वह व्यक्ति प्रायः सात्विक कर्म ही करता है ,परन्तु उस व्यक्ति में सत गुण के साथ रज और तम गुण भी उपस्थित होते हैं उस कारण से यदा कदा उससे सात्विक कर्म के अलावा अन्य प्रकार के कर्म भी हो जाते हैं |अतः यह कहना एकदम सही है कि व्यक्ति चाहे जितना मन में ठान ले कि यह करना है या यह नहीं करना है, मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है । करना या न करना , होना अथवा न होना तो उसमें उपस्थित गुणों के वश में है । अतः मनुष्य अपने में ही उपस्थित गुणों के परवश होकर उन्हीं के अनुरूप कर्म करने को बाध्य होता है | 
क्रमशः    
                     || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 14, 2014

कर्म-योग |-2

                       मानव जन्म में किये जाने वाले योग-कर्म तथा कर्म-योग,इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर  है । अतः इन दो शब्दों को लेकर किसी भी प्रकार का भ्रम रखने की आवश्यकता नहीं है । कर्म-योग ,एक ऐसी उच्च अवस्था का नाम है जिसे प्रत्येक मनुष्य प्राप्त करना चाहता  है । इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को योग-कर्म करना आवश्यक है । प्रत्येक योग-कर्म करने वाला व्यक्ति कर्म-योगी नहीं हो सकता परन्तु कर्म-योगी बनने के लिए योग-कर्म करना  प्रत्येक आकांक्षी मनुष्य के लिए आवश्यक है ।योग-कर्म और कर्म-योग के बीच केवल मात्र यही सम्बन्ध है ।दोनों को एक समझ लेना उचित नहीं है ।
                      आजकल हम किसी भी मंच से ,किसी भी व्यक्ति को कर्म-योगी की उपाधि से विभूषित कर देते हैं । ऐसा कहना  हमारी गलत सोच का परिणाम है ।जब प्रत्येक मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता है और प्रत्येक के लिए कर्म करने आवश्यक हैं तथा इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो ऐसे में प्रत्येक कोई कर्म-योगी नहीं हो जायेगा ।  कर्म-योगी बनने के लिए केवल मात्र योग-कर्म करने ही पर्याप्त नहीं है । कर्म-योग एक साधना का नाम है जिसे प्रत्येक प्रकार के योग-कर्म करते हुए प्राप्त नहीं किया जा सकता । हाँ,योग-कर्म ही एक मात्र ऐसा साधन है जिसे करते हुए मनुष्य कर्म-योग को प्राप्त हो सकता है । अतः हमें सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि योग-कर्म क्या है? योग-कर्म कितने प्रकार के है ? किस प्रकार के योग-कर्म करते हुए व्यक्ति कर्म-योग को उपलब्ध हो सकता है ?जब तक हम योग-कर्म को सही प्रकार से नहीं समझेंगे तब तक कर्म-योग को उपलब्ध नहीं होंगे । कर्म-योग को उपलब्ध हो जाना ही कर्म-योगी हो जाना है ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, December 11, 2014

कर्म-योग|-1

                                     इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है,वह एक पल के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । इस धरती पर समय समय पर विभिन्न अवतार लेकर परमात्मा भी आये हैं और सभी ने अपने अपने अनुसार कर्म किये हैं । मानव ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव यहाँ पर कर्म करने को विवश हैं | अंतर सिर्फ इतना ही है कि अन्य प्राणी पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों का फल भोगने के लिए कर्म करने को विवश है जबकि मनुष्य पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों का फल भोगने के साथ ही साथ इस जन्म में स्वेच्छा से कर्म करने को स्वतन्त्र है । यह कर्म करने की स्वतंत्रता ही उसमे कर्म करने के प्रति कामना उत्पन्न करती है । अन्य जीवों में कर्म करने की स्वतंत्रता न होने के कारण उनमे कामना पैदा होने का प्रश्न ही नहीं है ।
                        पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फलस्वरूप जो भी कर्म प्राणी द्वारा किये जाते है ,वे कर्म भोग-कर्म कहलाते हैं । अतः मनुष्य और अन्य प्राणी जो भी कर्म ,पूर्व के जन्मों में किये गए कर्मों के फलों के भोग स्वरुप करते हैं उन्हें हम कर्म नहीं कह सकते हैं । केवल अपनी कर्म करने की स्वतंत्रता ही मनुष्य जीवन में किये गए कर्मों के भविष्य का निर्धारण करती है,अतः ये ऐसे किये जाने वाले कर्म ही वास्तविकता में कर्म कहे जाते हैं । इसी कर्म स्वतंत्रता के कारण मनुष्य द्वारा किये जा रहे कर्म विशेष होते हैं ।
                     इस प्रकार से हम कर्मों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं-भोग-कर्म और योग-कर्म । भोग-कर्म वे कर्म होते हैं जो पूर्व जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम स्वरुप प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन काल में करने पड़ते हैं । इन भोग-कर्मों के करने में सम्बंधित प्राणी का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता है । दूसरे प्रकार के कर्म यानि योग-कर्म करने का अधिकार सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को प्राप्त है । मनुष्य को स्वतंत्रता है कि वह अपने मन के अनुसार किसी भी प्रकार का कर्म कर सकता है । इन्हें हम योग-कर्म इसलिए कहते हैं क्योंकि इन कर्मों का सम्पूर्ण लेखा-जोखा मानव के चित्त में अंकित होकर बढ़ता जाता है (कर्मों का योग) और मानव देह की समाप्ति पर इन कर्मों का विश्लेषण आत्मा करती है और उसी  के अनुरूप किसी भी प्राणी के रूप में पुनर्जन्म पाकर भोग-कर्म करने को विवश होना पड़ता है ।
क्रमशः
                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, December 8, 2014

कर्म और कर्मयोग ।

                 गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करते रहने की सलाह दी।यह ज्ञान "कर्मयोग" नाम से जाना जाता है।गीता के इसी "कर्मयोग" को ही सबसे ज्यादा पसंद करते हैं परंतु वास्तव में इसे बहुत कम लोगों ने समझा है।गीता के इसी कर्मयोग को बहुत से दार्शनिक और ज्ञानी महापुरुषों ने अपनी समझ के अनुसार इसकी व्याख्या की है।उनकी व्याख्या को मैंने भी पढा है और पूरी तरह किसी से भी संतुष्ट नहीं हूँ।उन सभी व्याख्याओं को पढने और गीता के अध्ययन के बाद "कर्मयोग" के बारे  में जो मेरी समझ में आया है वह पूर्व में की गई व्याख्याओं से कुछ भिन्न अवश्य है परंतु आलोच्य बिल्कुल भी नहीं है।आलोच्य कोई भी व्याख्या हो ही नहीं सकती है क्योंकि वे सब संबधित व्यक्तियों द्वारा अपनी अपनी सोच और समझ से की गई है।जैसा भी व्यक्ति समझता है, वह वैसा ही व्यक्त करता है और अपनी सोच और समझ के अनुसार सभी का अपना एक सत्य होता है।अतः उसकी इस सत्यता पर अंकुश लगाने का अर्थ है, परमात्मा की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाना। मेरी तरह ही सभी को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने विचार रखे।अतः कर्मयोग की कोई भी व्याख्या कभी भी आलोच्य नहीं है। इसी भावना के साथ मैं भी" कर्मयोग "पर अपने विचार रखने का प्रयास कर रहा हूं।
              कर्म को जैसा गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, वह हमने उसके ठीक विपरीत उसे समझा है। गीता का ज्ञान हम सहस्राब्दियो से पढते और सुनते आ रहे हैं, फिर भी हम इस छोटे से शब्द" कर्म " को सही तरीके से समझ नहीं पाए हैं ।प्रायः हम प्रत्येक प्रकार के होते हुए कर्म को ही कर्मयोग तथा कर्ता को कर्मयोगी घोषित कर देते हैं जो कि पूरी तरह से असत्य है।ऐसे में यह जानने की जरूरत है कि आखिर कर्म की सत्यता क्या है? जिस दिन आप कर्म के बारे में पूर्ण रूप से जान और समझ लेंगे,  आप भी कर्मयोग के मार्ग पर चलकर कर्मयोगी बन सकते हैं।
                कर्मयोग आम व्यक्ति को समझ में आ जाए, उसी भाषा और अंदाज में अपने विचार व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं। कितना सफल हो पाउँगा , ऐसा किसी भी प्रकार का विचार मेरे मन में कहीं भी नहीं है । इस तरह का कोई भी विचार का न होना ही कर्मयोग का एकमात्र और महत्वपूर्ण सिध्दांत है।इस दौरान अगर कोई भी प्रश्न, कर्म, कर्मयोग अथवा कर्मयोगी के सम्बन्ध में तो उनका स्वागत है। मेरे से जहां तक संभव होगा आपकी शंकाओं के समाधान का प्रयास करूंगा।
             पिछले कुछ समय से स्वास्थ्य और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के कारण नियमित रूप से लेखन कार्य नहीं कर पा रहा हूँ। भविष्य में इसे नियमित करने का प्रयास करूंगा। आशा है आप सभी से सहयोग मिलेगा।सप्ताह में कम से कम दो बार का क्रम तो बना रहेगा, ऐसी आशा है।
                      ।। हरि : शरणम्।। 

Friday, December 5, 2014

सुख-सुविधा |

                  समाज में सभी सुखी रहना चाहते हैं, लेकिन यह हो कैसे? इसका एक सूत्र है-प्रेम। वस्तुत: प्रेम वह तत्व है जो प्रेम करने वाले को सुखी तो बनाता ही है, जिससे प्रेम किया जाता है वह भी सुखी होता है।
                 याद रखें, सुख और सुविधा दो भिन्न चीजें हैं। जो शरीर को आराम पहुंचाता है वह सुख नहीं, सुविधा है, लेकिन सुख का संबंध आत्मा से होता है। आप अच्छे घर में रहते हैं, अच्छी कार में बैठते हैं, एयरकंडीशन ऑफिस में काम करते हैं उससे आपके शरीर को सुविधा प्राप्त होती है, परंतु आप सत्य बोलते हैं, सबको प्रेम करते हैं, ईमानदारी और नैतिकता का व्यवहार अपनाते हैं, सच्चाई और संवेदना दर्शाते हैं, अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं तो उससे आपको जो सुख मिलता है वह आत्मिक सुख कहलाता है। यही सुख व्यक्ति और समाज को सुखी बनाता है। जिंदगी के सफर में नैतिक व मानवीय उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। कहा जाता है आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति महंगे वस्त्र, आलीशान मकान, विदेशी कार, धन-वैभव के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी महानता उसके चरित्र से बंधी है और चरित्र उसी का होता है जिसका खुद पर विश्वास है।
              मनुष्य के भीतर देवत्व है, तो पशुत्व भी है। 'सर्वे भवंतु सुखिन:' का पुरातन भारतीय मंत्र संभवत: दानवों को नहीं सुहाया और उन्होंने अपने दानवत्व को दिखाया। पूर्वजों के लगाए पेड़ आंगन में सुखद छांव और फल-फूल दे रहे थे, लेकिन जब शैतान जागा और दानवता हावी हुई तो भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो गई। बड़े भाई के घर में वृक्ष रह गए और छोटे भाई के घर में छांव पडऩे लगी। अधिकारों में छिपा वैमनस्य जागा और बड़े भाई ने सभी वृक्षों को कटवा डाला। पड़ोसियों ने देखा तो दुख भी हुआ। उन्होंने पूछा इतने छांवदार और फलवान वृक्ष को आखिर कटवा क्यों दिया? उसने उत्तर दिया, क्या करूं पेड़ों की छाया का लाभ दूसरों को मिल रहा था और जमीन मेरी रुकी हुई थी। वर्तमान में हमने जितना पाया है, उससे कहीं अधिक खोया है। भौतिक मूल्य इंसान की सुविधा के लिए हैं, इंसान उनके लिए नहीं है।
                                      || हरिः शरणम् || 

Tuesday, December 2, 2014

गीता-जयंती|

                                 आज मोक्षदा एकादशी है । आज ही के दिन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में महाभारत युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता में संकलित है । यह ज्ञान द्वापरयुग के अंत में और कलियुग के प्रारम्भ से कुछ समय पूर्व ही दिया गया था । आज  हम कलियुग में जी रहे हैं । आज के इस युग में हमारे में बहुतायत अर्जुन जैसे लोगों की है,जो किंकर्तव्यविमूढ़ है । क्या किया जाये और क्या न किया जाये,उनके सामने स्पष्ट नहीं है । ऐसे में यह गीता नामक शास्त्र ,हम सबका एक अच्छा मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है । बस, आवश्यकता है कि हम इस शास्त्र के महत्व को समझे और इसको आत्मसात करें । इस ग्रन्थ को  पढ़ने के उपरांत ही अनुभव होता है कि कितनी गहनता है इसमें ?
                                      इसके अध्ययन के प्रारम्भिक दौर में हो सकता है कि विषय कुछ नीरस सा महसूस हो,परन्तु इसका सतत अध्ययन करने से पता चलेगा कि कितना सरल है इसका अध्ययन ? हाँ,यह अवश्य है कि जब तक हमारे सामने अर्जुन जैसी परिस्थितियां पैदा नहीं होगी,तब तक हमारा गीता के प्रति आकर्षण बनना कठिन है । एक बार गीता के ज्ञान सागर में उतरें,आप इसके अन्दर डूबते चले जायेंगे । यही इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
                          हम ऋणी हैं अर्जुन के ,जिसके कारण हमें इतना पवित्र ज्ञान प्राप्त हो सका । इस पावन दिवस पर आप सभी को गीता-जयंती की  शुभकामनायें ।
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥     

Sunday, November 30, 2014

समझ |

मैने बहुत से इन्सान देखे हैं,
जिनके बदन पर लिबास नहीं होता।
और बहुत से लिबास देखे हैं,
जिनके अंदर इन्सान नहीं होता ।
कोई हालात नहीं समझता,
कोई जज़्बात नहीं समझता,
ये तो बस अपनी अपनी समझ है,
कोई कोरा कागज़ भी पढ़ लेता है,
तो कोई पूरी किताब नहीं समझता...!!!
                         ||हरिः शरणम् ||

Thursday, November 27, 2014

What is love?

What is love?
Love is when my mom kisses me and says mera bachha lakhon me ek hai...
Love is when you come back from work and dad says 'arey beta! aaj bahut der ho gai
Love is when ur bhabhi says ' hey hero ladki dekhi hai tere liye, koi aur pasand ho tou bata dena'
Love is when ur brother says ' bhai tu tension na le, main hu na tere saath
Love is when you are Mood less and your sister says ' chal bhai kahi ghoom kay aatein hai
Love is when ur best friend hugs you and says' abe tere bagair mazaa nahi aata yar....
These all are best moments of love.....don't miss them in life.
Love is not only having a bf or gf.
Love you all who have been a special part of my life...........
Its love,
when a little girl puts her energy to give dad a head massage.
Its love,
when a wife makes tea for husband and take a sip before him.
Its love,
when a mother gives her son the best piece of cake.
Its love,
when your friend holds your hand tightly on a slippery
road.
Its love,
when your brother messages you and asks did you reach home on time..
Love is not just a guy holding a girl and going around the city.
Love when you send a small message to your friends to make them smile
Love is actually a name of "care".. !!!!..
Love is the name of God....
Love every one  and live with God.
                         || HARI SHARNAM ||

Wednesday, November 26, 2014

प्रदर्शन |

                                अभी दो दिन पूर्व मैं उदयपुर था-राजस्थान के  शिशु रोग विशेषज्ञों के सम्मलेन में भाग लेने के लिए । किसी भी आयोजन से पूर्व सदैव ही उस आयोजन के उद्घाटन की एक रस्म निभाई जाती है । इस आयोजन में भी ऐसा ही कुछ किया गया । मंचस्थ सभी व्यक्ति अपने प्राकृतिक व्यवहार से विपरीत व्यवहार करते महसूस हो रहे थे । जो व्यक्ति सदैव जिस रूप में हमें नज़र आते हैं,यदि किसी एक दिन वे ऊसके विपरीत नज़र आये तो स्वाभाविक है कि उस तरफ आपका ध्यान अवश्य ही जायेगा । मंच पर आयोजक और मुख्य अतिथि उपस्थित थे और वे सभी उस दिन ऐसा व्यवहार कर रहे थे ,जैसा कि वे आम दिनों में नहीं करते हैं ।
                                स्वर्गाश्रम,ऋषिकेश में एक संस्था है -वानप्रस्थ-आश्रम । वहां कई स्थानों पर सुविचार लिखे हुए है । एक सुविचार है-"व्यक्ति जो कुछ भी है उसको छुपाने में अपनी आधी ऊर्जा व्यय कर देता है और शेष बची ऊर्जा जो नहीं है,उसे दिखाने में ।"इस  प्रकार हम देखते हैं की इस छुपाने और दिखने में ही वह अपने जीवन की सारी ऊर्जा खपा डालता है । ऐसे में उसके पास अपने जीवन में कुछ नया करने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं है । यही बात ध्यान देने योग्य है ।
                              हमें अपने जीवन में सदैव ही अपने स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार करते रहना चाहिए,जिससे ऊर्जा का अनावश्यक क्षरण न हो । ऐसे में हमारे पास ऊर्जा का अतुल भंडार होगा जिससे हम अपने इस छोटे से जीवनकाल में कई सृजनात्मक कार्य  कर सकते हैं । जीवन में अगर किसी लक्ष्य को प्राप्त करना है तो सदैव ही अपने प्राकृतिक स्वभाव में ही जीयें । याद रखें,शेर की खाल ओढ़ लेने मात्र से ही कोई भेड़िया कभी भी शेर बन कर शिकार नहीं कर सकता । भेड़िया तभी शिकार कर सकता है जब वह भेड़िये के स्वभावानुसार ही शिकार करे । आप जो  कुछ भी हैं ,उस परमात्मा ने आपके स्वभावानुसार ही आपको वैसा बनाया है । उसमे कुछ भी परिवर्तन करने का प्रयास न करें । फिर देखें,आप कैसे अपनी इस  उर्जा से नई उपलब्धियां हासिल करते हैं । दिखावा आपको बड़ा होने का भ्रम ही पैदा कर सकता है,बड़ा बनाता नहीं है और न ही बड़ा बनने देता है ।
                             ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, November 22, 2014

जीवन - मृत्यु ।

                                          आज सुबह सुबह ही एक मित्र का फोन आया ।एक लम्बा अंतराल हो गया था उससे बात हुए ।मेरे हैलो कहते ही वह बिना किसी औपचारिकता पूरी किए मुझ पर बरस पङा ।वह बोला-"पंडित, जिन्दा है कि मर गया? "मुझे मेरे सभी मित्र मेडिकल कॉलेज में इसी नाम से सम्बोधित करते थे ।खैर , उस मित्र को अपने पुत्र की शादी का निमंत्रण देना था, जो उसने दे दिया ।परंतु उसने मुझे कुछ और ही दिशा मे सोचने को विवश कर दिया ।आज जीवन के उतरार्ध में ऐसा सोचना कितना कष्ट प्रद होता है, ऐसा अनुभव  मुझे आज जाकर  हुआ ।
                                         इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ पाना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है कि आज मैं जिन्दा हूँ कि मर गया हूँ? जिन्दा अपने आप को इस तरह नहीं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी विवशताओं ने मुझसे मेरे शरीर से जीवित होने के सभी लक्षण छीन लिए हैं और मरा हुआ इसलिये नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इस शरीर में दिल अभी भी धङक रहा है तथा सासें भी चल रही है।जीवन में इसी तरह समय बंद मुट्ठी से बालू रेत की तरह फिसल जाता है ।अंत में जब मुठ्ठी खोलने पर रिक्तता नजर आती है तो फिर निराश और निरूत्तर होना ही पङता है।
                                     जिन्दगी में भौतिकता का संग्रह कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे हम अपनी उपलब्धि बताते हुए उस पर गर्व कर सके। आज इस संसार मे यही तो हो रहा है।यहां हर कोई भौतिक सुख की कामना करते हुए भौतिकता के पीछे दौड रहा है जिसे वह अपनी उपलब्धि बताते हुए गर्व महसूस करता है।परंतु जीवन के संध्या काल में जाकर उसे अहसास होगा कि वह कितना गलत था।जीवन का उतरार्ध वह अवस्था है कि जब व्यक्ति के पास कुछ करने के लिए न तो समय ही रहता है और न ही शारीरिक उर्जा।
इसका क्या समाधान हो सकता है?
                                                       ।।हरि: शरणम् ।।

Wednesday, November 19, 2014

कर्म -फल |

             यदि लक्ष्य स्पष्ट हो, उसे पाने की तीव्र उत्कंठा और अदम्य उत्साह हो तो अकेला व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है। विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर का यह कथन कितना सटीक है कि अस्त होने के पूर्व सूर्य ने पूछा कि मेरे अस्त हो जाने के बाद दुनिया को प्रकाशित करने का काम कौन करेगा। तब एक छोटा-सा दीपक सामने आया और कहा प्रभु! जितना मुझसे हो सकेगा, उतना प्रकाश करने का काम मैं करूंगा।
            आखिरी बूंद तक दीपक अपना प्रकाश फैलाता रहता है। जितना हम कर सकते हैं, उतना करते चलें। आगे का मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा। किसी ने कितना सुंदर कहा है कि जितना तुम कर सकते हो, उतना करो, फिर जो तुम नहीं कर सको, उसे परमात्मा करेगा। जो व्यक्ति आपत्ति-विपत्ति से घबराता नहीं है, प्रतिकूलता के सामने झुकता नहीं है और दुख को भी प्रगति की सीढ़ी बना लेता है, उसकी सफलता निश्चित है। ऐसे धीर पुरुष के साहस को देखकर असफलता घुटने टेक देती है। इसीलिए तो कहा गया है-''चरैवेति चरैवेति" यानी चलते रहो, चलते रहो, निरंतर श्रमशील रहो। किसी महापुरुष ने कितना सुंदर कहा है-अंधकार की निंदा करने की अपेक्षा एक छोटी-सी मोमबत्ती, एक छोटा-सा दिया जलाना कहीं ज्यादा अच्छा होता है। महापुरुष समझाते हैं कि व्यक्ति सफलता प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ अवश्य करे, लेकिन अति महत्वाकांक्षी न बने।
         किसी के हृदय को पीड़ा पहुंचाकर किसी के अधिकारों को छीनकर प्राप्त की गई सफलता न तो स्थायी होती है और न ही सुखद। ऐसी सफलता का कोई अर्थ नहीं होता। अति महत्वाकांक्षा व्यक्ति को तानाशाह तो बना सकती है, किंतु सुख-चैन से जीने नहीं देती। दिन-रात भय और चिंता के वातावरण का निर्माण करती है और अंतत: सर्वनाश का ही सबब बनती है। हमें भगवान श्रीकृष्ण का गीता में कथित यह संदेश कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि हे अर्जुन! "तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं। इसलिए तू कर्मो को करने पर ध्यान दे, फल पाने की चिंता में उलझा मत रह। इसलिए हमारे लिए यह जरूरी है कि हमें किसी भी दशा में निरंतर प्रयास करने के बाद भी यदि वांछित सफलता न मिले, तो उदास और निराश नहीं होना है।
        इस जगत में सदैव मनचाही सफलता किसी को भी नहीं मिली है और न ही कभी मिल सकती है, लेकिन यह भी सत्य है कि किसी का पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं गया है।
                    ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, November 16, 2014

बंधन |

            बच्चों के प्रति स्नेह और लाड़-प्यार का अर्थ वात्सल्य से संबंधित है। मनुष्य जीवन के प्रारंभ होते ही रिश्तों के बंधन बनने लगते हैं। सबसे पहले बीजरूप बनते ही माता और पिता से संबंध बन जाता है। इसके बाद भाई, बहन, दादा-दादी और नाना-नानी आदि से बंधन जुड़ते हैं।
          इस संसार में जन्म लेने वाले बच्चों की मुस्कान माता-पिता और सभी बड़ों को अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और उनका हृदय स्नेह की हिलोरों से भर उठता है, जो हमारे मनोभावों पर जादू सरीखा प्रभाव डालती है। आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था चरमरा रही है। युवाओं को आत्म-निर्भर होने के बाद माता-पिता के बंधन में रहना गवारा नहीं है और न ही बुजुर्गो को नई पीढ़ी की स्वतंत्र जीवन-शैली रास आती है।
         ऐसे में इन दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए वात्सल्य बंधन सेतु के रूप में काम करता है। बुजुर्ग अपनी संतान से कितना ही रुष्ट हो जाएं, जब उनकी नजर अपने इन नन्हें-मुन्नों की मासूम मुस्कान पर पड़ती हैं और उनकी बातों को सुनते हैं तो उन पर जादू जैसा प्रभाव पड़ता है। वात्सल्य के अलावा अन्य बंधनों, जैसे भाई-बहन, पति-पत्‍‌नी, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बने सारे बंधन मोह या स्वार्थ की नींव पर ही आधारित होते हैं। इन बंधनों में कोई भी दृढ़ता नहीं होती है। समस्त बंधनों में केवल वात्सल्य बंधन ही एक नि:स्वार्थ, निर्दोष और सार्वभौमिक है। अर्थात इस दुनिया में आप कहीं भी चले जाएं, इन सब स्थानों पर इसका एक ही स्नेह भरा रूप मिलेगा, परंतु हमारी संस्कृति की यह विशेष देन रही है कि शिशु के कोमल भावों को ध्यान में रखते हुए प्यार-दुलार से उसके जीवन को संवारा जाता है। किसी भी वस्तु की अति उचित नहीं कही जा सकती है। प्यार-दुलार भी एक सीमा तक ही करना उचित है। ऐसा इसलिए क्याेंकि एक उम्र के बाद थोड़ा ताड़न लालन-पालन के लिए नितांत आवश्यक है, परंतु यह बनावटी होना चहिए। वात्सल्य बंधनों में सबसे बड़ा बंधन तो भक्त और भगवान का है। परमेश्वर अपने भक्तों को बच्चों के समान समझते हुए उनसे स्नेह रखता है। इसीलिए ईश्वर को भक्तवत्सल कहा गया है।
                                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, November 13, 2014

मन की यात्रा |

               मन की यात्रा अधूरी ही होती है। वैसे तो आदमी जीता पूरा है और पूरी तरह से जीने का प्रयास करता है, पर वह जी नहीं पाता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीने के लिए प्रयास करता है। उन प्रयासों में वह कुछ संभावनाओं में डूबकर जीता है। कुछ कल्पनाओं में डूबकर जीता है और कभी-कभी ख्वाब में इस तरह खोकर जीता है जैसे उसका यही सत्य है।
             यही जीवन है। आदमी का यह मन ही तो है। मन जो मान लेता है उसी की यात्रा करने लगता है। उसी के नशे में डूबकर कुछ समय काट लेता है। मन सभी चीजों को स्वीकार कर लेता है। मन सभी तरह की बातों को बर्दाश्त कर लेता है। वह केवल अपना रास्ता खोजता रहता है। वह खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी अपना प्रभाव रखता है। इसलिए आदमी पूरी तरह से सो भी नहीं पाता। सोकर भी वह स्वप्न में खो जाता है। सोकर वह यात्राएं करने लगता है। स्वप्न में ही उठकर चलने लगता है। स्वप्न में ही मन के भटकाव को मुक्ति देने का प्रयास करता है और कभी-कभी तो सो भी नहीं पाता। पूरी रात स्वप्नों में ही गुजार देता है और करवट पर करवट बदलकर अपनी जिंदगी के कुछ क्षण को, समय को काट लेता है।
              वैसे तो मनुष्य पूरी व्यवस्थाओं के साथ जन्म लेता है। जब वह जन्म लेता है तो प्रेम के अनुग्रह का अथाह सागर उसके लिए उमड़ पड़ता है, पर जैसे-जैसे उसकी दुनिया बढ़ती जाती है, वह अपने जीवन के प्रश्नों के समाधान में उलझ जाता है। मांग बढ़ती जाती है। प्रश्नों का चक्रव्यूह बढ़ता जाता है। चाहतें बढऩे लगती हैं। समाधान की खोज में यात्राएं होती रहती हैं। किसी स्थूल यात्रा को वह पूरा कर लौट आता है। तो किसी में उलझ कर छोड़ आता है। आदमी के प्रश्न भी अनेक तरह के हैं और समाधान के मार्ग भी भिन्न तरह के हो जाते हैं। आदमी की कई तरह की चाहत है। कोई धन से प्यार करता है, कोई पद प्रतिष्ठा से, तो कोई कला से प्रेम कराने लगता है। इस प्रकार मन के कहने पर वह हर काम करता है, लेकिन बाद में उसे यह अहसास होता है कि मन के कहने पर वह जो भी करता है, अंतत: हाथ कुछ नहीं आता। मन की नीरसता व रिक्तता दूर नहीं होती। यह रिक्तता तो ध्यान से ईश्वर की शरण में जाने से ही पूरी हो सकती है।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, November 9, 2014

अनासक्ति |

                  राग और द्वेष से विलग हो जाना अनासक्ति है। मनुष्य आदतन आसक्ति और विरक्ति के मध्य झूलता है। या तो वह किसी चीज की ओर आकर्षित होता है या विकर्षित, परंतु वह यह नहीं जानता कि इन दोनों से बड़ी बात है कि कर्तव्य कर्म करते समय निष्पृह भाव में चले जाना। यही अनासक्त भाव है। विरक्ति वास्तव में आसक्ति का दूसरा हिस्सा है। आज जिस वस्तु के प्रति आसक्ति है, कल उससे विरक्ति हो सकती है। अनासक्ति इन दोनों से ऊपर है। अनासक्ति की भावदशा में चीजें हमें न बुलाती हैं और न भगाती हैं। हम दोनों के मध्य अनासक्त खड़े हो जाते हैं।
              बुद्ध ने इसे 'उपेक्षा' कहा है। न कोई राग है और न विराग। भोगवाद और वैराग्यवाद दोनों अतियां हैं। भोग में वैराग्य का भाव ही निष्काम कर्म है। भोजन तो करना ही है। जरूरत है भोजन में त्याग का भाव। भोजन में स्वाद की तलाश करना बुरा है। अनासक्त साधक सांसारिक घटनाओं का केवल साक्षी है- तटस्थ द्रष्टा है। वह एक गवाह की तरह जिंदगी में विचरता है। उसके भीतर न चिंता है, न दुख है और न ही द्वंद्व की तरंगें। अनासक्त कर्मयोगी के जीवन में जो तरंगें उठती हैं, वे स्वभाव से मंगलकारी होती हैं। कर्मयोगी 'कर्तव्य कर्म' करते हुए आसक्ति और विरक्ति के बीच से बेदाग निकल जाता है। जीवन से भागना नहीं है, जीवन में जागना है। जो जीवन से भागता है वह स्वयं अपने लिए समस्या बन जाता है। कोल्हू के बैल की तरह भागने वाला कभी मंजिल तक नहीं पहुंचता। भागने से कोई सकारात्मक क्रांति नहीं हो सकती।
              जागते केवल वे हैं, जो जीवन को सत्कर्म से संवारते हैं। आसक्ति में जीने वाले व्यक्ति के भीतर विरक्ति के ख्याल आते रहते हैं। जिंदगी ध्रुवीय है। विद्युत की तरह वह 'पॉजिटिव है और निगेटिव' भी। अंधेरा है, तो उजाला भी है। जन्म है तो मृत्यु भी है। कहने का आशय यह है कि जो लोग विरक्त होने का प्रदर्शन करते हैं, उनके जीवन में आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं। ध्यान रहे कि जिस हिस्से को हम दबाते हैं, वह हम पर हमला करता रहता है। अनासक्ति स्वभाव से 'नॉन पोलर' है- अध्रुवीय है। ध्रुवीय जगत के बाहर स्थित होना ही अनासक्त योग है। अनासक्त होते ही कर्मयोगी अद्वैत में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वह 'नॉन पोलर है।
                                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Friday, November 7, 2014

आत्मा और शरीर |

                   शास्त्रों में परमात्मा का निवास आत्मा में माना जाता है, क्योंकि परमात्मा आत्मा का विस्तार है और आत्मा परमात्मा का संकुचित स्वरूप है। जो लोग आत्मा के निवास स्थान शरीर को पर्याप्त महत्व नहीं देते वे बहुत बड़ी हिंसा करते हैं।
                  ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी को नष्ट करने का प्रयास करना, जबकि शरीर आत्मा का वाहन है। अगर शरीर स्वस्थ है तो उसमें स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। शरीर बीमार है, तो वह सही ढंग से काम नहीं कर सकता। जब शरीर विकृतियों से भर जाए तो उस शरीर से कोई सुकृति नहीं हो सकती। इसीलिए साधकों को काम, क्त्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या से बचने का परामर्श दिया जाता है। क्योंकि ये षड्विकार मनुष्य को रुग्ण बनाते हैं और रुग्ण मनुष्य कभी-भी परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता। परमात्मा के चिंतन का अर्थ है उस परमात्म तत्व को धारण करना और उस तत्व का बोधत्व प्राप्त करना।
                परमात्मा द्वारा निर्मित यह सारा ब्रह्मांड परमात्मा का मूर्त प्रत्यक्षीकरण है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, तारे, औषधि, वनस्पति, पुष्प, फल इत्यादि ब्रह्म की विभिन्न स्वरूपों में अभिव्यक्ति हैं। जब हम इन तमाम वस्तुओं से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, तब हमें ब्रह्म की अनुभूति होती है, यही अनुभूति सिद्धि की अवस्था है।
               लोगों को अपने दिन का कार्यक्रम प्रात:काल के लाल सूर्य से शुरू करना चाहिए। सूर्य की प्रथम किरण को आंख के माध्यम से मस्तिष्क में उतारें और धीरे-धीरे उस विराट प्रकाश को अंतर्मुखी होकर शरीर के सभी अंगों का स्मरण करते हुए फैलने दें। मस्तिष्क से पैर की अंगुली तक उस विराट रश्मि को अवतरित होने दें। इससे शरीर के अंदर की अनेक विकृतियां, रोग और कुंठा का शमन होगा। उसके पश्चात नक्षत्रों का स्मरण करें और एक-एक नक्षत्र को स्मरण कर शरीर में प्रवेश कराएं, ऐसी विचार-कल्पना करें। विशेषकर आप जिस ग्रह से प्रभावित हों, उसे बार-बार धारण करें, बारी-बारी से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश की शक्तियों को शरीर में धारण करें, क्योंकि इन्हीं तत्वों से आपका शरीर बना है। इन तत्वों में असंतुलन हो जाने के कारण ही आप शरीर से बीमार पड़ते हैं। फूल, पौधे, औषधि, वनस्पति और पहाड़ ये सभी ईश्वर के ही स्वरूप हैं। अंतर यह है कि हमारी दस इंद्रियां सक्रिय हैं और इनकी एक, दो और तीन इंद्रियां सक्रिय हैं।
                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, November 4, 2014

मुक्ति-मार्ग |

                  हमारा पुरातन योग अंग्रेजी मीडिया की कृपा से आजकल हिंदी में 'योगा' हो गया है। योग के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो सीधे-सीधे जोड़ को योग कहते हैं। इस संदर्भ में प्रश्न उठता है कि किसका किससे जोड़। हमारा अध्यात्म इस योग में आत्मा से परमात्मा को मिलाता है।
               जब हमारी आत्मा, परमात्मा से निकटता बढ़ाकर एकाकार होने लगती है तो इसे 'योग' कहते हैं ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग भी हमें अंतत: आत्मा का परमात्मा से ही साक्षात्कार कराते हैं अध्यात्म जगत को असत् यानी मिथ्या मानता है और परमात्मा को सबसे बड़ा सत् यानी सत्य मानता है।
               श्रीमद्भागवत पुराण का पहला श्लोक भी यही कहता है कि 'सत्यं परम धीमहि' यानी परम सत्य परमात्मा को हमारी आत्मा धारण करे। भक्तियोग को गीता में और अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों में सर्वोत्कृष्ट योग माना जाता है। कर्मयोग और ज्ञान योग के मार्ग अंतत: भक्ति योग तक ले जाते हैं। भक्तियोग को सरलतम और सहज माना जाता है, पर मन और इंद्रियों को भक्ति में रमाने के लिए समर्पण आवश्यक है और समर्पण तक पहुंचने के लिए मार्ग मंत्रयोग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग की शरण से होकर गुजरता है।
              मंत्र योग किसी मंत्र का उच्चारण करने से सिद्ध होता है। स्पर्श योग में इष्ट का स्पर्श मंत्र जपने से होता है जैसे कि शिवलिंग का स्पर्श या इष्ट की मूर्ति का श्रृंगार और सेवा। इस प्रक्रिया से आस्था मजबूत होती है। आस्था मजबूत होने पर भाव योग का सृजन होता है। तब हम मस्त होकर इष्ट के भजनों का गायन करते हैं और उनकी लीलाओं का स्मरण करते हैं। अभाव योग में हम संसार से विरक्त हो जाते हैं। तमाम अभावों में भी हमारी भक्ति हमारे इष्ट से टूटती नहीं है। परीक्षाओं से गुजरते हुए हमारी भक्ति मजबूत होती जाती है। सांसारिकता का अभाव मन में स्थान बना लेता है और तब महायोग जन्मता है, जो भक्तियोग की पराकाष्ठा है।
             सांसों के साथ परमात्मा का जुड़ाव हो जाता है और यह होता है वास्तविक योग, हमारी आत्मा का परमात्मा से। यह ही सनातन योग है। योग में आसन, प्राणायाम इसी महायोग के यंत्र है क्योंकि स्वस्थ देह के सहारे ही आत्मा व परमात्मा को बेहतर ढंग से पास-पास लाया जा सकता है। अंतत: महायोग की सिद्धि होती है, जो मुक्ति मार्ग तक ले जाता है।
                                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, November 1, 2014

त्याग |

                 त्याग की भावना अत्यंत पवित्र है। त्याग करने वाले पुरुषों ने ही संसार को प्रकाशमान किया है। जिसने भी जीवन में त्यागने की भावना को अंगीकार किया, उसने ही उच्च से उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। सच्चा सुख व शांति त्यागने में है, न कि किसी तरह कुछ हासिल करने में।
                गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्याग से तत्काल शांति की प्राप्ति होती है और जहां शांति होती है, वहीं सच्चा सुख होता है। मनुष्य अपने जीवन में सारा श्रम भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में सभी कुछ पा लेना चाहता है। इसी में सारा जीवन खप जाता है। वह जितना भौतिक लाभ प्राप्त करता जाता है, उसकी सांसारिक तृष्णा उतनी ही बलवती होती जाती है। उसे शांति से बैठने नहीं देती। उसकी बेचैनी को बढ़ाती रहती है। मनुष्य जीवन की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, उनकी पूर्ति तो आवश्यक है। उनके बिना तो जीवन की निरंतरता को बनाए रखना असंभव है। इस निरंतरता को बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो ईश्वर करता ही रहता है।
              उन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात फिर मनुष्य को क्या चाहिए? बस यहां पर रुककर विचारने की आवश्यकता होती है कि अब हमें किस मार्ग की ओर बढ़ना है।
              ईश्वर की अनुभूति करने और समाज में उच्च मानदंड स्थापित करने के लिए त्याग की भावना को अंगीकार कर, उस पथ पर बढ़ने की आवश्यकता होती है। उस मार्ग में व्यक्तिगत व शारीरिक सुखों का त्याग करना होगा। उन सभी आसक्तिओं को छोड़ना होगा, जो मानव जीवन को संकीर्णता की ओर ले जाने वाली होती है। तब यही त्याग वृत्ति अंत:करण को पवित्र कर भीतर के तेज को देदीप्यमान करती है। भारत में त्याग की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है। आसक्ति से विरत हो जाने वालों की यहां पूजा की जाती है। भगवान राम द्वारा अयोध्या के राज्य को एक क्षण में त्याग देने जैसे स्थापित किए गए आदर्श को संसार पूजता है। राज्य का त्याग कर वन में जाने से उन्होंने समाज में उच्चतम मानदंड स्थापित किया। साथ ही लोगों को धर्म, अध्यात्म, ज्ञान व भक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भी प्रदान की। त्याग से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सच्चे सुख व शांति का लाभ पाता है, वहीं समाज को भी उच्च आदर्शे के मानदंड बरकरार रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।
                               ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, October 27, 2014

जीवन की सार्थकता |

                क्या हम जानते हैं कि दुनिया में किस प्रकार से रहना चाहिए? इस पार्थिव जीवन के अतिरिक्त क्या कोई अन्य जीवन है, जो लौकिक न होकर पारलौकिक है? इस संसार का जीवन तभी सार्थक हो सकता है, जब वह उस पारलौकिक जीवन की एक कड़ी हो, अन्यथा अगर इहलौकिक जीवन सिर्फ इस लोक का है, यहां प्रारंभ होकर यहीं समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन पैदा होना और मिट्टी में मिल जाना है, इसके सिवा कुछ नहीं।
               हमारा यह जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब हम इस भौतिक जीवन के आगे जो कुछ है, उसके लिए इस जीवन को तैयारी का अवसर मानें। अगर यह जीवन अपने आप में स्वतंत्र है, किसी भावी जीवन की तैयारी नहीं है, तो यह व्यर्थ है। हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यथार्थ सत्ता शरीर की है या आत्मा की। जैसे-जैसे हम ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते जाते हैं, वैसे -वैसे यह सिद्ध होता जाता है कि हमारा ज्ञान आत्मा का ज्ञान है। भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इन्द्रिय युक्त भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते हैं। इन्द्रियों का जीवन विषय भोग के लिए है, ऐसे में मनुष्य किसी दिशा में न जाकर जीवन के मार्ग में भटक जाता है।
               जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य किसी संदेह के बगैर अपनी जीवन नैया उस ओर खेने लगता है। यदि उसे दिशाभ्रम हो जाए, तो हर समय वह संदेह में पड़ा रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है, सही रास्ता क्या है। अगर यही जीवन सब कुछ है और परमार्थ कुछ नहीं, तो यह सोच कर वह भौतिकवादी होने लगता है, परंतु यह भौतिक जीवन अंतिम अवस्था नहीं है। यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है। यदि यह दृष्टिकोण अपना लिया जाए तो हम आाध्यात्मिक मार्ग पर चल सकते हैं। मनुष्य जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों का होना अनिवार्य है। भौतिकता साधनों के लिए है और आध्यात्मिकता साध्य है।
               अतः जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर आत्मिक जीवन के विकास के लिए प्रयास करें।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, October 23, 2014

प्रकाश-पर्व |

                           कार्तिक मास की घोर अँधेरी रात को दीपावली का पर्व बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है । इस पर्व के मनाने के पीछे कई कारण गिनाये जा सकते हैं ,जिनके बारे में विशेष चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है । यह दिन सनातन धर्मावलम्बियों के लिए सबसे बड़ा दिन माना जाता है । इसका सम्बन्ध सांसारिक व्यक्तियों के लिए लक्ष्मी पूजन से सम्बंधित है तो तामसिक और तांत्रिक व्यक्तियोंके लिए विभिन्न प्रकार की शक्तियां प्राप्त करने के लिए साधना करने का दिन भी है । आध्यात्मिक व्यक्तियों के लिए भी  यह पर्व परमात्मा प्राप्ति और संसार के लिए शांति व वैभव प्रदान करने के लिए प्रार्थना करने का दिन है ।
                       अगर हम वैज्ञानिक ,विशेष तौर से भूगोलशास्त्रियों की दृष्टि से देखें तो  पाएंगे कि यह इस माह की सबसे स्याह रात होती है । इस रात प्रकाश की न्यूनता होती है । आज के बाद हम अंधकार से प्रकाश की ओर प्रस्थान करते हैं । यह एक सन्देश है,जीवन के कठिनतम समय में जी रहे उन लोगोंके लिए ,जिन्हें लगता है कि  उनके जीवन में कभी प्रकाश का प्रादुर्भाव होगा ही नहीं । प्रत्येक अंधकार के बाद प्रकाश की राह अवश्य ही होती है । अतः अन्धकार की घोर काली रात का  भी उत्साह के साथ  अभिनन्दन  करें। अंधकार के बाद ही प्रकाश का प्रादुर्भाव होना है । जीवन के कठिनतम दिनों को इस अँधेरी रात की तरह ही उल्लास के साथ बिताएं तभी आप प्रकाश की ओर अग्रसर हो पाएंगे ।
                      आप सभी को मेरी तरफ से दीपावली की मंगल कामनाएं ।परमात्मा  से प्रार्थना है कि आपके जीवन के भावी दिन प्रकाश से सदैव ही आलोकित रहे । शुभ दीपावली ।
                                 ॥ हरिः शरणम् ॥  

Sunday, October 19, 2014

आत्म-सम्मान |

          आत्मसम्मान एक सफल सुखी जीवन का आधारभूत तत्व है। व्यक्ति आत्मसम्मान के अभाव में सफल तो हो सकता है, बाह्य उपलब्धियों भरा जीवन भी सकता है, किंतु वह अंदर से भी सुखी, संतुष्ट और संतृप्त होगा, यह संभव नहीं है।
         आत्मसम्मान के अभाव में जीवन एक गंभीर अपूर्णता व रिक्तता से भरा रहता है। यह रिक्तता एक गहरी कमी का अहसास देती है और जीवन एक अनजानी- रिक्तता, एक अज्ञात पीड़ा, असुरक्षा और अशांति से बेचैन रहता है। आत्मसम्मान का बाहरी उपलब्धियों और सफलताओं से बहुत अधिक लेना-देना नहीं है। आत्मविश्वास स्वयं की सहज स्वीकृति, स्व-प्रेम और स्व-सम्मान की व्यक्तिगत अनुभूति है, जो दूसरों की प्रशंसा, निंदा और मूल्यांकन आदि से स्वतंत्र है।
         वस्तुत: आत्मविश्वास व्यक्ति का अपनी नजरों में अपना मूल्यांकन है और अपनी मौलिक अद्वितीयता की आंतरिक समझ और इसकी गौरवपूर्ण अनुभूति है। यह अपने साथ एक सहजता का स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण भाव है, जो जीवन के हर क्षेत्र में हमारी गुणवत्ता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। वस्तुत: जीवन में सफलता और प्रसन्नता की अनुभूति का आधार आत्मसम्मान और आत्मगौरव की स्वस्थ भावदशा ही है। आत्मसम्मान की कमी का प्रमुख कारण जीवन के नकारात्मक पक्ष से गहन तादात्म्य की स्थिति होती है। भ्रमवश इसी पक्ष को हम अपना वास्तविक स्वरूप मान बैठते हैं, जबकि यह तो व्यक्तित्व का मात्र एक पक्ष होता है। वास्तविक रूप तो हमारा उच्चतर 'स्व' है, जो ईश्वर का दिव्य अंश है। आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास का प्रथम सूत्र है।
        इसके साथ अपने जीवन के प्रति पूर्ण जिम्मेदारी का भाव दूसरा चरण है। आत्म-विकास और उन्नति के साथ दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी हमारे आत्मसम्मान को बढ़ाएगी। दूसरे के सुख और उत्कर्ष में प्रशंसा, वहींदुख व विषम समय में सांत्वना-सहानुभूति का सच्चा भाव भी आत्मसम्मान को बढ़ाने का अचूक तरीका है। अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करें। अपने सत्य के साथ किसी तरह का समझौता न करें। वस्तुत: आत्मसम्मान का यथार्थ विकास इसी बिंदु पर शुरू होता है। देह की वासना, मन की तृष्णा और अहं की क्षुद्रता को पैरों तले रौंदते हुए जब हम अंतरात्मा के पक्ष में निर्णय लेते हैं, तो हमारा आत्मसम्मान हमारे व्यक्तित्व को आत्मगौरव की एक नई चमक देता है।
                              ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Friday, October 17, 2014

प्रकृति |

             प्रकृति अत्यंत सरल है। इसकी समस्त क्रियाएं बड़ी सरलता के साथ होती हैं। सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना समय पर हो रहा है। वृक्ष फलते-फूलते हैं, रात के बाद दिन आता है, पर्वत-चट्टानें स्थिर हैं।
             प्रकृति जटिलताओं का उद्गम-स्त्रोत नहीं है, उन्हें वह निर्मित भी नहीं करती। प्रकृति की क्रियाएं क्यों हो रही हैं या फिर क्या होना चाहिए, जैसे प्रश्नों से जटिलता पैदा होती है।
             प्रकृति में सब कुछ स्वयं ही होता है। प्रकृति की तरह जो चीज सरल रहती है, वही सत्य है। ऊपर से यह सहज जान पड़ता है, पर इसका अभ्यास करने पर यह इतनी सरल नहीं रहती। यही जीवन के साथ भी है। सरल रहने तक मानव जीवन सम्यक अर्थो में वास्तविक जीवन बना रहता है। यही हमारा जीवन जीना होता है। इससे पृथक होते ही यह जीवन कष्टमय बन जाता है। पद और ज्ञान का दंभ जीवन को जटिलतम बनाता है। जीवन के न सुलझने वाले गणित को सुलझाने के अनावश्यक कार्य में इतने अधिक उलझ जाते हैं कि अंत में मृत्यु ही इनके उलझाव को सुलझाती है। सहज और सरल जीवन के माध्यम से प्रयास के बगैर मंजिल मिलती है। सहजता में जीवन असाधारण होता है।
             सत्य भी सहज है। सत्य बोलना कठिन नहीं है। जो वास्तविकता है उसे ही कहना है। सत्य में जोड़ना-घटाना और गुणा-भाग नहीं करना पड़ता। झूठ बोलना इसके ठीक विपरीत है। जो नहीं है, वही कहना है। जल को हवा सिद्ध करने के लिए प्रपंच की सृष्टि करनी पड़ती है। वास्तविकता से दूर जाना पड़ता है। सत्य का यथार्थ से संबंध है। प्रेम की भूख स्वीकार करने पर उसे मिटाने वाले सरलता से मिल जाते हैं। संकोच करने पर मायावी-दिखावे के कारण अवसर निकल जाता है। संबंध की दीर्घता में सत्य सरल सेतु है। सत्य को कभी स्मरण नहीं रखना पड़ता। स्वयं स्मृति में रहता है। झूठ को सदा स्मृति पटल पर रखना होता है। झूठ को जितनी बार दोहराते हैं उतनी बार उसका अर्थ बदलता जाता है। झूठ जटिलताएं उत्पन्न करता है, जो मानसिक तनाव का कारण बनकर सरलता नष्ट करती है। सरलता के बगैर सत्य का सानिध्य नहीं मिलता। जटिलता छोड़ने पर आनंद धारा फूट पड़ती है।
                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, October 16, 2014

प्रेम |

                      प्रेम एक ऐसा शब्द है, जिसके अनगिनत आयाम हैं। लिखने वालों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है, पर यह विषय कभी भी चुका नहीं है। हर पीढ़ी ने इसको अपने-अपने तरीके से इसकी व्याख्या की है, परंतु अनवरत रूप से और भी नए-नए ढंग से इसके व्याख्यायित होने की संभावनाएं कभी समाप्त नही होने वाली हैं।
                     राधा-कृष्ण के अमर प्रेम ने धर्मो की आपसी सीमाएं तोड़ रखी हैं। हिंदू और मुस्लिम साहित्यकारों ने इस दिव्य प्रेम का अपने-अपने ढंग से बखान किया है। प्रकृति और पुरुष के सनातन प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति हैं-राधा-कृष्ण का प्रेम, जिसके आध्यात्मिक पहलुओं को श्रीमद्भागवत में बखान किया गया है।
                    प्रेम को स्त्री-पुरुष की दैहिक सीमाओं से बांधना प्रेम के वास्तविक सत्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। प्रेम को जब भी किसी सीमा में बांधा जाता है, प्रेम हल्का हो जाता है, समझौतों में दम तोड़ने लगता है और तमाम सामाजिक विसंगतियों को जन्म देता है।
                    सच्चा प्रेम आकाश के सदृश विस्तृत होता है, अपेक्षाओं से परे होता है और सिर्फ देते रहने के लिए प्रतिबद्ध होता है। प्राणी का प्रभु से प्रेम, प्रेम का अत्यंत उदात्त स्वरूप है। जब यह वास्तविक स्वरूप में हमारे जीवन में घटता है तो परमानंद जन्मता है। प्रेम की व्याख्या उसी तरह नहीं की जा सकती जिस तरह परम आनंद की अनुभूति को शब्दों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता, यह तो महज अनुभव करके ही जाना जा सकता है। प्राणी का परमात्मा से प्रेम आध्यात्मिक चेतना का सर्वोत्तम फल है। इस फल को जो भी चख पाता है, वही प्रेम के सच्चे मायनों को पूर्णतया समझ पाता है। प्रेम ईश्वर की तरह अनंत और अनादि है। ऐसा प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है और उसे अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की दरकार नहीं होती, वह तो अनुभूति का सागर होता है। इस अनुभूति के सागर में जो भी कभी डूबा, उसने कभी बाहर नहीं आना चाहा। वस्तुत: प्रेम का रसायन शास्त्र (केमिस्ट्री) विलक्षण है। इस केमिस्ट्री में दो चेतन तत्वों की भावनाएं मिलकर एक हो जाती हैं। प्रेम की इस केमिस्ट्री में अचेतन तत्वों को भी शामिल किया गया है। पहाड़, समुद्र, झरने और प्रकृति के अनेक रूप हैं, जो हमें प्रकृति प्रेम की ओर आकर्षित करते हैं।
                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Wednesday, October 15, 2014

प्रेम की भावना |

                      एक दवा ऐसी है, जिसे व्यक्ति को बाजार से नहीं खरीदना पड़ता। वह दवा प्रत्येक व्यक्ति के पास है और उसके सहारे वह हर बड़ी से बड़ी बीमारी व समस्या को दूर कर सकता है। वह दवा प्रेम है। प्रेम इंसान के अंदर की एक ऐसी भावना है, जो उस समय बढ़ती है, जब व्यक्ति किसी से गहराई से जुड़ता है। जब व्यक्ति सकारात्मक भावों के साथ इनसे प्रेम करता है, तो जिंदगी बेहद खूबसूरत हो जाती है। 'द बॉयोलॉजी ऑफ लव' पुस्तक के लेखक डॉ जेनव कहते हैं, 'मनुष्य एक संवेदनशील जीव है, इसलिए प्रेम जैसी भावना की कमी उसके विकास और जीने की क्षमता को कमजोर कर सकती है। मनोवैज्ञानिक प्रेम को मनुष्य के अंतर्मन में मौजूद सबसे मजबूत और सकारात्मक संवेदना के रूप में देखते हैं और मानते हैं। इससे शरीर में गहरे बदलाव आते हैं। जिस तरह दवा रसायनों के मिश्रण से बनती है, उसी तरह प्रेम की दवा में भी रसायनों का ही हाथ है। अमेरिका के वैज्ञानिक रॉबर्ट फ्रेयर के अनुसार प्रेम मानव शरीर में उपस्थित न्यूरो-केमिकल के कारण होता है। यह न्यूरो-केमिकल व्यक्ति को प्रेम की गहनता तक ले जाता है और व्यक्ति को उन खुशियों तक पहुंचाता है, जिन्हें वह पाना चाहता है। अक्सर व्यक्ति को बीमारी, तनाव व डिप्रेशन के समय परिवार के साथ समय बिताने, प्रकृति को निहारने, प्रेरणादायक पुस्तक पढ़ने और मधुर संगीत सुनने की सलाह दी जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक तर्क यही है कि ये सब प्रेम के रूप हैं और व्यक्ति के लिए दवा का काम करते हैं।
                     श्रीश्री रविशंकर प्रेम के संदर्भ में कहते हैं कि प्रेम तो ऐसी दवा है जिसकी कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। यह हमेशा हर मौके पर कारगर होती है। प्रेम की दवा को अपना साथी बनाना बहुत सरल है। इसके लिए व्यक्ति को बस अपने अंतर्मन से इस बात को स्वीकार करना है कि मुझे पूरी सृष्टि से प्रेम है। मुझे हंसते-रोते इंसानों से, फूल-पत्तों से, गुनगुनी सुबह से, सुरमयी शाम से और चिड़ियों के कोलाहल से, नदियों के राग से प्रेम है। प्रेम एक ऐसी दवा है, जो जिसके पास जितनी अधिक होती है, उसे यह उतनी अधिक स्वस्थ, सुंदर और हंसमुख बनाती है। कई बार व्यक्ति जब दवा का सेवन करता है, तो उसे कई खाद्य पदार्थो व वस्तुओं से परहेज करना पड़ता है, लेकिन प्रेम की दवा में ऐसा बिल्कुल नहीं है।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, October 14, 2014

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् |

             लय और प्रलय, दोनों शिव के अधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति का पर्याय माना गया है। यानी पुरुष और प्रकृति का सम्यक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिवत्व है।
            शिव स्वयं भी परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग..? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को कालकवलित कर देने वाला। कैसा अद्भुत संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर हैं। पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अ‌र्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।
            वेदों में शिव को रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया और रौद्र स्वरूप में रुद्र को जाना गया। वस्तुत: प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप यह स्वरूप प्रकट होता है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थो में आई प्राकृतिक आपदा इसका उदाहरण हैं।
            केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, 'रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।' इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की साम‌र्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।
           हमें शिव के संतुलन स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। अपने भीतर तो संतुलन लाना ही चाहिए, साथ ही प्रकृति के संतुलन को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम जीवन में लय को कायम रख सकेंगे।
                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, October 12, 2014

मोह |

                 साधक के मार्ग का मोह एक अवरोधक मनोविकार है। मोह जड़ता का प्रतीक है, जो विवेक को जाग्रत नहीं होने देता। कोई भी साधक जब तक किसी विकार से ग्रस्त रहेगा, वह साधना में नहीं उतर सकता। साधना निर्विकार की परिणति है। जब विचार गिर जाए, मोह और ममता की दीवार ढह जाए, तभी साधक को साधना की अनुभूति होती है।
               परमात्मा ने मनुष्य को निर्विकार, सरल और सौम्य जीवन जीने के लिए उत्पन्न किया, लेकिन हमने स्वयं अपने चारों ओर मोह और ममता का मायाजाल निर्मित कर स्वयं को फंसा लिया। जितना दुख चिंता और भय हमने अपने जीवन में आमंत्रण देकर बुलाया है, वे सब हमारी अपनी कल्पना के फल हैं। ईश्वर ने हमारे लिए कोई जाल नहीं बनाया, हमने स्वयं अपने हाथों से उन जालों को बनाया और स्वयं उसमें फंसते गए। मोह का मायाजाल व्यक्ति की अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है। जिस प्रकार रस्सी को सांप समझकर हम भागने लगते हैं और बाद में वस्तुस्थिति समझकर अपनी ही मूर्खता पर मुस्कराने लगते हैं, ठीक वही स्थिति मनुष्य की होती है, जो अकारण किसी वस्तु से मोहग्रस्त हो जाता है और फिर पछताने लगता है।
              मोह के कारण जिस वस्तु से उसे लगाव हो जाता है, बाद में वही वस्तु कांटे की तरह चुभने लगती है। वस्तुओं का संग्रह और उससे लगाव मोह की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। वस्तुओं का संग्रह कर हम तृप्त होना चाहते हैं और जब संग्रहकर्ता को उससे संतोष नहीं होता और मोह के कारण और अधिक संग्रह की लिप्सा बढ़ती जाती है, तब पता चलता है कि इस संग्रह की प्रवृति का मायाजाल कितना बढ़ता जा रहा है। मोह के कारण जिन वस्तुओं का अधिक से अधिक संग्रह हम करना चाहते हैं, अगर उन वस्तुओं से मन में संतोष और आनंद की अनुभूति न हो, तो बड़ी निराशा होती है। मोह अभाव से उत्पन्न होता है और अभाव का अर्थ है कि व्यक्ति भीतर से खाली है। भीतर जो खाली है, व्यक्ति के भीतर के आकाश में खोखलापन है, तो वह भीतर के अभाव को भरने के लिए बाहर की वस्तुओं के संग्रह के मोह में पागल सरीखा हो जाता है। भीतर का अभाव ही बाहर से भरने की उत्सुकता पैदा कर देता है। इसीलिए लोग संपत्ति के मोह में फंसे रहते हैं और संग्रह हो जाने पर उसका कोई उपयोग नहीं करते और उस संपत्ति को सहेजकर बैंक के लॉकर में रख देते हैं।
                           ॥ हरिः शरणम्  ॥ 

Saturday, October 11, 2014

जीवन-निर्माण |

               निद्रा का जन्म आलस्य से होता है और आलस्य जीवन के पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। निद्रा का विज्ञान यह है कि निद्राकाल में जब शरीर की सारी इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं तो शरीर ऊर्जा का संग्रह करने लगता है। यह एक प्राकृतिक व्यवस्था है। जो ऊर्जा जाग्रत अवस्था में खर्च हो जाती है उसे पुन: प्राप्त करने के लिए निद्रा में जाना आवश्यक है।
               जितनी ऊर्जा हमारे शरीर को चाहिए उसके लिए छह घंटे का समय काफी होता है। जन्मकाल के बाद बच्चा लगभग 23 घंटे सोता है। ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, निद्रा कम होती जाती है। यही कारण है कि आम तौर पर वृद्ध लोग 2 से 3 घंटे से अधिक नहीं सोते। इतने ही समय में उनके शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा संग्रहीत हो जाती है।
              जो लोग आलस्य के कारण अधिक सोते हैं, धीरे-धीरे सोना उनकी आदत बन जाता है और वे आलसी बन जाते हैं। आलस्य, नींद और जम्हाई लेना अच्छा लक्षण नहीं माना जाता। जो लोग साधक होते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे नींद के वश में न रहें, क्योंकि नींद साधना की विरोधी है। साधना करते समय साधक को अगर आलस्य आ जाए, नींद आने लगे, तो साधना में उतरना संभव नहीं है। हमारा जीवन किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं, उसे उद्देश्यहीन बनाकर अपनी मूल प्रवृत्तियों के वश में होकर इसे नष्ट नहीं करना है।
              जीवन की सार्थक भूमिका यही है कि हम आत्मिक चिंतन करें और सारी ऊर्जाशक्ति को संग्रहित कर जीवन में विवेकशक्ति को जाग्रत करें और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करें। जो शरीर साधना के मार्ग से बुद्धि और विवेक से नियंत्रित होकर परमात्मा की अनुभूति नहीं करता है अंतत: उसका लौकिक और अलौकिक जीवन निरर्थक हो जाता है। मूल प्रवृत्तियां शरीर को स्थिर करने में सहायक मात्र होती हैं और जब शरीर सही ढंग से काम करता रहता है तभी आत्म तत्व को परमात्म तत्व में मिलने का सहज मार्ग बन पाता है। इसलिए सभी को आलस्य और निद्रा से वशीभूत होने से बचने की आवश्यकता है। हमारा जीवन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस जीवन को हम जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं। अगर हमारा जीवन कर्मशील है, तो हम जीवन में यशस्वी बन सकते हैं। अगर आलसी है, तो समाज में निंदा के पात्र भी बन सकते हैं।
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥