Monday, December 22, 2014

कर्म-योग |-6

             जब इस शरीर में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण ही होते हैं अथवा किये जाते हैं ,तो फिर ऐसे कर्मों का कोई कर्ता कैसे हो सकता है ?इसी बात को और अच्छे तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ | किसी भी व्यक्ति में तीन मूल तत्व उपस्थित होते हैं - भौतिक शरीर, मन और आत्मा | शरीर बनता हैं, पांच भौतिक तत्वों से, यथा -भूमि, आकाश, जल, वायु और अग्नि | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच उनके विषय भी इन पञ्च भौतिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं | भूमि से नाक और गंध, आकाश से कान और शब्द या ध्वनि, जल से जिह्वा और स्वाद ,अग्नि से आँख और दृष्टि तथा वायु से त्वचा और स्पर्श से/का ज्ञान |परन्तु इन पंद्रह तत्वों के बाद भी कर्म करने लिए पांच कर्मेन्द्रियाँ आवश्यक है |उपरोक्त बीस तत्वों के साथ जब मन, बुद्धि और अहंकार का तादात्म्य स्थापित होता है तब व्यक्ति कर्म करने की अवस्था को उपलब्ध होता है | इस प्रकार जब मनुष्य शरीर में उपरोक्त 23 जड़ तत्व इकट्ठे हो जाते हैं तब उसके कर्म करने की स्थिति में आने के लिए 24 वें तत्व के रूप में आत्मा का प्रवेश होता है |
                                          यह आत्मा ही चेतन तत्व है, जो किसी भी प्रकार का कोई कर्म नहीं करती है, जबकि कर्म करने वाले जो शेष 23 तत्व हैं, वे सभी जड़ तत्व है | कर्म जड़ तत्व करते हैं न कि चेतन तत्व | प्रारम्भिक 20 जड़ तत्वों (मन, बुद्धि और अहंकार को छोड़कर) का आधार पांच भौतिक तत्व ही हैं |इन पांच भौतिक तत्वों को प्रकृति में आप कर्म करते हुए साफ साफ देख सकते हैं |पृथ्वी या भूमि आपको सभी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन उपलब्ध करवाती है, यह उसका कर्म है |इससे उत्पन्न घ्रानेंद्रिय से आप गंध का अनुभव कर सकते हैं |जल के कर्म आप समुद्र में देख सकते है ,जिसमें सदैव ही लहरें उठती रहती है | इसके जल से भाप बनकर बादल उठते हैं जो दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरसते हैं | इस बरसे जल से हमें भूख मिटाने के लिए अन्न और प्यास बुझाने के लिए जल प्राप्त होता है |जल का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय जीभ है, जिससे आप स्वाद का अनुभव कर सकते हैं | जीभ का कर्म स्वाद का ज्ञान करना है | वायु का कर्म है-बहना |जिसका स्पष्ट अनुभव आप इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय त्वचा से कर सकते हैं | त्वचा का कर्म है-स्पर्श का ज्ञान, छूकर किसी का अहसास कराना, जैसे ठंडा, गर्म, पतला, मोटा आदि |अग्नि का कर्म है-गर्मी और प्रकाश देना |इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है नेत्र| नेत्रों से हम दृष्टि पाते है| इस प्रकार नेत्र का कर्म है-देखना | इसी प्रकार आकाश में हम शब्द या ध्वनि का अनुभव कर सकते हैं |आकाश का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है-श्रवनेंद्रिय यानि कान | कानों से हमें आवाज और उसकी दिशा का ज्ञान प्राप्त होता है | 
क्रमशः 
                           || हरिः शरणम् ||

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