कर्म-
कर्म ही इस संसार को
गतिमान बनाये रखने की धुरी है | सारा संसार कर्म के चारों और परिक्रमा कर रहा है |जिस
दिन यह कर्मों का संसार समाप्त हो जायेगा, वह दिन इस भौतिक संसार का भी अंतिम दिन
होगा | कर्म इस भौतिक संसार का आधार है क्योंकि परमात्मा ने कर्म करते रहने को ही
प्राथमिकता दी है | बिना कर्म किये इस संसार में न तो कुछ प्राप्त किया जा सकता है
और न ही कुछ खोया जा सकता है | रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
“कर्म प्रधान बिस्व करि राखा ” अर्थात् परमात्मा ने इस संसार में कर्म को ही मुख्य
भूमिका में रखा है | कर्म के बिना इस संसार का गतिमान बने रहना मुश्किल है |अगर
कर्म नहीं है तो संसार भी नहीं है और इसी प्रकार कर्म हैं तो यह संसार है |
जब कर्म की प्रधानता इस
संसार में है और कर्म पर ही संसार का अस्तित्व टिका हुआ है तो यह जानना महत्वपूर्ण
होगा कि कर्म कैसे होते हैं , कौन करता है और क्यों करता है ? हम सब कर्म में
विश्वास रखते हैं |यह इसी बात से साबित होता है कि प्रत्येक दिन प्रातःकाल से ही
मनुष्य कर्म करने में लग जाता है | समस्त विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जहाँ
प्रत्येक व्यक्ति किसी विशेष कर्म को करने से पहले परमात्मा का स्मरण अवश्य करता
है | इसका कारण गीता में भगवान श्री कृष्ण सटीक रूप से स्पष्ट करते हैं | कही भी, किसी
प्रकार का विरोधाभास नहीं है |कर्म की व्याख्या जिस प्रकार से श्रीमद्भगवद्गीता में
की गई है उतनी सटीक व्याख्या आपको अन्य किसी भी धर्मशास्त्र में नहीं मिलेगी |
कर्म करने के बारे में
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
न हि
कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते
ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै : ||गीता 3/5 ||
अर्थात् निःसंदेह कोई भी
मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा
मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया
जाता है |
यहाँ एकदम स्पष्ट है कि समस्त मनुष्य जो भी योग-कर्म करते हैं ,वे
कर्म व्यक्ति के प्राकृतिक गुणों के कारण ही होते हैं | जैसा कि हम जानते है कि प्रकृति
के तीन गुण है-सत, रज और तम | प्रत्येक व्यक्ति में उपरोक्त तीनों गुण ही उपस्थित
होते हैं परन्तु जिस गुण की प्रधानता होती है, व्यक्ति का स्वभाव उसी गुण के
अनुरूप माना जाता है | जिस पुरुष में सात्विक गुणों की प्रधानता होती है, वह
व्यक्ति प्रायः सात्विक कर्म ही करता है ,परन्तु उस व्यक्ति में सत गुण के साथ रज
और तम गुण भी उपस्थित होते हैं उस कारण से यदा कदा उससे सात्विक कर्म के अलावा
अन्य प्रकार के कर्म भी हो जाते हैं |अतः यह कहना एकदम सही है कि व्यक्ति चाहे
जितना मन में ठान ले कि यह करना है या यह नहीं करना है, मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है । करना या न करना , होना अथवा न होना तो उसमें उपस्थित गुणों के वश में है । अतः मनुष्य अपने में ही उपस्थित गुणों के परवश होकर उन्हीं के अनुरूप कर्म करने को बाध्य होता है |
क्रमशः
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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