हमने कर्मों को दो भागों में विभाजित
किया है |अगर गंभीरता से देखा जाये तो भोग-कर्म वास्तव में ऐसे कर्म है जिस पर
करने वाले का किसी भी प्रकार से नियंत्रण नहीं है, जबकि योग-कर्म का नियंत्रण सदैव ही कर्ता के पास
होता है और समस्त ब्रह्माण्ड में एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसको अपने मन
के अनुसार कर्म करने की स्वतंत्रता है और वह इसी के अनुरूप योग-कर्म करता भी है |
अतः जहाँ पर भी और जिस किसी भी शास्त्र में कर्म नाम से जो भी उल्लेखित है, उन
सबका तात्पर्य योग-कर्म से ही है | अतः इस श्रृंखला में आगे जहाँ भी कर्म शब्द का
प्रयोग होगा ,उसका अभिप्राय योग-कर्म से ही होगा | यह सब कर्म मनुष्य एक कर्ता बन
कर करता अवश्य है परन्तु वास्तव में वह इन कर्मों का कर्ता होता नहीं है |आप
कहेंगे कि एक तरफ आप कह रहे हैं कि मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसको कर्म
करने की स्वतंत्रता है और दूसरी तरफ कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है | ऐसा विरोधाभास
क्यों ?
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं- प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते I।3/27।।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं- प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते I।3/27।।
अर्थात् वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा
किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं
कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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