Thursday, December 11, 2014

कर्म-योग|-1

                                     इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है,वह एक पल के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । इस धरती पर समय समय पर विभिन्न अवतार लेकर परमात्मा भी आये हैं और सभी ने अपने अपने अनुसार कर्म किये हैं । मानव ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव यहाँ पर कर्म करने को विवश हैं | अंतर सिर्फ इतना ही है कि अन्य प्राणी पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों का फल भोगने के लिए कर्म करने को विवश है जबकि मनुष्य पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों का फल भोगने के साथ ही साथ इस जन्म में स्वेच्छा से कर्म करने को स्वतन्त्र है । यह कर्म करने की स्वतंत्रता ही उसमे कर्म करने के प्रति कामना उत्पन्न करती है । अन्य जीवों में कर्म करने की स्वतंत्रता न होने के कारण उनमे कामना पैदा होने का प्रश्न ही नहीं है ।
                        पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फलस्वरूप जो भी कर्म प्राणी द्वारा किये जाते है ,वे कर्म भोग-कर्म कहलाते हैं । अतः मनुष्य और अन्य प्राणी जो भी कर्म ,पूर्व के जन्मों में किये गए कर्मों के फलों के भोग स्वरुप करते हैं उन्हें हम कर्म नहीं कह सकते हैं । केवल अपनी कर्म करने की स्वतंत्रता ही मनुष्य जीवन में किये गए कर्मों के भविष्य का निर्धारण करती है,अतः ये ऐसे किये जाने वाले कर्म ही वास्तविकता में कर्म कहे जाते हैं । इसी कर्म स्वतंत्रता के कारण मनुष्य द्वारा किये जा रहे कर्म विशेष होते हैं ।
                     इस प्रकार से हम कर्मों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं-भोग-कर्म और योग-कर्म । भोग-कर्म वे कर्म होते हैं जो पूर्व जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम स्वरुप प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन काल में करने पड़ते हैं । इन भोग-कर्मों के करने में सम्बंधित प्राणी का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता है । दूसरे प्रकार के कर्म यानि योग-कर्म करने का अधिकार सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को प्राप्त है । मनुष्य को स्वतंत्रता है कि वह अपने मन के अनुसार किसी भी प्रकार का कर्म कर सकता है । इन्हें हम योग-कर्म इसलिए कहते हैं क्योंकि इन कर्मों का सम्पूर्ण लेखा-जोखा मानव के चित्त में अंकित होकर बढ़ता जाता है (कर्मों का योग) और मानव देह की समाप्ति पर इन कर्मों का विश्लेषण आत्मा करती है और उसी  के अनुरूप किसी भी प्राणी के रूप में पुनर्जन्म पाकर भोग-कर्म करने को विवश होना पड़ता है ।
क्रमशः
                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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