Saturday, December 27, 2014

कर्म-योग |-8

         इतना समझाने पर भी अर्जुन के ना समझ पाने पर गीता के अंतिम अध्याय में आखिर थक हारकर भगवान श्री कृष्ण को कहना ही पड़ा-
         यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
         मिथ्येष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||गीता 18/59||
अर्थात् जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है ;क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा |
         स्वभावजेन कौन्तेय निबध्दःस्वेन कर्मणा |
         कर्तुंनेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोsपि तत् ||गीता 18/60||
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी तू अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |

        यहाँ इस 60 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अर्जुन ! जो तुमने पूर्व में कर्म किये हैं अर्थात पूर्वजन्म में तुमने जो कर्म किये हैं उनसे तुम्हारा यह स्वभाव बना और इस जन्म में यही स्वभाव संस्कार बना जिसके कारण तुम क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हो |अतः तुम इस स्वाभाविक कर्म अर्थात क्षत्रिय कर्म के वश में हो, जिसके फलस्वरूप तुम्हें भोग-कर्म के रूप में वर्तमान जन्म में युद्ध करना ही पड़ेगा |
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||             

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