भोग-कर्म और योग-कर्म के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं-
सदृशं
चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं
यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||गीता 3/33||
अर्थात् सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव
के परवश हुए कर्म करते हैं |ज्ञानवान भी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है |फिर
इसमें किसी का हठ क्या करेगा?
यहाँ भगवान स्पष्ट कहते
हैं कि सभी प्राणी अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |पूर्व मनुष्य जन्म में किये
हुए कर्मों (योग-कर्मों) से उसके स्वभाव का निर्माण होता है | यही स्वभाव नए जन्म
में उसके साथ रहता है |नए शरीर में प्राणी अपने उसी पूर्व-जन्म के स्वभाव के वश में
रहता है |इस नए शरीर में वह चाहे कितना ही हठ करे ,वह स्वभाव के परवश हुए भोग-कर्म
करेगा ही | उसके हठ के अनुरूप किसी भी प्रकार के कर्म हो ही नहीं सकते |ज्ञानवान
भी इसी प्रकार अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास करता है |इस प्रयास से व्यक्ति भोग-कर्म के साथ
साथ योग-कर्म कर सकता है |अगर कोई मनुष्य कर्म करने को अनुचित मान भी ले और कर्म न
करने की ठान ले, तो भी उसे अपने पूर्व-जन्म के स्वभाव के अनुसार भोग-कर्म करने को
तो विवश होना ही पड़ेगा |इसी कारण से गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि इस
संसार में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता |अपनी जिद्द से वह
योग-कर्म से विमुख अवश्य हो सकता है परन्तु भोग-कर्म करने से वंचित नहीं हो सकता
|इन्हीं भोग-कर्मों को करते हुए वह एक दिन योग-कर्म करने को भी विवश हो जायेगा | इस
प्रकार कर्मों की एक अंतहीन श्रृंखला बन जाती है जिसके पाश से छूट पाना साधारण
मनुष्य के वश में नहीं है |
क्रमशः || हरिः शरणम् ||
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