Friday, December 19, 2014

कर्म-योग |-4

भोग-कर्म और योग-कर्म के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
                प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||गीता 3/33||
अर्थात् सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |ज्ञानवान भी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है |फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? 
      यहाँ भगवान स्पष्ट कहते हैं कि सभी प्राणी अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |पूर्व मनुष्य जन्म में किये हुए कर्मों (योग-कर्मों) से उसके स्वभाव का निर्माण होता है | यही स्वभाव नए जन्म में उसके साथ रहता है |नए शरीर में प्राणी अपने उसी पूर्व-जन्म के स्वभाव के वश में रहता है |इस नए शरीर में वह चाहे कितना ही हठ करे ,वह स्वभाव के परवश हुए भोग-कर्म करेगा ही | उसके हठ के अनुरूप किसी भी प्रकार के कर्म हो ही नहीं सकते |ज्ञानवान भी इसी प्रकार अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास  करता है |इस प्रयास से व्यक्ति भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म कर सकता है |अगर कोई मनुष्य कर्म करने को अनुचित मान भी ले और कर्म न करने की ठान ले, तो भी उसे अपने पूर्व-जन्म के स्वभाव के अनुसार भोग-कर्म करने को तो विवश होना ही पड़ेगा |इसी कारण से गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता |अपनी जिद्द से वह योग-कर्म से विमुख अवश्य हो सकता है परन्तु भोग-कर्म करने से वंचित नहीं हो सकता |इन्हीं भोग-कर्मों को करते हुए वह एक दिन योग-कर्म करने को भी विवश हो जायेगा | इस प्रकार कर्मों की एक अंतहीन श्रृंखला बन जाती है जिसके पाश से छूट पाना साधारण मनुष्य के वश में नहीं है | 
   क्रमशः 
                        || हरिः शरणम् || 

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