सभी कर्म जो इन्द्रियों द्वारा
किये जाते हैं, उन सब कर्मों में भूमिका जड़ तत्वों की होती है |चेतन तत्व-आत्मा की
इन कर्मों में किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं होती है |गीता में भगवान 13 वें
अध्याय, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नामक अध्याय में एकदम स्पष्ट करते हैं| वे
अर्जुन को कहते हैं -
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः | शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता 13/31||
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः | शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता 13/31||
अर्थात् हे
कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष (चेतन, आत्मा)
अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर
में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |
यहाँ परमात्मा श्री कृष्ण
स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्मा इस भौतिक शरीर में रहते हुए कर्मों को न तो
करता है और न ही कर्मों में लिप्त होता है |आप आत्मा है, शरीर नहीं है |इस प्रकार
आप न तो कर्म कर सकते हैं और न ही कर्मों में लिप्त हो सकते हैं | कर्ता तो जड़
तत्व, यह शरीर है ,ऐसे में चेतन तत्व यानि आत्मा कर्ता कैसे हो सकती है ? आप आत्मा
हैं, शरीर नहीं है ,ऐसे में आप कर्ता हो ही नहीं सकते |
अब प्रश्न यही उठता है कि जब
व्यक्ति कर्ता नहीं है तो फिर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता कैसे है ? कर्म करने की
स्वतंत्रता में प्रकृति के शेष बचे तीन तत्वों यानि मन, बुद्धि और अहंकार की
भूमिका होती है |उपरोक्त तीन तत्व केवल मनुष्य नाम के प्राणी के शरीर में ही
उपस्थित होते हैं, अन्य किसी भी प्राणी में नहीं |यही कारण है कि अन्य सभी प्राणी
केवल भोग-कर्म ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म भी कर
सकता है |इसीलिए मनुष्य की योनि को भोग योनि के साथ साथ योग-योनि या कर्म-योनि भी
कहा जाता है जबकि अन्य प्राणियों की योनि को केवल भोग-योनि कहा जाता है |
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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