Wednesday, December 24, 2014

कर्म-योग |-7

          सभी कर्म जो इन्द्रियों द्वारा किये जाते हैं, उन सब कर्मों में भूमिका जड़ तत्वों की होती है |चेतन तत्व-आत्मा की इन कर्मों में किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं होती है |गीता में भगवान 13 वें अध्याय, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नामक अध्याय में एकदम स्पष्ट करते हैं| वे अर्जुन को कहते हैं -                   
             अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |                                               
 शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता 13/31||
                            अर्थात् हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष (चेतन, आत्मा) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |                       
                  यहाँ परमात्मा श्री कृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्मा इस भौतिक शरीर में रहते हुए कर्मों को न तो करता है और न ही कर्मों में लिप्त होता है |आप आत्मा है, शरीर नहीं है |इस प्रकार आप न तो कर्म कर सकते हैं और न ही कर्मों में लिप्त हो सकते हैं | कर्ता तो जड़ तत्व, यह शरीर है ,ऐसे में चेतन तत्व यानि आत्मा कर्ता कैसे हो सकती है ? आप आत्मा हैं, शरीर नहीं है ,ऐसे में आप कर्ता हो ही नहीं सकते |

                अब प्रश्न यही उठता है कि जब व्यक्ति कर्ता नहीं है तो फिर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता कैसे है ? कर्म करने की स्वतंत्रता में प्रकृति के शेष बचे तीन तत्वों यानि मन, बुद्धि और अहंकार की भूमिका होती है |उपरोक्त तीन तत्व केवल मनुष्य नाम के प्राणी के शरीर में ही उपस्थित होते हैं, अन्य किसी भी प्राणी में नहीं |यही कारण है कि अन्य सभी प्राणी केवल भोग-कर्म ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म भी कर सकता है |इसीलिए मनुष्य की योनि को भोग योनि के साथ साथ योग-योनि या कर्म-योनि भी कहा जाता है जबकि अन्य प्राणियों की योनि को केवल भोग-योनि कहा जाता है |
                 लेकिन यह कर्म करने की स्वतंत्रता भी सम्पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है | जैसा कि भगवान श्री कृष्ण गीता में बार बार अर्जुन को यही समझाते हैं कि तू कौन होता है युद्ध करने वाला या युद्ध न करने वाला ? जब युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने ,अपने और दुर्योधन ,दोनों ही पक्षों में अपने सगे-सम्बन्धियों, परिवारजनों और मित्रों को देखा तब उसे लगा कि इस युद्ध में जीत चाहे किसी की भी हो, मरने वाले तो उसके अपने ही होंगे |ऐसा विचार कर उसने हथियार डाल दिए और युद्ध से पलायन की बात करने लगा | अगर कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता मनुष्य को होती तो अर्जुन कभी का युद्ध भूमि छोड़ भाग खड़ा होता |परन्तु श्री कृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध करने या न करने का निर्णय तू स्वयं कर ही नहीं सकता क्योंकि कर्म मनुष्य प्रकृति के गुणों के वश में होकर करता है अर्थात मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र तो है परन्तु उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म प्रकृति के गुणों के अधीन होते हैं | ऐसे में कहा जा सकता है कि मनुष्य को अपने जीवन में कर्म करने की स्वतंत्रता अवश्य है परन्तु प्रकृति के गुणों के वश में रहकर ही वह कर्म करेगा |
क्रमशः 
                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 
 

No comments:

Post a Comment