Sunday, November 16, 2014

बंधन |

            बच्चों के प्रति स्नेह और लाड़-प्यार का अर्थ वात्सल्य से संबंधित है। मनुष्य जीवन के प्रारंभ होते ही रिश्तों के बंधन बनने लगते हैं। सबसे पहले बीजरूप बनते ही माता और पिता से संबंध बन जाता है। इसके बाद भाई, बहन, दादा-दादी और नाना-नानी आदि से बंधन जुड़ते हैं।
          इस संसार में जन्म लेने वाले बच्चों की मुस्कान माता-पिता और सभी बड़ों को अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और उनका हृदय स्नेह की हिलोरों से भर उठता है, जो हमारे मनोभावों पर जादू सरीखा प्रभाव डालती है। आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था चरमरा रही है। युवाओं को आत्म-निर्भर होने के बाद माता-पिता के बंधन में रहना गवारा नहीं है और न ही बुजुर्गो को नई पीढ़ी की स्वतंत्र जीवन-शैली रास आती है।
         ऐसे में इन दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए वात्सल्य बंधन सेतु के रूप में काम करता है। बुजुर्ग अपनी संतान से कितना ही रुष्ट हो जाएं, जब उनकी नजर अपने इन नन्हें-मुन्नों की मासूम मुस्कान पर पड़ती हैं और उनकी बातों को सुनते हैं तो उन पर जादू जैसा प्रभाव पड़ता है। वात्सल्य के अलावा अन्य बंधनों, जैसे भाई-बहन, पति-पत्‍‌नी, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बने सारे बंधन मोह या स्वार्थ की नींव पर ही आधारित होते हैं। इन बंधनों में कोई भी दृढ़ता नहीं होती है। समस्त बंधनों में केवल वात्सल्य बंधन ही एक नि:स्वार्थ, निर्दोष और सार्वभौमिक है। अर्थात इस दुनिया में आप कहीं भी चले जाएं, इन सब स्थानों पर इसका एक ही स्नेह भरा रूप मिलेगा, परंतु हमारी संस्कृति की यह विशेष देन रही है कि शिशु के कोमल भावों को ध्यान में रखते हुए प्यार-दुलार से उसके जीवन को संवारा जाता है। किसी भी वस्तु की अति उचित नहीं कही जा सकती है। प्यार-दुलार भी एक सीमा तक ही करना उचित है। ऐसा इसलिए क्याेंकि एक उम्र के बाद थोड़ा ताड़न लालन-पालन के लिए नितांत आवश्यक है, परंतु यह बनावटी होना चहिए। वात्सल्य बंधनों में सबसे बड़ा बंधन तो भक्त और भगवान का है। परमेश्वर अपने भक्तों को बच्चों के समान समझते हुए उनसे स्नेह रखता है। इसीलिए ईश्वर को भक्तवत्सल कहा गया है।
                                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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