हमारा पुरातन योग अंग्रेजी मीडिया की कृपा से आजकल हिंदी में 'योगा' हो गया है। योग के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो सीधे-सीधे जोड़ को योग कहते हैं। इस संदर्भ में प्रश्न उठता है कि किसका किससे जोड़। हमारा अध्यात्म इस योग में आत्मा से परमात्मा को मिलाता है।
जब हमारी आत्मा, परमात्मा से निकटता बढ़ाकर एकाकार होने लगती है तो इसे 'योग' कहते हैं ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग भी हमें अंतत: आत्मा का परमात्मा से ही साक्षात्कार कराते हैं अध्यात्म जगत को असत् यानी मिथ्या मानता है और परमात्मा को सबसे बड़ा सत् यानी सत्य मानता है।
श्रीमद्भागवत पुराण का पहला श्लोक भी यही कहता है कि 'सत्यं परम धीमहि' यानी परम सत्य परमात्मा को हमारी आत्मा धारण करे। भक्तियोग को गीता में और अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों में सर्वोत्कृष्ट योग माना जाता है। कर्मयोग और ज्ञान योग के मार्ग अंतत: भक्ति योग तक ले जाते हैं। भक्तियोग को सरलतम और सहज माना जाता है, पर मन और इंद्रियों को भक्ति में रमाने के लिए समर्पण आवश्यक है और समर्पण तक पहुंचने के लिए मार्ग मंत्रयोग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग की शरण से होकर गुजरता है।
मंत्र योग किसी मंत्र का उच्चारण करने से सिद्ध होता है। स्पर्श योग में इष्ट का स्पर्श मंत्र जपने से होता है जैसे कि शिवलिंग का स्पर्श या इष्ट की मूर्ति का श्रृंगार और सेवा। इस प्रक्रिया से आस्था मजबूत होती है। आस्था मजबूत होने पर भाव योग का सृजन होता है। तब हम मस्त होकर इष्ट के भजनों का गायन करते हैं और उनकी लीलाओं का स्मरण करते हैं। अभाव योग में हम संसार से विरक्त हो जाते हैं। तमाम अभावों में भी हमारी भक्ति हमारे इष्ट से टूटती नहीं है। परीक्षाओं से गुजरते हुए हमारी भक्ति मजबूत होती जाती है। सांसारिकता का अभाव मन में स्थान बना लेता है और तब महायोग जन्मता है, जो भक्तियोग की पराकाष्ठा है।
सांसों के साथ परमात्मा का जुड़ाव हो जाता है और यह होता है वास्तविक योग, हमारी आत्मा का परमात्मा से। यह ही सनातन योग है। योग में आसन, प्राणायाम इसी महायोग के यंत्र है क्योंकि स्वस्थ देह के सहारे ही आत्मा व परमात्मा को बेहतर ढंग से पास-पास लाया जा सकता है। अंतत: महायोग की सिद्धि होती है, जो मुक्ति मार्ग तक ले जाता है।
॥ हरिः शरणम् ॥
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