आज सुबह सुबह ही एक मित्र का फोन आया ।एक लम्बा अंतराल हो गया था उससे बात हुए ।मेरे हैलो कहते ही वह बिना किसी औपचारिकता पूरी किए मुझ पर बरस पङा ।वह बोला-"पंडित, जिन्दा है कि मर गया? "मुझे मेरे सभी मित्र मेडिकल कॉलेज में इसी नाम से सम्बोधित करते थे ।खैर , उस मित्र को अपने पुत्र की शादी का निमंत्रण देना था, जो उसने दे दिया ।परंतु उसने मुझे कुछ और ही दिशा मे सोचने को विवश कर दिया ।आज जीवन के उतरार्ध में ऐसा सोचना कितना कष्ट प्रद होता है, ऐसा अनुभव मुझे आज जाकर हुआ ।
इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ पाना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है कि आज मैं जिन्दा हूँ कि मर गया हूँ? जिन्दा अपने आप को इस तरह नहीं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी विवशताओं ने मुझसे मेरे शरीर से जीवित होने के सभी लक्षण छीन लिए हैं और मरा हुआ इसलिये नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इस शरीर में दिल अभी भी धङक रहा है तथा सासें भी चल रही है।जीवन में इसी तरह समय बंद मुट्ठी से बालू रेत की तरह फिसल जाता है ।अंत में जब मुठ्ठी खोलने पर रिक्तता नजर आती है तो फिर निराश और निरूत्तर होना ही पङता है।
जिन्दगी में भौतिकता का संग्रह कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे हम अपनी उपलब्धि बताते हुए उस पर गर्व कर सके। आज इस संसार मे यही तो हो रहा है।यहां हर कोई भौतिक सुख की कामना करते हुए भौतिकता के पीछे दौड रहा है जिसे वह अपनी उपलब्धि बताते हुए गर्व महसूस करता है।परंतु जीवन के संध्या काल में जाकर उसे अहसास होगा कि वह कितना गलत था।जीवन का उतरार्ध वह अवस्था है कि जब व्यक्ति के पास कुछ करने के लिए न तो समय ही रहता है और न ही शारीरिक उर्जा।
इसका क्या समाधान हो सकता है?
।।हरि: शरणम् ।।
इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ पाना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है कि आज मैं जिन्दा हूँ कि मर गया हूँ? जिन्दा अपने आप को इस तरह नहीं कह सकता हूँ क्योंकि मेरी विवशताओं ने मुझसे मेरे शरीर से जीवित होने के सभी लक्षण छीन लिए हैं और मरा हुआ इसलिये नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इस शरीर में दिल अभी भी धङक रहा है तथा सासें भी चल रही है।जीवन में इसी तरह समय बंद मुट्ठी से बालू रेत की तरह फिसल जाता है ।अंत में जब मुठ्ठी खोलने पर रिक्तता नजर आती है तो फिर निराश और निरूत्तर होना ही पङता है।
जिन्दगी में भौतिकता का संग्रह कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे हम अपनी उपलब्धि बताते हुए उस पर गर्व कर सके। आज इस संसार मे यही तो हो रहा है।यहां हर कोई भौतिक सुख की कामना करते हुए भौतिकता के पीछे दौड रहा है जिसे वह अपनी उपलब्धि बताते हुए गर्व महसूस करता है।परंतु जीवन के संध्या काल में जाकर उसे अहसास होगा कि वह कितना गलत था।जीवन का उतरार्ध वह अवस्था है कि जब व्यक्ति के पास कुछ करने के लिए न तो समय ही रहता है और न ही शारीरिक उर्जा।
इसका क्या समाधान हो सकता है?
।।हरि: शरणम् ।।
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