Thursday, November 13, 2014

मन की यात्रा |

               मन की यात्रा अधूरी ही होती है। वैसे तो आदमी जीता पूरा है और पूरी तरह से जीने का प्रयास करता है, पर वह जी नहीं पाता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीने के लिए प्रयास करता है। उन प्रयासों में वह कुछ संभावनाओं में डूबकर जीता है। कुछ कल्पनाओं में डूबकर जीता है और कभी-कभी ख्वाब में इस तरह खोकर जीता है जैसे उसका यही सत्य है।
             यही जीवन है। आदमी का यह मन ही तो है। मन जो मान लेता है उसी की यात्रा करने लगता है। उसी के नशे में डूबकर कुछ समय काट लेता है। मन सभी चीजों को स्वीकार कर लेता है। मन सभी तरह की बातों को बर्दाश्त कर लेता है। वह केवल अपना रास्ता खोजता रहता है। वह खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी अपना प्रभाव रखता है। इसलिए आदमी पूरी तरह से सो भी नहीं पाता। सोकर भी वह स्वप्न में खो जाता है। सोकर वह यात्राएं करने लगता है। स्वप्न में ही उठकर चलने लगता है। स्वप्न में ही मन के भटकाव को मुक्ति देने का प्रयास करता है और कभी-कभी तो सो भी नहीं पाता। पूरी रात स्वप्नों में ही गुजार देता है और करवट पर करवट बदलकर अपनी जिंदगी के कुछ क्षण को, समय को काट लेता है।
              वैसे तो मनुष्य पूरी व्यवस्थाओं के साथ जन्म लेता है। जब वह जन्म लेता है तो प्रेम के अनुग्रह का अथाह सागर उसके लिए उमड़ पड़ता है, पर जैसे-जैसे उसकी दुनिया बढ़ती जाती है, वह अपने जीवन के प्रश्नों के समाधान में उलझ जाता है। मांग बढ़ती जाती है। प्रश्नों का चक्रव्यूह बढ़ता जाता है। चाहतें बढऩे लगती हैं। समाधान की खोज में यात्राएं होती रहती हैं। किसी स्थूल यात्रा को वह पूरा कर लौट आता है। तो किसी में उलझ कर छोड़ आता है। आदमी के प्रश्न भी अनेक तरह के हैं और समाधान के मार्ग भी भिन्न तरह के हो जाते हैं। आदमी की कई तरह की चाहत है। कोई धन से प्यार करता है, कोई पद प्रतिष्ठा से, तो कोई कला से प्रेम कराने लगता है। इस प्रकार मन के कहने पर वह हर काम करता है, लेकिन बाद में उसे यह अहसास होता है कि मन के कहने पर वह जो भी करता है, अंतत: हाथ कुछ नहीं आता। मन की नीरसता व रिक्तता दूर नहीं होती। यह रिक्तता तो ध्यान से ईश्वर की शरण में जाने से ही पूरी हो सकती है।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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