Monday, October 27, 2014

जीवन की सार्थकता |

                क्या हम जानते हैं कि दुनिया में किस प्रकार से रहना चाहिए? इस पार्थिव जीवन के अतिरिक्त क्या कोई अन्य जीवन है, जो लौकिक न होकर पारलौकिक है? इस संसार का जीवन तभी सार्थक हो सकता है, जब वह उस पारलौकिक जीवन की एक कड़ी हो, अन्यथा अगर इहलौकिक जीवन सिर्फ इस लोक का है, यहां प्रारंभ होकर यहीं समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन पैदा होना और मिट्टी में मिल जाना है, इसके सिवा कुछ नहीं।
               हमारा यह जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है, जब हम इस भौतिक जीवन के आगे जो कुछ है, उसके लिए इस जीवन को तैयारी का अवसर मानें। अगर यह जीवन अपने आप में स्वतंत्र है, किसी भावी जीवन की तैयारी नहीं है, तो यह व्यर्थ है। हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यथार्थ सत्ता शरीर की है या आत्मा की। जैसे-जैसे हम ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते जाते हैं, वैसे -वैसे यह सिद्ध होता जाता है कि हमारा ज्ञान आत्मा का ज्ञान है। भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इन्द्रिय युक्त भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते हैं। इन्द्रियों का जीवन विषय भोग के लिए है, ऐसे में मनुष्य किसी दिशा में न जाकर जीवन के मार्ग में भटक जाता है।
               जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य किसी संदेह के बगैर अपनी जीवन नैया उस ओर खेने लगता है। यदि उसे दिशाभ्रम हो जाए, तो हर समय वह संदेह में पड़ा रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है, सही रास्ता क्या है। अगर यही जीवन सब कुछ है और परमार्थ कुछ नहीं, तो यह सोच कर वह भौतिकवादी होने लगता है, परंतु यह भौतिक जीवन अंतिम अवस्था नहीं है। यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है। यदि यह दृष्टिकोण अपना लिया जाए तो हम आाध्यात्मिक मार्ग पर चल सकते हैं। मनुष्य जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों का होना अनिवार्य है। भौतिकता साधनों के लिए है और आध्यात्मिकता साध्य है।
               अतः जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर आत्मिक जीवन के विकास के लिए प्रयास करें।
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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