Thursday, October 16, 2014

प्रेम |

                      प्रेम एक ऐसा शब्द है, जिसके अनगिनत आयाम हैं। लिखने वालों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है, पर यह विषय कभी भी चुका नहीं है। हर पीढ़ी ने इसको अपने-अपने तरीके से इसकी व्याख्या की है, परंतु अनवरत रूप से और भी नए-नए ढंग से इसके व्याख्यायित होने की संभावनाएं कभी समाप्त नही होने वाली हैं।
                     राधा-कृष्ण के अमर प्रेम ने धर्मो की आपसी सीमाएं तोड़ रखी हैं। हिंदू और मुस्लिम साहित्यकारों ने इस दिव्य प्रेम का अपने-अपने ढंग से बखान किया है। प्रकृति और पुरुष के सनातन प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति हैं-राधा-कृष्ण का प्रेम, जिसके आध्यात्मिक पहलुओं को श्रीमद्भागवत में बखान किया गया है।
                    प्रेम को स्त्री-पुरुष की दैहिक सीमाओं से बांधना प्रेम के वास्तविक सत्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। प्रेम को जब भी किसी सीमा में बांधा जाता है, प्रेम हल्का हो जाता है, समझौतों में दम तोड़ने लगता है और तमाम सामाजिक विसंगतियों को जन्म देता है।
                    सच्चा प्रेम आकाश के सदृश विस्तृत होता है, अपेक्षाओं से परे होता है और सिर्फ देते रहने के लिए प्रतिबद्ध होता है। प्राणी का प्रभु से प्रेम, प्रेम का अत्यंत उदात्त स्वरूप है। जब यह वास्तविक स्वरूप में हमारे जीवन में घटता है तो परमानंद जन्मता है। प्रेम की व्याख्या उसी तरह नहीं की जा सकती जिस तरह परम आनंद की अनुभूति को शब्दों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता, यह तो महज अनुभव करके ही जाना जा सकता है। प्राणी का परमात्मा से प्रेम आध्यात्मिक चेतना का सर्वोत्तम फल है। इस फल को जो भी चख पाता है, वही प्रेम के सच्चे मायनों को पूर्णतया समझ पाता है। प्रेम ईश्वर की तरह अनंत और अनादि है। ऐसा प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है और उसे अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की दरकार नहीं होती, वह तो अनुभूति का सागर होता है। इस अनुभूति के सागर में जो भी कभी डूबा, उसने कभी बाहर नहीं आना चाहा। वस्तुत: प्रेम का रसायन शास्त्र (केमिस्ट्री) विलक्षण है। इस केमिस्ट्री में दो चेतन तत्वों की भावनाएं मिलकर एक हो जाती हैं। प्रेम की इस केमिस्ट्री में अचेतन तत्वों को भी शामिल किया गया है। पहाड़, समुद्र, झरने और प्रकृति के अनेक रूप हैं, जो हमें प्रकृति प्रेम की ओर आकर्षित करते हैं।
                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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