Wednesday, July 31, 2019

गुरु-15

गुरु-15
       शहद निकालने वाले एक साधारण से मनुष्य से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा ग्रहण कर उसको अपना गुरु माना है। वे कहते हैं कि संसार में रहने वाला प्रत्येक मनुष्य न जाने क्या सोचकर धन संग्रह में लगा हुआ है। न तो वह उस धन का भोग करता है और न ही उसका दान। ऐसे में कोई अन्य व्यक्ति उसके धन को उसी प्रकार चुरा कर ले जाता है जैसे मधुमक्खी के द्वारा संग्रहित किये हुए मधु को शहद निकालने वाला व्यक्ति ले जाता है।इस संचित धन का सदुपयोग साधुओं और ब्रह्मचारियों को भोजन कराके भी किया जा सकता है। कहा भी गया है कि-
या धन की गति तीन है, दान भोग और नाश।
     धन की केवल उपरोक्त तीन प्रकार की गतियाँ ही होती है। लक्ष्मी चंचला है, एक जगह टिक कर नहीं रह सकती, सदैव गतिमान बनी रहती है।अतः संचित धन का अपने सुख के लिए उपयोग कर लेना अच्छा है और सबसे अच्छा है, जरूरतमंद को दान कर देना,नहीं तो उसका नाश होना निश्चित है। शहद निकालने वाले से हमें यही ज्ञान मिलता है।
          एक ऋषि हुए हैं, ऋष्यश्रृंग। कहा जाता है कि उनका जन्म एक हरिनी के गर्भ से हुआ था।वे ऋषि विभांडक के पुत्र और कश्यप ऋषि के पौत्र थे।एक बार ऋषि विभांडक ने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से स्वर्ग के देवता बड़े चिंतित हुए।उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को उनके पास भेजा गया। उर्वशी ने विभांडक को अपने रूप जाल में फंसा लिया। विभांडक के संसर्ग से  उर्वशी गर्भवती हो गई। उसने अपने गर्भ को एक हरिनी के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया और स्वयं स्वर्ग को लौट गई।उस हरिनी के गर्भ से ऋष्यश्रृंग ने जन्म लिया। इस शिशु के सिर पर हरिन की तरह ही सींग था, इसी कारण से इनका नाम ऋष्यश्रृंग रखा गया। यही ऋष्यश्रृंग वही श्रृंगी ऋषि हैं जिनको दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में मुनि वशिष्ठ के माध्यम से आमंत्रित किया था।गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्री रामचरित मानस में इस बात का वर्णन भी है।
           विभांडक ने अपने साथ हुए छल के कारण, अपने पुत्र ऋष्यश्रृंग को बाल्यकाल से ही स्त्रियों से दूर रखा। उनकी स्त्री-पुरुष में कोई भेद दृष्टि थी ही नहीं। वे दोनों को एक समान ही समझते थे।ऋष्यश्रृंग ने बहुत घोर तपस्या की थी। उनका हरिनी के गर्भ से जन्म लेने के कारण उनका स्वभाव भी एक हरिन जैसा ही था।
            हरिन जब व्याध द्वारा वंशी वादन किया जाता है, तो वह उसकी मधुर तान सुनकर उसमें आसक्त हो जाता है।हरिन वंशी की धुन को ठिठक कर खड़ा होकर सुनने लगता है। व्याध इसी अवसर की ताक में रहता है और उसका शिकार कर लेता है। एक दिन ऋष्यश्रृंग भी इसी प्रकार स्त्रियों के विषय संबंधी गीत-संगीत और नाच-गाने पर मोहित होकर अध्यात्म मार्ग से नीचे गिर कर पतन को प्राप्त हो गए थे। स्त्री संग उन्हें अध्यात्म पथ से भटका गया।वह बात अलग है कि समय रहते वे सचेत हो गए और पुनः अपनी साधना में लीन हो गए।
      दत्तात्रेय हरिन को अपना गुरु मानते हुए कहते हैं कि वनवासी सन्यासी को कभी भी विषय संबंधी गीत नहीं सुनने चाहिए अन्यथा उसका ऋष्यश्रृंग की तरह पतन होना निश्चित है।एक सन्यासी को सदैव अपने आपको ऐसे किसी भी गीत-संगीत से दूरी बनाए रखनी चाहिए जिसमें विषय रस की गंध आने का आभास होता हो। हरिन केवल अपने उसी स्वभाव के कारण अपना जीवन खो बैठता है। श्रवण सुख को त्याग देना ही एक आध्यत्मिक पुरुष के लिए श्रेष्ठ है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 30, 2019

गुरु-14

गुरु-14
           दत्तात्रेयजी ने साथ ही साथ भौंरे की  ही एक अन्य प्रजाति मधुमक्खी के बारे में कहते हैं कि उससे हमें यह सीख मिलती है कि कभी भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करना चाहिए। मधुमक्खी रात दिन मेहनत कर शहद का संग्रह करती है,परन्तु उसका किया हुआ यह मधु-संग्रह कोई अन्य जीव ही चुरा ले जाता है।इस प्रकार मधुमक्खी का केवल संग्रहित शहद ही उसके हाथ से नहीं निकलता बल्कि कई बार उसका जीवन भी दांव पर लग जाता है।अतः मधुमक्खी से सीख लेते हुए साधु को भी संग्रह करने की भावना से सदैव दूर रहना चाहिये।
     दत्तात्रेय के अगले गुरु है, हाथी। हाथी, पृथ्वी पर रहने वाला विशालतम प्राणी, जिसकी देह के बल की तुलना किसी अन्य प्राणी से नहीं कि जा सकती। इतना बलवान जीव भी अपनी आसक्ति के कारण शिकारियों के जाल में फंस जाता है।शिकारी को जब किसी हाथी को पकड़ना होता है, तो वे एक विशाल और गहरा गड्ढा खोदते हैं। उस गड्ढे को विभिन्न प्रकार के वृक्षों की टहनियों से ढक दिया जाता है। उस पर कागज़ की बनी एक हथिनी को खड़ा कर दिया जाता है। बलवान हाथी स्पर्श सुख प्राप्त करने के लिए उस कागज़ की हथिनी को वास्तविक हथिनी समझकर उस गड्ढे की तरफ खींचा चला आता है। टहनियां उस हाथी का वजन सहन नहीं कर पाती है, वे टूट जाती है और बलवान हाथी उस गहरे गड्ढे में गिर जाता है। बहुत प्रयास करने के बाद भी वह उससे बाहर नहीं निकल पाता। कई दिन की भूख-प्यास से बलवान हाथी भी निर्बल हो जाता है और शिकारी उसको पकड़ कर फिर उसका यथोचित उपयोग करते हैं।
       ठीक इस हाथी की तरह ही मनुष्य भी स्त्री का स्पर्श सुख पाने को सदैव आतुर रहता है। हाथी से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि स्वप्न में भी कभी काठ की स्त्री का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए अन्यथा उसका पतन होना निश्चित है। अतः विवेकवान पुरुष को एक स्त्री को कभी भी भोग्या रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए, नहीं तो वह या तो उस स्त्री के जाल में फंस कर अधोगति को प्राप्त होगा, नहीं फिर किसी अन्य मनुष्य के हाथों प्रतिस्पर्धी के रूप में जीवन खो बैठेगा। हथिनी से स्पर्श सुख का अधिकार प्राप्त करने के लिए हाथियों में  प्रतिस्पर्धा होती है जिसमें एक हाथी ही विजयी हो पाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, July 29, 2019

गुरु-13

गुरु-13
           कामिनी का प्रभाव इतना तेज होता है कि बड़े से बड़े संत भी इनसे मुक्त हो चुके हों, कहा नहीं जा सकता। इसीलिए संतों ने सदैव कामिनी से सतर्क रहने को कहा है। स्त्री के हाव भाव से आकर्षित हो व्यक्ति कभी भी अपना संयम खो सकता है।पतंगे से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हम उसकी तरह रूप के आकर्षण में अपना पतन न कर बैठें।अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए स्त्री को केवल भोग्या ही न समझें।जब हम स्त्री को केवल भोग्या ही समझ बैठते हैं, समस्या तभी पैदा होती है। प्रत्येक स्त्री को देवी और मातृ स्वरूप समझें।सबसे उचित तो यही है कि कामिनी के संपर्क में आने से सदैव बच कर रहा जाए।
        स्वामी विवेकानंद जब शिकागो(सं.रा. अमेरिका) की यात्रा पर थे तब उन्होंने वहां पर विश्व धर्म सम्मेलन में शानदार और प्रभावी भाषण दिया था। उनके विचार व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता देखकर एक अति सुंदर स्थानीय महिला उनपर मोहित हो गई थी। वह स्त्री उनके पास पहुंची और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। स्वामीजी ने विवाह करने के पीछे उसकी मंशा पूछी तो उस महिला ने कहा कि मैं आपके जैसा ही एक पुत्र चाहती हूँ। स्वामी विवेकानन्द ने कहा-"माते, आप मेरे जैसा ही पुत्र चाहती हैं न, तो फिर विवाह करनेका झंझट ही क्यों करती हैं?आज से आप मेरी माँ हुई और मैं आपका पुत्र।"
           हाँ, स्वामी विवेकानन्द जी की दृष्टि में जो स्थान एक स्त्री का था, वैसा स्थान प्रत्येक मनुष्य के भीतर स्त्री का होना चाहिए, तभी पतन से बचा जा सकता है। आइए!आगे चलते हैं, गुरु भंवरे के पास।
       भौंरा जिस प्रकार विभिन्न फूलों से रस ग्रहण कर अपना पेट भरता है, उसी प्रकार एक साधु को चाहिए कि वह किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार पर आश्रित नहीं रहे बल्कि कई परिवारों से जो भी मिले, खाकर अपना पेट भर ले।साथ ही यह भी ध्यान रखे कि भंवरे की तरह एक ही फूल पर आसक्त न हो। जैसे भंवरा एक फूल के रस में आसक्त हो जाता है तब उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि सूर्यास्त होने वाला है। सूर्यास्त होते ही फूल की पंखुड़ियां बन्द हो जाती है और भौंरा उसमें कैद होकर अपना जीवन गंवा बैठता है।
        जिस प्रकार भौंरा विभिन्न फूलों से रस ग्रहण करता है वैसे ही हमें विभिन्न शास्त्रों से शिक्षा का सार ग्रहण करनी चाहिए।हमें शास्त्रों का मंथन करते हुए मक्खन से मतलब रखना चाहिए, केवल छाछ पा लेने का क्या लाभ?संत कबीर ने सत्य ही कहा है-
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, July 28, 2019

गुरु-12

गुरु-12
       अजगर से शिक्षा लेकर दत्तात्रेयजी समुद्र को अपना दसवां गुरु बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को समुद्र की तरह धीर,गंभीर और मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए। समुद्र में अथाह जलराशि होती है, विभिन्न प्रकार की लहरें उसमें उठती, ऊंचाइयों को छूती और फिर गिरती रहती है परंतु समुद्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र में संसार की समस्त नदियों का जल आकर गिरता रहता है, गर्मी में उसका पानी वाष्प बनकर उड़ता रहता है और बादल बन दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरस जाता है, फिर भी उसके जल के स्तर में कोई बढ़त घटत नहीं होती। वह कभी भी अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता।इसी प्रकार मनुष्य को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में न तो अधिक उत्साहित होना चाहिए और न ही उनके वापिस खो जाने पर क्षोभ ही होना चाहिए।
         साथ ही समुद्र से हमें यह शिक्षा भी ग्रहण करनी चाहिए कि हमारे हृदय के भाव उसकी जल राशि की तरह गंभीर,अथाह,अपार और असीम होने चाहिए।प्रत्येक अवस्था में क्षोभ रहित रहकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए।समुद्र में डाली हुई प्रत्येक वस्तु को समुद्र अपने किनारे पर लौटा देता है, उसी प्रकार जितना भी हमने संसार से प्राप्त किया है, वापिस संसार को लौटा देना चाहिए।
        दत्तात्रेयजी के अगले गुरु हैं, पतंगा। पतंगा वह प्राणी है, जो जलते दीपक की लौ पर मोहित होकर उसमें आ गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। दीपक की लौ का रूप उसे कोसों दूर से आकर्षित करता है। उस आकर्षण के प्रभाव से वह अपनी सुध बुध खो बैठता है और अपनी आसन्न मृत्यु की कल्पना भी नहीं करता है।इसी प्रकार इंद्रियों को वश में न रख पाने वाला व्यक्ति स्त्री के रूप पर मोहित होकर अपनी सुध बुध खोकर लट्टू हो जाता है और पतंगे की तरह अपना पतन कर बैठता है।वास्तव में स्त्री परमात्मा की वह माया है जिसके जाल में मनुष्य सरलता से फंस जाता है।सत्य है कि जो मनुष्य कंचन और कामिनी के मोह से बाहर नहीं निकल सकता वह कभी भी संसार के आवागमन से मुक्त भी नहीं हो सकता।कंचन और कामिनी दोनों की एक विशेषता है कि मनुष्य उनको भोगने के लिए लालायित रहता है । इस भोग के प्रति आसक्त होकर वह उस पतंगे की तरह अपना जीवन नष्ट कर बैठता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, July 27, 2019

गुरु-11

गुरु-11
       कबूतर से अतिमहत्वपूर्ण सीख लेकर अब चलते हैं, अजगर की ओर, जिसे दत्तात्रेयजी ने अपना नवाँ गुरु माना है।अजगर के बारे में मलूकदास जी ने कहा है-
अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
      अजगर के पास देह का बल भी होता है,फिर भी वह उदरपूर्ति के लिए कहीं भी बाहर नहीं जाता। प्रारब्धवश जो कोई भी उसकी पकड़ में आ जाता है, उसी को अपना निवाला बना लेता है। उसे देवयोग से जो कुछ भी मिल जाता है उसी में संतुष्ट रहता है।वह महीनों ही भूखा पड़ा रहा सकता है,फिर भी निश्चेष्ट होकर एक खोह में दुबका रहता है।सभी पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। इसी प्रकार मनुष्य भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार वर्तमान जीवन में सुख दुःख को प्राप्त होता है।जो व्यक्ति सुख दुःख प्राप्त होने के रहस्य को जान जाता है, वह फिर इनको प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर कोई चेष्टा नहीं करता। कर्म-रहस्य को समझना ही शांति को प्राप्त करने का मूलमंत्र है।अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि बिना कुछ मांगे, बिना किसी कामना और व्यर्थ के प्रयास से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसको पाकर संतुष्ट रहे। संतोष ही शांतिपूर्वक जीवन का आधार है।
       मनुष्य के पास देहबल, मनोबल और इन्द्रीयबल, तीनों बल होते हैं, वह अपनी कामना को पूरा करने के लिए बहुत अधिक सीमा तक प्रयास भी कर सकता है। परंतु उसका यह प्रयास फिर से नए कर्मों के प्रारब्ध का निर्माण करेगा और फिर वह इस मानव जीवन को भी व्यर्थ ही गंवा देगा। इस प्रकार उसे कभी भी मुक्त होने का अवसर नहीं मिल पायेगा।
       कर्म करेंगे तो फल भी मिलेगा और प्रारब्ध भी बनेगा। मनुष्य में सभी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय रहती है फिर भी जीवन में सुख पाने की आशा करते हुए वह व्यर्थ की चेष्टाओं में रत हो जाता है। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मैंने अजगर से यही सीख ली है कि व्यक्ति को प्रारब्धवश जो भी मिले उसमें संतुष्ट हो जाना चाहिए तथा और अधिक पाने की आशा में व्यर्थ के कर्म करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, July 26, 2019

गुरु-10

गुरु-10
       कबूतर परमात्मा की मायाशक्ति से सम्पूर्ण रूप से बंध चुका था।दिन-रात केवल अपनी पत्नी और बच्चों का ही चिंतन।परंतु विधि का विधान देखिए, सब जीव उसी के तो वश में है। एक दिन कबूतर युगल अपने बच्चों के लिए दाना पानी लाने गए हुए थे और पीछे से उस पेड़ के नीचे आकर एक बहेलिए ने अपना जाल फैला दिया, जिस पेड़ पर उस कबूतर का घौंसला था। कबूतर के बच्चे तो आखिर बच्चे ही थे। उन्होंने कभी बहेलिए और उसके जाल को देखा तक नहीं था। प्रतिदिन की तरह उस दिन भी घौंसले से बाहर निकले और नीचे आकर फुदकने लगे। फुदकते फुदकते आखिर बहेलिए के जाल में आकर फंस ही गए। जाल में फंसकर बच्चे उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे और अपनी चोंच को खोलकर सहायता के लिए जोर जोर से चीं चीं करते हुए अपनी मां को पुकारने लगे।कबूतरी कुछ ही दूरी पर थी, पुकार सुनकर बच्चों के पास तुरंत ही उड़ आई। उसने अपने बच्चों को बहेलिए के जाल में फंसा देखा और ममता के मोह में अपना विवेक खो बैठी। उनको जाल के बंधन से मुक्त कराने के प्रयास में वह खुद ही जाल में उलझ गई।
       थोड़ी ही देर बाद कबूतर भी मुँह में दाना दबाए अपने घर लौटा। उसने देखा कि उसकी पत्नी और बच्चे बहेलिए के जाल में जकड़े जा चुके हैं। वह व्याकुल होकर विलाप करने लगा। "हाय!अब उसका क्या होगा?अपनी प्रिया और बच्चों के बिना मेरा शेष जीवन कैसे बीतेगा? अभी तक तो मेरी जीवन की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई, मेरा गृहस्थ जीवन बसने से पहले ही उजड़ गया। बिना पत्नी के विधुर का जीवन भी क्या कोई जीवन होता है? ऐसे विधुर के जीवन में जलन और व्यथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।" इस प्रकार विलाप करता हुआ यह जानते हुए भी कि उसकी पत्नी और बच्चे मृत्यु के मुख में है, वह मूर्ख कबूतर भी बहेलिए के जाल में कूद पड़ा और फंस गया। कबूतर के पूरे परिवार को जाल में फंसा देखकर बहेलिया बड़ा प्रसन्न हुआ और सबको ले चलता बना।
       दत्तात्रेयजी राजा यदु को कह रहे हैं कि राजन्! इस कबूतर से मैंने यह शिक्षा ली है कि किसी के साथ भी अत्यधिक स्नेह और आसक्ति नहीं करनी चाहिए अन्यथा उसकी बुद्धि स्वतंत्रता खोकर दीन हो जाएगी जिससे उसको एक दिन कबूतर की तरह अपना जीवन तक खोना पड़ जायेगा।जो व्यक्ति अपने कुटुम्बियों, विषयों आदि के सुख में ही आसक्त रहता है, वह एक दिन सुध बुध खोकर अपने जीवन में शांति तक को खो बैठता है।यह मनुष्य जीवन मुक्ति का द्वार है परंतु व्यक्ति गृहस्थाश्रम के सुख में खोकर अपना लक्ष्य भूल जाता है और पतन को प्राप्त होता है।इसलिए वीतरागी पुरुष को स्नेह का त्याग करना चाहिए, यही मोक्ष का साधन है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, July 25, 2019

गुरु-9

गुरु-9
         एक विशाल घना जंगल था।इस जंगल में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी निवास करते थे।इस जंगल में कई शिकारी शिकार करने के लिए भी चले आया करते थे। उसी जंगल में एक कबूतर भी रहा करता था। वह जीवनसाथी की तलाश में इधर उधर भटक रहा था। अन्ततः उसकी तलाश पूरी हुई और उसे अपने योग्य एक कबूतरी मिल ही गयी। अब वे दोनों, कबूतर और कबूतरी उसी जंगल में प्रेमपूर्वक रहने लगे। कबूतर का प्रेम कबूतरी के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। वह उसका पूरा ध्यान रखता था और उसकी प्रत्येक इच्छा पूरी करता था। कहने का अर्थ है कि वह कबूतरी के प्रति पूर्ण रूप से आसक्त हो गया था।समय पाकर कबूतरी ने गर्भधारण किया। कबूतर युगल ने अपना घौंसला बनाया। गर्भकाल पूरा होने के बाद कबूतरी ने घौंसले में अंडे दिए। अंडे देने के बाद कबूतरी उन अंडों को परिपक्व करने के लिए उन पर बैठी रहती। वह अपने घौंसले से बाहर कहीं आ जा नहीं सकती थी, यहां तक कि चुग्गा पानी के लिए भी नहीं। उसके चुग्गे पानी की व्यवस्था भी कबूतर को करनी पड़ती थी।
             कुछ समय उपरांत अंडों से प्यारे प्यारे बच्चे निकल आये।कबूतर युगल अपने बच्चों से बहुत प्यार करते थे। वे दोनों अपने बच्चों के पास बैठकर उनका स्पर्श पाकर बड़े खुश होते थे। अपने बच्चों के कोमल पंख और उनका फुदकना देखकर वे अपनी सुध बुध तक खो बैठते थे।दोनों अपने बच्चों के लिए दिन भर चुग्गा पानी की व्यवस्था करते और उनको खिला पिलाकर बड़े प्रसन्न होते। रात को दोनों अपने बच्चों को अपने सीने से लगाकर विश्राम करते। इस प्रकार धीरे धीरे दोनों का अपने बच्चों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा था। दोनों ही उनके साथ मोह के बंधन में बंध गए थे।अब एक क्षण के लिए भी कबूतर का अपनी पत्नी कबूतरी व बच्चों से वियोग सहन नहीं होता था।वास्तव में देखा जाए तो कबूतर कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे, भगवान की माया है ही बांधने वाली।अगर यह माया न हो तो संसार-चक्र चल ही नहीं सकता। माया के बंधन में बंधा जीव अपने शरीर के रहते मुक्त हो ही नहीं सकता और अनंतकाल तक संसार के आवागमन चक्र में भटकता रहता है। इसीलिए कबीर ने माया को महाठगिनी कहा है। माया के जाल में उलझने से कोई विरला ही बच सकता है, भला कबूतर जैसे भोले भाले प्राणी के उलझने से बचने के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, July 24, 2019

गुरु-8

गुरु-8
      चंद्रमा अंतरिक्ष में भ्रमण करने वाला पृथ्वी का ही उपग्रह है। चंद्रमा की कलाएं काल के प्रभाव से सदैव घटती बढ़ती रहती है, परंतु उस पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।वह सदैव ही ज्यों का त्यों बना रहता है।इसी प्रकार मनुष्य के शरीर की जन्म से लेकर मृत्यु तक, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाएं आती है,फिर भी आत्मा पर इन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।चंद्रमा से यह शिक्षा ग्रहण कर मनुष्य अपने आपको इन अवस्थाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त बनाये रख सकता है।जिस दिन हम जीवन की इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेंगे तब इस शरीर को अपना मानना ही छोड़ देंगे।शरीर की अवस्थाओं के आधार पर हम कहते रहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ अथवा मैं बूढ़ा हो गया हूँ परंतु बालक, युवा और बूढ़ा होना शरीर के साथ घटित हुआ है, "मैं" अर्थात आत्मा तो सदैव एक सा ही बना रहता है, शरीर की विभिन्न अवस्थाएं उसे छू तक नहीं सकती।
        चन्द्रमा पर काल के प्रभाव से ग्रहण भी लगता रहता है परंतु क्या चंद्रमा इनसे कभी प्रभावित होता है?नहीं, बिल्कुल भी नहीं होता। उसी प्रकार मनुष्य को भी सम विषम परिस्थितियों से अप्रभावित बने रहना चाहिए।चंद्रमा हमें जीवन की इस वास्तविकता का ज्ञान कराता है जिसे आत्मसात करना हमारे लिए हितकर है।
              सातवां गुरु है, सूर्य।सूर्य अपनी किरणों से जलाशयों से जल ग्रहण कर बादल का निर्माण करता है और फिर आवश्यकता वाले स्थान पर जल का त्याग कर बरसात करा देता है। मनुष्य को सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि वह भी इंद्रियों से जो भी विषय समय समय पर ग्रहण करता है, उनका भी समय आने पर त्याग और दान कर देना चाहिए, उन विषयों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। हम विषयों को ग्रहण तो करते हैं, परंतु उनमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण हमसे उन विषयों का त्याग करना असंभव हो जाता है।
         सूर्य का प्रतिबिंब विभिन्न जल भरे पात्रों में अलग अलग दिखलाई पड़ता है परंतु वास्तव में  सूर्य एक ही है, उसी प्रकार हमें भी यह समझना चाहिए कि विभिन्न प्राणियों में अलग अलग दृष्टिगत होने वाली आत्माएं भिन्न भिन्न न होकर सबमें एक ही आत्मा निवास करती है।सभी प्राणियों के शरीर भिन्न भिन्न हो सकते हैं परंतु सभी में वही एक आत्मा निवास करती है।
        सीख लेने की मन में इच्छा हो तो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी किसी भी बात से ग्रहण की जा सकती है। अब देखिए, कबूतर जैसा भोला भाला प्राणी भी दत्तात्रेयजी को सीख देकर उनका आठवां गुरु बन गया।  कैसे? चलो देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 23, 2019

गुरु-7

गुरु-7
     दत्तात्रेयजी का चौथा गुरु है, जल।जल का शरीर निर्माण में काम आने वाले पांच तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान है।जल स्वभाव से ही शुद्ध,चिकना,मधुर और पवित्रता प्रदान करने वाला है।जल के स्वभाव की तरह ही मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।मनुष्य का हृदय शुद्ध हो, वाणी में स्पष्टता और मधुरता हो तथा अंतर्मन पवित्र हो, तभी वह संसार में सबका प्रिय होगा।जल सभी को पवित्र करने वाला होता है तभी गंगा सहित सभी नदियों में लोग स्वयं को पवित्र करने के लिए डुबकी लगाने को आतुर रहते हैं।इसी प्रकार जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला भी स्वयं के दर्शन,स्पर्श और नाम के उच्चारण से सबको पवित्र करने वाला होता है।
           दत्तात्रेयजी का पांचवा गुरु है, अग्नि।अग्नि तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है। अग्नि को कोई भी अपने तेज से किसी भी प्रकार दबा नहीं सकता। अग्नि के पास संग्रह-परिग्रह के लिए कुछ भी नहीं होता, सब कुछ अपने पेट में  ही समाहित कर लेती है फिर भी उस वस्तु के दोष-गुण ग्रहण नहीं करती उसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि वह भी तेजस्वी, साधना करता हुआ देदीप्यमान बने।वह केवल भोजन मात्र का ही संग्रही हो, किसी के भी दोष-गुण से प्रभावित न हो और सभी इंद्रियों का समुचित उपयोग करते हुए विषयों से निर्लिप्त रहे।
           अग्नि का एक और गुण है कि वह प्रकट भी होती है और अप्रकट भी रहती है। इससे हमें यह सीख लेनी चाहिए कि साधक आवश्यकता हो तब प्रकट हो जाए अन्यथा सबके मध्य रहते हुए भी गुप्त रूप से रहे। उसका प्रकट होना तभी लाभदायक है, जब कल्याण की भावना रखने वाले व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेना चाहते हों अन्यथा उसे सदैव अपने आपको अप्रकट ही रखना चाहिए।
       अग्नि विभिन्न स्रोतों में उसी के आकार में आड़ी, टेढ़ी, चौड़ी और सपाट रूप से प्रकट होती है,लेकिन वास्तव में वह वैसी होती नहीं है।इसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि संसार में जिनके मध्य वह निवास करता है, उन्हीं के अनुरूप दिखलाई पड़े परंतु भीतर से वह अपना आध्यत्मिक स्वभाव बनाये रखे।जिस प्रकार अग्नि यज्ञ में आहुति लेकर सब कुछ अशुभ को भस्म कर देती है उसी प्रकार साधक को भी कल्याण की इच्छा रखने वाले के सभी अशुभ को समाप्त कर देने का प्रयास करना चाहिए।
      इस प्रकार दत्तात्रेयजी महाराज ने एक एक कर पांचों भौतिक तत्वों से शिक्षा प्राप्त कर अपना गुरु माना है।अब हम स्थूल शरीर के तत्वों से बाहर निकलकर चलते हैं, अंतरिक्ष में स्थित चंद्रमा की ओर, जो कि उनका छठा गुरु है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, July 22, 2019

गुरु-6

गुरु-6
       "आकाश सर्वत्र उपस्थित है", भला इसमें सीखने की क्या बात हुई? हाँ इस से भी सीखा जा सकता है, बस आवश्यकता है, बुध्दि के उपयोग में लेने की। हम सब जानते हैं कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है परंतु इस बात से भी एक महत्वपूर्ण सीख मिलती है। घड़े में स्थित आकाश घटाकाश कहलाता है,किसी मठ में स्थित आकाश मठाकाश कहलाता है परंतु वास्तव में आकाश एक ही है, वह अपरिच्छिन्न यानि अखण्ड है। इसी प्रकार चर-अचर प्राणियों के विभिन्न रूप होते हुए भी सब में एक समान ही ब्रह्म उपस्थित है, सबमें वही एक परमात्मा निवास करते हैं।आकाश से हमें यह ज्ञान मिलता है।
        इतने विवेचन के बाद घड़े और मठ में जो आकाश दिखलाई देने लगा है, उसका कारण घड़े और मठ की मिट्टी से बनी दीवारें है, जो इनमें और शेष बाहर के आकाश में भेद करती दिखलाई देती है। वास्तव में देखा जाए तो बाहर और भीतर के आकाश में किसी प्रकार का कोई विभाजन है ही नहीं और न ही कभी किया जा सकता है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अखण्ड है केवल पांच तत्वों से बने शरीर के कारण भिन्न भिन्न प्रतीत हो रहा है। ये स्थूल शरीर ही निराकार ब्रह्म को साकार रूप से प्रकट करते हैं। शरीर मिलते ही यही ब्रह्म केवल राम, कृष्ण, बुद्ध आदि में ही नहीं बल्कि विभिन्न रूपों में प्राणियों व प्रत्येक वस्तु और स्थान में दिखलाई पड़ने लगते हैं । वास्तव में ब्रह्म सर्वत्र है तथा असीम और अखंड है।
       कहीं पर आग लगती है तो वह आकाश में  दिखलाई पड़ती है, आंधी तूफान, बरसात आती है, बादल उमड़ते घुमड़ते हैं,इतना सब कुछ होने पर आकाश इन सबसे अछूता रहता है, मानो कुछ हुआ ही न हो।इसी प्रकार भूतकाल में चाहे कुछ हुआ हो, वर्तमान में चाहे जो कुछ हो रहा हो अथवा भविष्य में  कुछ भी होनेवाला हो, आत्मा सदैव उससे अछूता ही रहेगा।आत्मा के साथ इन सब बातों का स्पर्श तक नहीं होता है। यह सीख हमें आकाश से ही मिलती है।
       परंतु हम अपने जीवन को ठीक इसके विपरीत होकर जीते हैं। संसार में होने वाली प्रत्येक घटना हमें प्रभावित करती है। हम या तो भूतकाल में विचरण करते रहते हैं या भविष्य की कल्पना में खोए रहते हैं।वर्तमान में कभी जीते ही नहीं है।हम न तो भूतकाल में घटित किसी घटना को परिवर्तित कर सकते हैं और न ही भविष्य में घटित होने को अपने अनुसार घटित करा सकते हैं तो फिर वर्तमान को क्यों व्यर्थ के चिंतन से नष्ट करें?हमें आकाश से यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि भूत भविष्य से हम विचलित न होकर सदैव आत्मा की शुद्धता को बनाये रखें,आत्मा कभी इनसे प्रभावित हो ही नहीं सकती। हम शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को आत्मा पर होने वाला प्रभाव मान लेते है, यही गलती कर बैठते हैं और जीवन के आनंद से बहुत दूर चले जाते हैं।
       आकाश जिस प्रकार अखंड है उसी प्रकार ब्रह्म भी अखण्ड है और सभी प्राणियों में समान रूप से उपस्थित है। जिस प्रकार बादल,अग्नि,धूल इत्यादि आकाश को प्रभावित नहीं करते उसी प्रकार भूत,वर्तमान और भविष्य हमें अर्थात आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकते। ये दो महत्वपूर्ण शिक्षाएं हमें आकाश तत्व से ग्रहण करनी चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, July 21, 2019

गुरु-5

गुरु-5
       इस प्रकार भीतर की वायु से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम विषयों की ओर आवश्यकता से अधिक आसक्त न हो।जीवन में हमें उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिससे हमारे प्राण संचालित रहे तथा हमारी बुद्धि विकृत न हो, मन भी चंचल न हो और वाणी से हम व्यर्थ की बातों में भी न लगें।
    दूसरी प्रकार की वायु है, हमारे शरीर के बाहर की वायु, जो हमारे आसपास के वातावरण का ही एक भाग है। इस वायु को सदैव चारों ओर विचरण करना होता है, वह एक स्थान से दूसरे स्थान को आती जाती रहती है फिर भी वह किसी भी स्थान के गुण-दोष को आत्मसात नहीं करती, उन्हें अपनाती नहीं है और न ही उनमें आसक्त होती है।इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए।मनुष्य वायु की तरह कहीं पर भी जाय परंतु वहां के गुण दोष न अपनाए बल्कि अपनी दृष्टि केवल अपने लक्ष्य पर रखे।वायु गंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है फिर भी वह इस गुण को आत्मसात नहीं करती। गंध पृथ्वी का गुण है,वायु को तो गंध को वहन करना पड़ता है । वहन करने के बाद भी उसका गंध से नाममात्र का भी संपर्क नहीं होता है। वायु सदैव शुद्ध की शुद्ध ही बनी रहती है। ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होना चाहिए। मनुष्य को शरीर की आवश्यकता होती है, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के लिए। शरीर है तो उसे आधि-व्याधि आदि का सामना भी करना पड़ेगा, उसे शारीरिक बीमारियों को वायु की तरह गंध को भी वहन  करना होगा। ऐसे में सदैव एक ही बात बुद्धि में रहनी चाहिए कि यह सब शरीर के गुण-दोष हैं, आत्मा के नहीं। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ।अतः यह सब आधि-व्याधि आदि शरीर को तो प्रभावित कर सकती है, परंतु मुझ आत्मा को नहीं। कहने का अर्थ है कि शरीर संसार का ही एक भाग है और हमें इस संसार में रहते हुए इसके गुण-दोष नहीं अपनाने है, संसार में आसक्त नहीं होना है।स्वयं को शरीर न मानकर आत्मा मानते हुए शारीरिक गुण-दोष को आने जाने वाले मानकर विचलित नहीं होना है।इस कारण से ही दत्तात्रेयजी ने वायु से शिक्षा ग्रहण कर उसे अपना गुरु माना है।
       दत्तात्रेयजी का तीसरा गुरु है, आकाश। आकाश कहाँ नहीं है? आकाश सर्वत्र व्याप्त है।हम किसी भी वस्तुविहीन बर्तन को देखकर कह देते हैं कि वह रीता है परंतु क्या उसको रिक्त कहना उपयुक्त है?नहीं, वह बर्तन रीता है ही नहीं। वास्तव में हमारी दृष्टि उस बर्तन में वस्तु की उपस्थिति देखने की आदी हो गई है। उस रिक्त से दिखने वाले बर्तन में वस्तुविहीन होने के बाद में भी आकाश भरा पड़ा है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

गुरु-4

गुरु-4
      दत्तात्रेयजी ने कह तो दिया कि मैंने पृथ्वी से धैर्य रखने और क्षमा करने की शिक्षा प्राप्त की है परंतु धैर्य और क्षमा को जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता है,यह नहीं बतलाया । हमारा कोई भी व्यक्ति कुछ भी उपयोग करते हुए हमारे साथ उचित अनुचित व्यवहार करता है, तो हमें अपने विवेक का उपयोग करते हुए उसकी विवशता को समझना होगा।कोई भी व्यक्ति किसी के साथ तब तक अनुचित व्यवहार नहीं कर सकता जब तक कि उससे उसका कोई न कोई हित  सधता हो। स्वयं के हित के लिए ही वह आपका उपयोग करता है।ऐसे में हमारे में धैर्य की क्षमता तभी आ सकती है, जब हम सामने वाले की विवशता को समझे और साथ ही साथ इस बात को भी समझे कि यह शरीर हमें परहित के लिए ही मिला है,इससे जिसको भी कोई लाभ मिले उसके लिए इसका उपयोग हो जाना ही सबसे अच्छा है। सामने वाले की विवशता और हमारे शरीर का परहित के लिए होना, इन दो बातों को हम अपने विवेक से भली भांति समझ लें तो फिर धैर्य और क्षमा हमारे भीतर स्वतः ही पैदा हो जाएंगे।धैर्य रखने और क्षमा करने की क्षमता हमारी ही बुद्धि के अधीन है और हम उसका उपयोग करके ही इन दोनों क्षमताओं को स्वयं में विकसित कर सकते हैं।इस प्रकार दत्तात्रेयजी द्वारा पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु मान लेना उचित है।
         अब चलते हैं, दत्तात्रेयजी के दूसरे गुरु की ओर। उनका दूसरा गुरु है, वायु। शरीर निर्माण और उसके संचालन में काम आने वाले पांच तत्वों में से एक तत्व है, वायु।वायु दो प्रकार की होती है, एक शरीर के भीतर की वायु, जिस पर हमारे प्राण टिके हुए हैं और दूसरी शरीर के बाहर की वायु।शरीर के अंदर की वायु मुख्यतः प्राण कहलाती है, जिसके शरीर में आवागमन करते रहने से शरीर सक्रिय बना रहता है अन्यथा उसके रूक जाने से शरीर भी निष्क्रिय होकर अर्थहीन हो जाता है।  वैसे भीतर की वायु पांच प्रकार की होती है-प्राण,अपान,समान,उदान और व्यान। पांचों वायु अर्थात प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को सुचारू रूप से संचालित करते हैं।भीतर की वायु के संचरण होते रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है और यह ऊर्जा मिलती है, भोजन से। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि भीतर की वायु से मैंने यह सीखा है कि जितने आहार से हमारे प्राण भली भांति संचरित होते रहें, हमें उतनी ही मात्रा में भोजन ग्रहण करना चाहिए।प्रायः हम अपनी स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने के लिए आहार ग्रहण करने की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाते हैं जिससे इंद्रियों की विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है, उनको प्राप्त करने के लिए मन चंचल हो उठता है और अंततः विफल रहने पर हम अपनी वाणी पर भी नियंत्रण तक खो बैठते हैं।इस प्रकार हमारी बुद्धि  विकृत हो जाती है और हम पतन के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, July 19, 2019

गुरु-3

गुरु-3   
    हमारा यह स्थूल शरीर पांच भौतिक तत्वों से बना है, पृथ्वी,जल, वायु,अग्नि और आकाश।एक भी तत्व की कमी अथवा अनुपस्थिति स्थूल शरीर को सदैव के लिए अनुपयोगी बना देती है।इन पांच तत्वों से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा प्राप्त की है। इसी आधार पर दतात्रेय महाराज कहते हैं कि मेरी प्रथम गुरु है, पृथ्वी। पढ़ने और सुनने में यह एक साधारण सी बात प्रतीत होती है और आश्चर्य भी होता है कि क्या पृथ्वी से भी कुछ सीखने को मिल सकता है? हाँ, पृथ्वी भी हमें कुछ न कुछ सिखाती ही है,बस हमें हमारी बुद्धि और दृष्टि का उपयोग दत्तात्रेय की तरह करना होगा।
      पृथ्वी से शिक्षा मिलती है, धैर्य रखने और क्षमा करने की। संसार के अरबों खरबों प्राणी इस धरा पर निवास करते हैं। सभी अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रयास करते हैं।यह प्रयास होता है, इसी पृथ्वी पर।भोजन के लिए धरती से अनाज प्राप्त करने के लिए इसकी सतह को चीरते हुए हल चलाकर बीज बोए जाते हैं। जल प्राप्त करने के लिए इसके सीने में छेद किये जाते हैं। घर बनाने के लिए पृथ्वी पर उगे जंगल को काटकर लकड़ी प्राप्त की जाती है, पहाड़ों को तोड़कर पत्थर लिए जाते हैं। क्या पृथ्वी कभी इस बात की शिकायत करती है, क्या कभी उसको चीरे जाने पर वह रोती, चिल्लाती है ? नहीं रोती चिल्लाती, कोई शिकायत नहीं करती, क्यों? क्योंकि उसके पास इन सबको सहन करने की क्षमता है।यही उसका धैर्य है।क्या पृथ्वी कभी मनुष्य द्वारा इस प्रकार व्यवहार किये जाने पर हमसे कोई प्रतिशोध लेती है? नहीं लेती न । जब इस संसार में छोटी छोटी बातों पर प्राणी एक दूसरे से बदला लेने को आतुर रहते हैं फिर भी  क्यों प्रतिशोध नहीं लेती यह पृथ्वी ? क्योंकि पृथ्वी अपने प्रति किये जाने वाले सभी प्रकार के अपराधों को क्षमा करना जानती है। कबीर ने भी कहा है-
खोद खाद धरती सहे,काट कूट वनराय।
कुटिल वचन साधु सहे, और से सहे न जाय ।।
     इन्हीं दो क्षमताओं, धैर्य और क्षमा के कारण दत्तात्रेयजी ने पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु माना है। मनुष्य को अगर सहजावस्था को उपलब्ध होना है तो उसमें इन दो क्षमताओं अर्थात धैर्य और क्षमा का होना आवश्यक है। अगर हमें साधारण मनुष्य से ऊपर उठकर साधुत्व को उपलब्ध होना है, तो हमारे में धैर्य रखने और क्षमा करने के दोनों गुण होना आवश्यक है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, July 18, 2019

गुरु-2

गुरु-2
       दत्तात्रेय भगवान आगे उन सभी साधनों का एक एक कर के वर्णन करते हैं, जिनसे उन्होंने अपने जीवन में कोई न कोई शिक्षा ली है।इस प्रकार उन्होंने राजा यदु को अपने 24 गुरु बतलाए हैं, जो निम्न प्रकार से हैं- पृथ्वी,जल,आकाश,वायु,अग्नि,चंद्रमा,सूर्य,कबूतर, अजगर,समुद्र,पतंग, भौंरा या मधुमख्खी, हाथी, शहद निकालने वाले,हरिन, मछली,पिङ्गला वेश्या,कुरर पक्षी, बालक,कुआंरी कन्या,बाण बनाने वाला,सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट।
         दत्तात्रेय जी ने तो राजा यदु से हुए इस संवाद में अपने केवल 24 गुरुओं की चर्चा की है। 24 ही क्यों, गुरु इससे अधिक की संख्या में भी हो सकते हैं क्योंकि इस संसार में प्रत्येक वस्तु,व्यक्ति, परिस्थिति आदि से भी हमें कोई न कोई सीख मिलती रहती है और यह सीख हमें हर बार एक नया गुरु प्रदान कर देती है। हाँ, यह बात अलग है कि आधुनिक युग में हम सीख मिल सकने वाले ऐसे प्रत्येक साधन की उपेक्षा करते रहते हैं।जिसकी हम उपेक्षा करते हैं,फिर भला वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है?गुरु की कभी उपेक्षा नहीं की जाती अन्यथा हमें ज्ञान कैसे उपलब्ध होगा?
             राह चलते हुए लगी ठोकर से गिर जाना भी हमें सीख देता है कि रास्ते चलते हुए भली भांति देखते हुए संभलकर चलना चाहिए। अगर हम ठोकर लगने के बाद दुबारा ठोकर खा कर गिर जाते हैं तो इसका कारण है कि हमने पहली ठोकर  खाकर भी अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं किया, अगर किया हुआ होता तो यही एक ठोकर हमारा गुरु बनकर हमें एक सीख दी जाती।कहने का अर्थ है कि हमें इस संसार में कदम कदम पर ज्ञान मिलने के अवसर है, बस आवश्यकता है अपने विवेक का उयोग करने की, फिर संसार के प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
         महाभारतकाल का ही एक उदाहरण है, जब एकलव्य को धनर्विद्या सीखाने से गुरु द्रोणाचार्य ने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया था। एकलव्य ने सोच लिया था कि धनर्विद्या सीखूंगा तो केवल आचार्य द्रोण से ही। द्रोण के इनकार से भी उसकी सीखने की ललक कम नहीं हुई, बना ली आचार्य द्रोण की मिट्टी की मूर्ति और करने लगा उसको ही गुरु मानकर धनर्विद्या का अभ्यास।परिणाम हमारे सामने है।अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर हुआ है,एकलव्य।परंतु माने हुए गुरु की उपेक्षा नहीं की फिर भी उसने। आचार्य द्रोण ने गुरुदक्षिणा में उससे दांये हाथ का अंगूठा मांगा और तत्काल दे दिया एकलव्य ने, बिना किसी हिचक के।भले ही एकलव्य ने अर्जुन की तरह धनर्विद्या के बल पर द्रोपदी को न जीता हो, कोई युद्ध नहीं किया हो, इससे वह अर्जुन से कम धनुर्धर सिद्ध नहीं होता। अंगूठा देकर भी वह तर्जनी और मध्यमा अंगुली का उपयोग कर धनुष चला लेता था और अर्जुन से अच्छा धनुर्धर सिद्ध हुआ। आज अर्जुन के समक्ष एकलव्य को अधिक आदर के साथ याद किया जाता है।
कल से दत्तात्रेयजी के एक एक गुरु पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, July 17, 2019

गुरु-1

गुरु-1
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर जब गुरु की बात चल ही पड़ी है तो इसी बात को आगे लिए चलते हैं।श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में राजा यदु और दत्तात्रेय का संवाद है।जिसमें राजा यदु दत्तात्रेय से पूछते हैं  -
त्वं हि न: पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्।
व्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवालात्मन:।।11/7/30।।
हे ब्रह्मन्! आप पुत्र,स्त्री,धन आदि संसार के स्पर्श से रहित हैं।आप सदा-सर्वदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिवर्चनीय आनंद का अनुभव कैसे होता है?आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।
      इस श्लोक में राजा यदु का प्रश्न आत्मा में अनुभव किये जाने वाले आनंद के संबंध में है। व्यक्ति जब स्वयं अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी उसे जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हो पाता है। व्यक्ति, साधन, प्राणी अथवा कोई भी स्रोत जो हमारी संसार की ओर लगी रहने वाली दृष्टि को हमारे भीतर की तरफ मोड़कर हमें अपनी आत्मा का ज्ञान करा दे, तो हमारे जीवन में ऐसे साधन की महत्ता सर्वाधिक होगी। आत्म-ज्ञान करा देने वाले साधन को ही गुरु कहा जाता है, चाहे वह साधन कोई व्यक्ति हो अथवा अन्य।
राजा यदु के प्रश्न के उत्तर में दत्तात्रेय जी कहते हैं कि-
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोsटामीह ताञ्छृणु।।11/7/32।।
राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके ही मैं इस जगत में स्वच्छंद विचरण करता हूँ।तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो।
    अपनी बुद्धि को विवेक में परिवर्तित कर किसी भी साधन से सीख ले लेने वाला व्यक्ति ही सही मायने में शिष्य कहलाने का अधिकारी होता है।हम अपने जीवन में बार-बार गुरु बदलते रहते हैं परंतु अपने भीतर झांक कर कभी भी देखने का प्रयास तक नहीं करते हैं कि ज्ञान प्राप्त न होने में कहीं स्वयं में तो कमी नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करना आवश्यक होता है अन्यथा पहुंचा हुआ गुरु भी हमें थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं करा सकता। अतः गुरु के साथ साथ स्वयं को भी सक्रिय रहना होगा अन्यथा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में जरा सी भी प्रगति होना दूर की कौड़ी होगी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 16, 2019

गुरु वंदना

जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि कई प्रकार के उतार चढ़ाव आते जाते रहते हैं | जो व्यक्ति सभी सम-विषम परिस्थितियों से परे रहता है, प्रभावित नहीं होता, वही सही मायने में जीवन में सहज अवस्था में रह सकता है | ऐसा होना तभी संभव हो सकता है जब व्यक्ति को उचित और सही मार्गदर्शन मिले | सहजता का मार्ग दिखलाने वाले को ही गुरु कहा जाता है | जब हम अपनी बुद्धि से सीखने में विफल हो जाते हैं तब हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है | इससे विपरीत जो व्यक्ति जीवन में प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी अपनी बुद्धि के माध्यम से कुछ न कुछ सीख ग्रहण कर लेता है, वही उसका गुरु हो जाता है | कहने का अर्थ है कि माध्यम चाहे जो भी हो उनसे हम कुछ न कुछ सीख ग्रहण कर सकते हैं और वे सभी हमारे गुरु हो जाते हैं | गुरु चाहे एक हो अथवा अनेक, सभी आदरणीय, प्रातः स्मरणीय और सम्माननीय होते हैं | वे केवल एक दिन के लिए वन्दनीय नहीं होते बल्कि हमारे लिए प्रत्येक दिन उनका स्मरण करना आवश्यक है | फिर भी आज गुरु पूर्णिमा के दिन उनको विशेष रूप से स्मरण करने का अवसर मिला है | इस अवसर पर मैं अपने उन समस्त गुरुओं का ह्रदय से आभार प्रकट करते हुए उनको दंडवत प्रणाम करता हूँ |
          श्री कृष्णं वन्दे जगद्गुरु |
|| हरिः शरणम् ||
-डॉ.प्रकाश काछवाल