Thursday, August 15, 2019

अलख निरंजन

अलख निरंजन
             ‘अलख निरंजन' क्या है?
दत्तात्रेय भगवान का एक प्रचलित जयघोष है ‘अलख निरंजन’।अलख निरंजन का भावार्थ क्या है?
     "अलख" शब्द का अर्थ है, अगोचर अर्थात जिसे स्थूल दृष्टि से देखा नहीं जा सके। लख शब्द लक्ष का अपभ्रंश है।लक्ष का तात्पर्य देख पाने की शक्ति से है। अलक्ष यानी ऐसा जिसे हम सामान्य नेत्रों से देख ही न पाएं, सामान्य बुद्धि जिसे समझ ही न पाए। वह इतना चमकीला इतना तेजस्वी है कि उसे देख पाना सहज संभव नहीं।
        "निरंजन" शब्द बना है, नि: और अंजन से। अंजन कहते हैं, काजल को।काजल काला होता है।यहां काला रंग अंधकार का भाव लिए हुए है अर्थात अज्ञान।इस प्रकार निरंजन का अर्थ हुआ,अज्ञान का न होना यानि अज्ञान का नष्ट हो जाना अर्थात ज्ञान हो जाना।
       इस प्रकार ‘अलख निरंजन’ का भाव हुआ, ज्ञान का ऐसा प्रकाशमान तेज, जिसे देख पाना संभव न होते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार होना,अज्ञान की कालिमा से मुक्त होकर ज्ञान में प्रवेश करना।
             इसका एक अर्थ और भी बताया जाता है-
अघोरपंथियों के अनुसार अलख का अर्थ होता है जगाना (या पुकारना) और निरंजन का अर्थ होता है अनंत काल का स्वामी…अलख निरंजन का घोष करके वे कहते हैं- हे! अनंतकाल के स्वामी जागो, देखो हम आपको पुकार रहे हैं।
        अलख का अर्थ है अगोचर; जो देखा न जा सके।
निरंजन परमात्मा को कहते हैं। अतः 'अलख निरंजन' का अर्थ यह भी हुआ- "परमात्मा जिन्हें देखा न जा सके पर वह सब जगह व्याप्त हैं।" परमात्मा सब जगह होने की बात को विभिन्न प्रकार से कहा जा सकता है जैसे वासुदेव: सर्वम् , सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् आदि।
   आप सभी को रक्षा बंधन और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
      अभी अल्प प्रवास पर अमेरिका आया हुआ हूँ। परसों अर्थात 17 अगस्त की रात्रि को स्वदेश के लिए प्रस्थान करना है, अतः लेखन को यहीं विराम देना होगा। इस बार प्रवास की अवधि में स्वाध्याय और सत्संग, दोनों का अच्छा अवसर और लाभ मिला।स्वाध्याय में विशेष तौर पर श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध का अध्ययन रहा, जिसमें उद्धव-श्री कृष्ण प्रसंग है। इसी स्कंध में दत्तात्रेय भगवान के 24 गुरुओं का प्रसंग है, जिस पर पिछली श्रृंखला आधारित थी।
       दूसरी बात:- चिन्मय मिशन के बारे में आचार्य श्री गोविंद राम जी शर्मा से प्रायः चर्चा होती रहती थी परंतु इस मिशन के बारे में मुझे ज्यादा अनुभव नहीं था। हाँ, कुछ अध्ययन स्वामी श्री चिन्मयानंद जी की गीता की टीका का भी किया था परंतु इस बार ऑकलैंड (कैलिफोर्निया) में स्वामी श्री चिन्मयानंदजी के शिष्य और स्वामी श्री तेजोमयानन्द जी के साथ रहे श्री जिम गिलमैन से सत्संग का सुअवसर मिला।लगभग तीन सप्ताह उनके Hindu spirituality study group के सत्संग कार्यक्रमों में भाग लिया।इस अवधि में group में अद्वैत वेदांत पर विशेष रूप से चर्चा हुई। श्री जिम गिलमैन से ही अवधूत गीता, कठोपनिषद, विवेक चूड़ामणि और अष्टावक्र गीता पर गंभीर विचार विमर्श हुआ।समय मिलते ही आपसे पुनः ब्लॉग के माध्यम से भेंट होगी, तब तक आज्ञा चाहूंगा। आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार और प्रणाम।
।।हरि:शरणम्।।
 

Wednesday, August 14, 2019

अवधूत

अवधूत
अवधूत का अर्थ होता है, जीवनमुक्त ज्ञानी। अवधूत गीता में दत्तात्रेयजी ने "अवधूत-गीता"के अंतिम अध्याय में अवधूत शब्द की व्याख्या की है।वे कहते हैं कि अवधूत शब्द निम्न चार अक्षरों से मिलकर बना है:अ+व+धू+त।इनका विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार है-
अवधूत में 'अ' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
आशापाशविनिर्मुक्त आदिमध्यान्त निर्मलः।
आनन्दे वर्तते नित्यमकारं तस्य लक्षणम्।।8/6।।
अ--
  --जो व्यक्ति "आशा" पाश से मुक्त है।
   --जो व्यक्ति "आदि, मध्य और अंत" सब ओर से निर्मल हो।
   --जो नित्य ही "आनंद" में मग्न रहता हो।
अवधूत में 'व' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
वासना वर्जित येन वक्तव्यं च निरामयम् ।
वर्तमानेषु वर्तेत वकारं तस्य लक्षणम् ।।8/7।।
व--
  --जिसने "वासना" का अंत कर दिया हो।
  --जिसका "वक्तव्य"राग-द्वेष से रहित हो।
  --जो सदैव "वर्तमान"में रहता हो।
अवधूत में 'धू' के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
धूलोधूसरगात्राणि धूतचित्तो निरामयः ।
धारणाध्याननिर्मुक्तो धूकार स्तस्य लक्षणम् ।।8/8।।
धू--
   --"धूलधूसर" ही जिसके अंग हो।
   --जिसका "धूतचित्त"हो।जिसका मन निर्मल हो चुका       हो।
   --जो "धारणा, ध्यान" आदि क्रियाओं से मुक्त हो गया हो।
तत्वचिंता धृतायेन चिंताचेष्टा विवर्जितः।
तमोsहंकार निर्मुक्तस्तकारस्तस्य लक्षणम्।।8/9।।
अवधूत में "त" के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
त--
   --जिसने "तत्व चिंतन"को ही धारण किया हो।
   --जिसने समस्त सांसारिक चिंता व चेष्टा का "त्याग" कर दिया हो।
   --जो "तम रूपी अहंकार" से रहित हो।
दत्तात्रेयजी का एक और कथन है: "अलख निरंजन"।
कल अलख निरंजन के बारे में-
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, August 13, 2019

भगवान दत्तात्रेय


भगवान दत्तात्रेय 
       हमने अभी तक श्री मद्भागवत महापुराण में वर्णित भगवान दत्तात्रेय के गुरुओं की चर्चा की है। आइए अब जानते हैं कि दत्तात्रेय कौन थे?  भागवत महापुराण के अनुसार मनु और शतरूपा के पांच संताने हुई, दो पुत्र और तीन पुत्रियां। प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र हुए तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां हुई । उत्तानपाद के पुत्र श्रीहरि के महान भक्त ध्रुव से हम परिचित हैं ही। मनु शतरूपा की तीन पुत्रियों में से सबसे बड़ी आकूति का विवाह रूचि प्रजापति के साथ, मँझली पुत्री देवहूति का कर्दम ऋषि के साथ और सबसे छोटी पुत्री प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ।दक्ष प्रजापति और प्रसूति की पुत्री सती थी जिनका विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ।
      मनु और शतरूपा की मँझली पुत्री देवहूति और कर्दम ऋषि के एक पुत्र और नौ कन्याएं हुई। इनकी संतानों में सबसे छोटे उनके पुत्र कपिल के रूप में स्वयं विष्णु भगवान अवतरित हुए, जिन्होंने अपनी माता देवहूति को ज्ञान दिया।  कपिलजी के अतिरिक्त इनकी नौ कन्याओं थी जिनके नाम थे: कला,  अनुसुइया,  श्रद्धा,  हविर्भू,  गति,  क्रिया,  ख्याति,  अरुन्धती  और शान्ति । दूसरे क्रम की कन्या अनुसुइया का विवाह अत्रि ऋषि के साथ हुआ,जिनके पुत्र दत्तात्रेयजी हुए।
            अत्रि पत्नी अनुसुइया शास्त्रों में सती अनुसुइया के नाम से प्रसिद्ध हैं।उन्होंने साधुवेश में भिक्षा मांगने आये त्रिदेव को दूध पीते बच्चे बना दिये थे।  साधुओं का वेश बनाये ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अनुसूइया से निःवस्त्र होकर गोद में बिठाकर भोजन कराने का आग्रह किया। अनुसूइया ने अपने पतिव्रत धर्म के बल से उन तीनों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और फिर उन्हें निर्वस्त्र होकर गोद में लेकर दूध पिलाने लगी।जब ब्रह्माणी, लक्ष्मी और रुद्राणी के पतिदेव देर तक वापिस नहीं लौटे तो वे उनकी तलाश में अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंची । तब सती अनुसूइया को उन तीनों की वास्तविकता का पता चला।सती अनुसूइया ने उन शिशुओं को पुनः अपने  वास्तविक स्वरूप में परिवर्तित कर् दिया। अनुसूइया के पतिव्रत धर्म से प्रभावित होकर त्रिदेव ने वर मांगने को कहा। अनुसूइया ने त्रिदेव को ही पुत्र रूप में मांग लिया। उसी वर के अनुसार भगवान विष्णु उनके पुत्र दत्तात्रेय हुए।दत्तात्रेजी का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को हुआ था।भगवान ब्रह्मा का जन्म चंद्र के रूप में और भगवान शंकर का जन्म महर्षि दुर्वासा के रूप में हुआ। इस प्रकार त्रिदेव ने अनुसूइया के गर्भ से तीन शिशुओं के रूप में जन्म लिया।
       भगवान दत्तात्रेय के रायपुर (छ.ग.) और इंदौर (म. प्र.) में जगप्रसिद्ध मंदिर हैं।दत्तात्रेयजी अवधूत नाम से भी जाने जाते हैं।कहा जाता है कि अवधूत गीता उन्हीं के द्वारा कही गयी है। अवधूत गीता अद्वैत वाद का समर्थन करती है।इसी कारण से कई विद्वान इस ग्रंथ को लिपिबद्ध करना अद्वैतवादी आदिगुरु शंकराचार्य के काल के बाद, लगभग 11वीं शताब्दी में मानते हैं।अवधूत गीता भी अपने आप में एकअद्भुत ग्रन्थ है।
कल अवधूत शब्द पर चर्चा करेंगे।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, August 12, 2019

गुरु-27

गुरु-27
       चलिए, एक बार फिर संक्षेप में दत्तात्रेयजी के इन गुरुओं और इनसे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को दोहरा लेते हैं।
1.पृथ्वी-धैर्य और क्षमा।
2.वायु-निर्लिप्तता।
3.आकाश-एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।
4.जल-सहज, निर्मल और पवित्र स्वभाव।
5.अग्नि-दोष रहित होना।
6.चंद्रमा-प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना।
7.सूर्य-इन्द्रिय भोग और त्याग, दोनों में सामंजस्य।
8.कबूतर-आसक्ति का त्याग।
9.अजगर-व्यर्थ की चेष्टा न करना।
10.समुद्र-धीर,गंभीर रहना।
11.पतंगा-दर्शनेन्द्रीय पर नियंत्रण।
12.भौंरा व मधुमक्खी-गंध के प्रति आसक्ति व संग्रह करना अनुचित है।
13.हाथी-स्पर्श सुख के प्रति आसक्ति से जीवन पर संकट।
14.मधु निकालने वाला- संग्रह किये गए धन और वस्तुओं को कोई अन्य ही भोगता है।
15.हरिन-श्रवण इन्द्रिय पर नियंत्रण।
16.मछली-  जिव्हा रस के प्रति आसक्ति अनुचित ।
17.पिङ्गला वेश्या- ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी कोई आशा न रखना।
18.कुरर पक्षी- जीवन में संग्रह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण।भोगों को त्यागने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
19.बालक-मान-अपमान और व्यर्थ की चिंता से दूरी।चिंतारहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।
20.कुंआरी कन्या-परमात्मा के भजन के लिए किसी के साथ की आवश्यकता नहीं।दूसरे का साथ ही भजन में बाधक।
21.बाण बनाने वाला-वैराग्य और अभ्यास से मन को एकाग्र कर लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास।
22.सर्प-एकांतिक जीवन।घर अथवा मठ आश्रम आदि का निर्माण नहीं करना।
23.मकड़ी-एक परमात्मा ही जगत के निर्माणकर्ता और संहारक।संकल्प विकल्प का त्याग हमें संसार जाल में नहीं उलझने देता।
24.भृङ्गी कीट- संसार का चिंतन करोगे तो सांसारिकता में ही जीवन भर उलझे रहोगे। अतः सदैव केवल परमात्मा का ही चिंतन करते रहें, उसी में मन को लगा दें। चाहे प्रेम, द्वेष अथवा भय के वशीभूत होकर ही क्यों न हो, फिर आप स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो सकते हो।
     और अंत मे स्वयं के शरीर से लेने वाली शिक्षा- यह शरीर साधन मात्र है, चाहो तो इससे विषय भोग प्राप्त करो अथवा परमात्मा की ओर चलो। मनुष्य शरीर परमात्मा की ओर जाने के लिए मिला है न कि विषय रस लेने के लिए। आप शरीर नहीं हैं अतः शरीर से स्वयं को अलग मानते हुए, इसको साधन बनाकर साध्य तक पहुंचने का प्रयास करें।
    सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस श्रृंखला से निकल कर आई है वह है कि कोई भी गुरु आपको तब तक ज्ञान नहीं करा सकता जब तक कि ज्ञान लेने के लिए आप बुद्धि का उपयोग करने को स्वयं तत्पर न हो।अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक आदर्श गुरु मिलने के साथ साथ आपकी लगन और विवेक का सदुपयोग करना भी आवश्यक है।गुरु आपके विवेक को जाग्रत करता है, पतन्तु सदमार्ग पर आपको ही चलना पड़ता है।कहने का सार यह है कि अगर आप विवेकवान हैं तो फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो सकते हैं, आपको कहीं बाहर जाकर गुरु ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
कल-दात्तात्रेय जी का परिचय।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, August 11, 2019

गुरु-26

गुरु-26
      हम विषयासक्त क्यों हो जाते हैं?इसका एक ही कारण है, हम अपने आपको आत्मा न मानकर शरीर मानने लगते हैं। हमारी इंद्रियां ही इसके लिए उत्तरदायी हैं।जैसे बहुपत्नियाँ रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक पत्नी अपनी ओर खींचती है, वैसे ही भोगों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक इंद्रिय मनुष्य को अपनी ओर खिंचती है।यह तो व्यक्ति की बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाए अथवा सभी को नकार दे।
          इन्द्रीयजनित भोगों को नकारने की क्षमता केवल मनुष्य के पास है। परमात्मा ने मनुष्य से पहले भी अनेकों प्रजातियों के प्राणी बनाये हैं। वे केवल भोग ही भोगते रहते हैं, भोगों को नकारने की क्षमता उनके पास नहीं है।अंततः परमात्मा को बुद्धि देकर मनुष्य को बनाना पड़ा। अगर मनुष्य को नहीं बनाता तो वह अपने स्वरूप को देखने से भी वंचित हो जाता। केवल मनुष्य के पास ही इतनी बुद्धि है कि उससे ब्रह्म का साक्षात्कार तक कर सकता है। इस मनुष्य शरीर की रचना कर वे अत्यधिक आनंदित हुए।
      वैसे यह शरीर मरणधर्मा है,अनित्य है।मृत्यु इसका सदैव पीछा करती रहती है।फिर भी इससे परम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।"बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते......।" बहुत से जन्मों के अंत में यह मनुष्य शरीर मिला है। इस अवसर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए।बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु आने से पहले ही वह मोक्ष को उपलब्ध होने के लिए प्रयत्न कर ले क्योंकि मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है, विभिन्न शरीरों से मुक्त होकर परमात्मा तक पहुंचा जाए।विषय भोग तो हम पहले ही विभिन्न योनियों में भोगते भोगते आए हैं।
             दत्तात्रेय भगवान कहते हैं कि "राजन् ! ऐसा सोचकर मुझे भी वैराग्य हो गया। मेरे भीतर ज्ञान-विज्ञान की ज्योति सदैव जगमगाती रहती है।अब मुझमें न तो विषयों और शरीर के प्रति आसक्ति है और न ही अहंकार। इसीलिए मैं निर्भय होकर इस धरा पर स्वच्छन्द होकर विचरण कर रहा हूँ।"
        अकेले गुरु ही आपको ज्ञान नहीं दे सकते, इसके लिए आवश्यक है कि अपनी बुद्धि से भी हम कुछ सोचें समझें।इस प्रकार कह कर दत्तात्रेयजी ने शरीर और अपने 24 गुरुओं की गाथा राजा यदु को कह सुनाई।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, August 10, 2019

गुरु-25

गुरु-25
       मनुष्य का शरीर परमात्मा द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है। हम इस शरीर को पाकर जीवनभर विषय भोगों से प्राप्त होने वाले कथित सुखों को प्राप्त करने की भाग दौड़ में लग जाते हैं। मैंने विषयों से प्राप्त होने वाले सुखों को कथित सुख कहा है क्योंकि उनको केवल सुख कहा ही जाता है वास्तविकता में वह सुख न होकर दुःख प्राप्त होने की प्रारंभिक अवस्था होती है। अनुभव किए जाने वाले सुख के पीछे दुःखों का आगमन छिपा होता है। इस बात को केवल वही व्यक्ति समझ सकता है, जिसने अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करना सीख लिया है। यह शरीर हमारा गुरु है और यह तभी गुरु बन सकता है, जब हम अपने मस्तिष्क के दरवाजे और खिड़कियां खुली रख विवेक का आदर करें।
      हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है कि मनुष्य का शरीर ही उसके लिये मुक्ति का द्वार खोल सकता है। इसी शरीर से हमें विवेक और वैराग्य उपलब्ध होता है।जीवन में जब विवेक और वैराग्य का पदार्पण हो जाता है, तब व्यक्ति की आसक्ति अपने शरीर के प्रति समाप्त हो जाती है। इसी अवस्था को उपलब्ध होने पर ही व्यक्ति को अनुभव होता है कि केवल विषय भोग में रत रहने से तो इस संसार में सदैव के लिए आना-जाना बना ही रहेगा। मुक्ति के लिए तो विषयासक्ति और शरीर के प्रति आसक्ति, दोनों का त्याग करना होगा और यह त्याग बिना विवेक और वैराग्य के होना असंभव है।
      इस संसार में शरीर का तो जीना मरना लगा ही रहता है। शरीर में आसक्त होकर उसे पकड़े रखने का केवल एक ही परिणाम होता है, जीवन मे दुःख पर दुःख भोगते जाओ।दूसरी ओर इसी शरीर से तत्व विचार कर सकते हैं।परंतु आत्म ज्ञान को प्रवृत्त मनुष्य को सदैव यह ध्यान में रखना होगा कि यह शरीर तो मरणधर्मा है। एक दिन इसका जाना निश्चित है।इसलिए शरीर से सदैव असंग होकर रहें और तत्व ज्ञान के लिए आतुर।हम इस शरीर को कथित सुख देने के लिए ही विभिन्न प्रकार की कामनाएं और कर्म करते हैं। जिसके लिए हम केवल भोग और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं।परिणाम-हमारा धन, हमारा परिवार आदि बढ़ते जाते हैं और व्यक्ति जीवन भर उनके पालन-पोषण में ही लगा रहता है। देह की आयु पूरी होने पर शरीर तो चला जाता है और पीछे वृक्ष की तरह दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर उसके लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, August 9, 2019

गुरु-24

गुरु-24
       दत्तात्रेयजी ने भृङ्गी नामक कीट को अपना 24 वां गुरु बताया है। आइए!सबसे पहले जानते हैं कि भृङ्गी कीट कैसा होता है और क्या करता है? वैसे तो इस जगत में कीड़ों की अनेक प्रजातियां हैं।आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संसार में प्राणियों में सर्वाधिक आबादी ही कीड़ों (arthropods)की है। उन्हीं कीड़ों की प्रजाति में भृङ्गी भी एक कीट है।भृंगी कीट एक पंखों वाले चींटे के समान जीव होता है । इसकी विशेषता ये है कि ये नर और मादा मिलकर जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता  क्योंकि भृंगी कीट में नर मादा जीव अलग अलग होते ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीङे (जो कि उसके द्वारा दिये गए अंडे से निकला हुआ लार्वा ही होता है) को उठा लाता है और घर के अन्दर डालकर स्वयं बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । इसके स्वर से छोटा कीङा भय से बेहोश हो जाता है और भय से ही उसकी आंतरिक तथा बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है ।वास्तव में उसका लार्वा ही बेहोश होकर प्यूपा बन जाता है ।उस अवधि में उसकी आंतरिक व बाह्य रचना परिवर्तित होकर भृङ्गी कीट का रूप ले लेती है।
      राजा यदु को दत्तात्रेयजी बता रहे हैं कि हे राजन्!मैंने इसी भृङ्गी कीट से यह शिक्षा ली है कि यदि व्यक्ति स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से तीनों में से किसी भी भाव से एकाग्र होकर मन को किसी मे भी लगा दे वह उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।इस प्रकार से अगर मनुष्य परमात्मा में एकाग्रचित्त कर ले तो शीघ्र ही वह स्वयं ही परमात्मा के स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।मीरां बाई ने स्नेह से अपने मन को श्री कृष्ण में लगाया और वे उन्हीं में समा गई। रावण सदैव द्वेष पूर्वक प्रभु श्री राम को याद करता रहा, इससे उसका मन सदैव राम में लगा रहा, परिणाम हमारे सामने है। मृत्यु के बाद उनको परमात्मा का धाम ही मिला। कहने का अर्थ है कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करना और सबसे अच्छा है, प्रेम पूर्वक परमात्मा का स्मरण।
       इस प्रकार दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को पृथ्वी से लेकर भृङ्गी कीट तक के 24 गुरुओं से ली हुई शिक्षा से परिचित कराया। अंत में वे कहते हैं कि अपनी इस मनुष्य देह से भी महत्वपूर्ण ज्ञान लिया है।यह  ऐसा ज्ञान है जो कि जीवन की सत्यता से हमारा परिचय कराता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, August 8, 2019

गुरु-23

गुरु-23
      दत्तात्रेयजी के अगले गुरु है, सर्प।सांप में उन्होंने क्या विशेषता देखी, आइए!पहले उसकी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।सांप सदैव अकेले ही विचरण करता है, सांप की केवल इसी एक विशेषता से उन्होंने बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण कर ली। वे कहते हैं कि साधु को भी सांप की तरह अकेले ही विचरण करना चाहिए।सन्यासी को मठ मंडली आदि नहीं बनानी चाहिए।प्रमाद न करे,एक स्थान पर स्थिर होकर रहे नहीं, घर बनाकर नहीं रहे क्योंकि घर ही दु:खों की जननी है।साधु को चाहिए कि किसी से कोई सहायता न ले तथा व्यर्थ की बातें न करे।
           सर्प के बाद दत्तात्रेयजी ने मकड़ी को अपना गुरु माना है। मकड़ी अपनी ही लार से जाले का निर्माण करती है, उसी में विहार करती है और फिर कार्य पूरा होने पर उसे खुद ही निगल लेती है।इसी प्रकार परमेश्वर भी अपने से ही संसार का निर्माण करते हैं, जीव रूप से जगत में विहार करते हैं और फिर उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।
      सर्वशक्तिमान भगवान कल्प के आरंभ में बिना किसी की सहायता लिए अपनी ही माया से जगत का निर्माण करते हैं और कल्प के अंत प्रलयकाल में उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।वे सबके आधार हैं, सबके आश्रय हैं परंतु स्वयं अपने ही आधार और आश्रय से रहते हैं, किसी दूसरे के आश्रय से नहीं।वे प्रकृति और पुरुष दोनों ही के नियामक हैं। सत्व,रज और तम गुण की शक्तियों को साम्यावस्था तक वे ही पहुंचाते हैं।वे अपनी शक्ति काल से त्रिगुणी माया रूपी प्रकृति को क्षुब्ध करते हैं और फिर सर्वप्रथम क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र महतत्व की रचना करते हैं ।यह सूत्ररूप महतत्व ही त्रिगुण की पहली अभिव्यक्ति है और सृष्टि का मूल कारण भी।उसी में यह सारा विश्व सूत में ताने बाने की तरह ओत-प्रोत है।इसी के कारण जीव जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है।
       मकड़ी के मुख से निकलने वाले सूत्र और उससे बनाये जाने वाले जाल, इसमें निर्बाध विचरण करती मकड़ी और फिर जाले को स्वयं के द्वारा निगल लिए जाने जैसी घटना को देखकर ही दत्तात्रेयजी को महत्वपूर्ण ज्ञान की उपलब्धि हुई । मकड़ी से लिये ज्ञान से इस जगत के निर्माण से लेकर प्रलय तक की प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।अतः यह कहा जा सकता है कि बुद्धि का उपयोग कर छोटी से छोटी घटना, जो कि सदैव अपने आस पास घटित होती ही रहती है, उनसे अवश्य ही कुछ न कुछ तो सीखा ही जा सकता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, August 7, 2019

गुरु-22

गुरु-22
      दत्तात्रेयजी महाराज को गुरु मिलने का क्रम जारी है। उन्होंने अपना 21वां गुरु माना है,एक बाण बनाने वाले को। बाण बनाना कोई आसान कार्य नहीं है।बाण बनाने के लिए पूरी तन्मयता और एक ही स्थान पर टिक कर बैठने की आवश्यकता होती है।जब दत्तात्रेयजी ने देखा कि बाण बना रहे व्यक्ति के पास से ही राजा की सवारी भी निकल गयी और उस कारीगर को इस बात का तनिक से भी आभास नहीं हुआ, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बुद्धि का उपयोग कर इस घटना का सार जब उनको मिला तो उस बाण बनाने वाले कारीगर को भी उन्होंने अपना गुरु मान लिया।
           दत्तात्रेयजी कहते हैं कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य तथा अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे अपने लक्ष्य में लगा देना चाहिए। जैसे बाण बनाने वाला अपने अभ्यास और तन्मयता से उच्च कोटि के बाण का निर्माण कर लेता है।
         इस संसार में सारा खेल मन का ही है।"मनः एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो" अर्थात मनुष्य के बंधन का कारण उसका मन है और मन ही उसके लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है। मोक्ष का मार्ग खोलने के लिए मन का उपयोग कैसे किया जाता है, बाण बनाने वाले से सीखा जा सकता है।आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य धारण करें और अभ्यास करते हुए मन को वश में करें। फिर मन को जीवन के एक मात्र लक्ष्य, परमात्मा की ओर लगा दें।जब मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है तो फिर कर्मवासना भी जाती रहती है।इस प्रकार जिस का चित्त अपनी आत्मा में स्थिर हो जाता है, उसे फिर बाहर भीतर किसी भी बात का ज्ञान नहीं रहता।
      बाण बनाने वाले का चित्त भी स्थिर था, तभी तो उसको पास से गुज़र गई राजा की सवारी का भान तक नहीं हुआ।एक ही स्थान पर शरीर को स्थिर रखते हुए, मन को केवल बाण बनाने के लक्ष्य पर स्थिर करते हुए ही उत्कृष्ट श्रेणी का बाण बनाया जा सकता था। एक निपुण कारीगर की यही पहचान होती है कि वह अपना कार्य कितनी तन्मयता और मन तथा शरीर को स्थिर रखकर करता है। यही आधार आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।दत्तात्रेयजी ने यह सीख बाण बनाने वाले कारीगर को बाण बनाते देखकर ही ली है, इसीलिए उन्होंने उसको अपना गुरु माना है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, August 6, 2019

गुरु-21

गुरु-21
          एक परिवार के सभी सदस्य केवल एक कुमारी कन्या  को घर की देखभाल के लिए छोड़कर किसी आवश्यक कार्य से बाहर गए हुए थे। कन्या विवाह योग्य थी और उसके माता पिता किसी योग्य वर की तलाश में थे। संयोग से उसी दिन उस कन्या को देखने के लिए कुछ लोग उनके घर पधारे। घर पर उस समय कुमारी के अतिरिक्त कोई अन्य के न होने के कारण उसी कन्या ने सबका आतिथ्य-सत्कार किया। अतिथियों को भोजन कराने की तैयारी करने के किये वह घर के अंदर जाकर धान कूटने लगी। उसने दोनों हाथों में चूड़ियाँ पहन रखी थी, जो धान कूटते समय तेज आवाज़ कर रही थी।उसे अनुभव हुआ कि तेज़ आवाज़ से अतिथियों को पता लग जायेगा कि वह भीतर धान कूट रही है। उस समय स्वयं के द्वारा धान कूटा जाना निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। धान कूटने की आवाज़ कहीं अतिथियों तक नहीं पहुंच जाए इसलिए उसने प्रत्येक कलाई में दो दो चूड़ियां रखी और शेष सभी चूड़ियाँ एक एक कर तोड़ डाली और फिर से धान कूटने लगी। परंतु यह क्या ? चूड़ियां तो फिर भी बज रही थी। अंततः उसने दोनों कलाइयों से एक एक चूड़ी और तोड़ डाली और एक एक चूड़ी ही पहने रखी। अब धान कूटने पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी।
         दत्तात्रेयजी कहते हैं कि राजा यदु! मैं भी उस समय घूमता घामता लोगों का व्यवहार देखने उधर ही चला आया था। जब मैंने उस कुमारी कन्या का इस प्रकार चूड़ियों को तोड़ डालने का यह कृत्य देखा तो मुझे ज्ञान हुआ कि जब बहुत सारे लोग एक साथ रहते हैं तब आपस में बहुत कलह होती है।दो लोग भी साथ रहते हैं तो भी कुछ न कुछ बातचीत तो चलती ही रहती है। अतः परमात्मा के ध्यान के लिए सबसे अच्छा है कि उस कुमारी कन्या के हाथ में एक एक रह गई चूड़ियों की तरह अकेले ही रहा जाए।
      राजस्थान में इससे मिलती जुलती एक बात कही जाती है -
एक का भजन, दो की पढ़ाई।
तीन की गप्प, चार की लड़ाई।।
        कहने का अर्थ है कि अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को किसी के साथ की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। किसी अन्य का साथ होना इस मार्ग की प्रगति में बाधक है। परमात्मा की ओर जाने वाले व्यक्ति को अकेले ही चलना पड़ता है। फिर अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। फिर परमात्मा के अतिरिक्त कोई शेष नहीं रहता, "मैं" भी नहीं।एक से अधिक का साथ रहने पर ऐसा हो पाना सदैव के लिए असंभव ही बना रहेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, August 5, 2019

गुरु-20

गुरु-20
         दत्तात्रेय महाराज कहते हैं कि-
-मैं अपने आप में ही क्रीड़ा करता रहता हूँ।
-घर व परिवार वालों को जो चिंता होती है,वैसी मुझे कभी भी नहीं होती है।
-मैं अपनी आत्मा में ही रमन करता रहता हूँ।
-मुझे मान-अपमान का कोई ध्यान/बोध ही नहीं है।
      हे राजन्!यह शिक्षा मैंने एक बालक से ली है इसीलिए मैं सदैव मौज में रहता हूँ। इस संसार में इस निश्चिंत और परमानन्द अवस्था को केवल दो प्रकार के ही व्यक्ति प्राप्त होते हैं-एक तो भोला भाला निश्चेष्ट बालक और दूसरा गुणातीत पुरुष।
         बालक को तो सांसारिक क्रियाकलापों का ज्ञान नहीं होता लेकिन जीवन में सांसारिक अनुभव कर लेने वाले व्यक्ति के लिए पुनः बालक बनकर उस जैसा व्यवहार करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कठिन इसलिए है क्योंकि वह सभी प्रकार के कर्म जो उसके द्वारा होते हैं वह उन कर्मों का होना न मानकर स्वयं के द्वारा किया जाना मानकर उनका कर्ता बन जाता है। वास्तव में देखा जाए तो कर्म किसी व्यक्ति द्वारा किये जाते नहीं हैं बल्कि प्रकृति के गुणों के कारण स्वयमेव ही होते हैं। जब हम कर्मों का गुणों के कारण होना समझ लेते हैं, उसी दिन से हमारा व्यवहार अपने आप ही एक बालक की तरह हो जाएगा।
         कर्मों का गुणों के द्वारा होना और अपने में गुणों का न होना, ये दोनों बात मान लेना ही गुणातीत हो जाना है। प्रकृति के तीन गुण, सत्व,रज और तम ही प्रत्येक कर्म सम्पन्न होने के कारण है। ऐसे कर्म क्रिया कहलाते हैं। गुणों के कारण होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है।जब हम इन गुणों से भिन्न होकर, इन गुणों से आगे बढ़कर सोचेंगे तो हमें अनुभव होगा कि इतने दिन हम ही भ्रम में थे कि सब कुछ जो क्रियाएं प्रकृति के गुणों के कारण हो रही थी, उन्हें हम अज्ञानवश अपने द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कर्म मान रहे थे। इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने वाला पुरुष ही गुणातीत कहलाता है।गुणातीत पुरुष ही बालक का स्वभाव अपना सकता है। बालक और गुणातीत पुरुष में भी अंतर होता है हालांकि उनकी क्रियाओं में कोई अंतर नहीं होता। बालक को संसार का ज्ञान नहीं होता, उसको इस बात का बोध ही नहीं होता कि कोई उसका सम्मान कर रहा है अथवा अपमान।परंतु गुणातीत पुरुष को मान अपमान का ज्ञान अवश्य होता है परंतु उनका अनुभव उसे दोनों अवस्थाओं में एक समान होता है अर्थात वह मान अपमान पर ध्यान देने की स्थिति से बहुत ऊपर उठ चुका होता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, August 4, 2019

गुरु-19

गुरु-19
         मनुष्य के साथ सबसे बड़ी विडंबना है कि वह अपनी पसंद की वस्तुओं को इक्कट्ठा करता है। एक दिन यही वस्तु संग्रह उसके दु:ख का बहुत बड़ा कारण बनता है। हमारी सुख की चाहना ही हमें संग्रह करने को बाध्य करती है परंतु हम यह भूल जाते हैं कि संग्रह  ही दुःख का जनक है। संग्रह के कारण उस संग्रहित वस्तुओं पर सदैव ही दूसरों की नज़र बनी रहती है और अवसर पाकर वह उनको अपने अधिकार में करना चाहता है। अगर वह उन्हें किसी भी प्रकार अधिकृत कर भी लेता है, तो फिर उसके लिए भी एक दिन वह संग्रह दुःख का कारण बन जाता है। अकिंचन मनुष्य, जिसकी कोई चाहना ही नहीं है, वह संग्रह में विश्वास ही नहीं करता।यहां तक कि वह किसी भी बात का मानसिक संग्रह तक भी नहीं करता। यही कारण है कि चाहना रहित पुरुष सदैव सुखी रहता है। अतः अकिंचन भाव युक्त पुरुष ही परमात्मा को पाने का अधिकारी होता है।
           यह ज्ञान दत्तात्रेयजी ने अपने 18वें गुरु कुरर पक्षी से लिया। कैसे लिया? इसके पीछे भी एक वृतांत है। एक कुरर पक्षी का पेट भर हुआ था फिर भी ताज़ा मांस के एक टुकड़े को पड़े देखकर मन ललचा गया। बाद में खा लेने की सोचकर उसने वह टुकड़ा अपनी चोंच में उठा लिया। वह उसको छुपाने के लिए कोई सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहा था।बस, इतना ही पर्याप्त था, उसके जीवन में दुःख को प्रारम्भ करने के लिए। दूसरे पक्षियों ने जब उसकी चोंच में वह मांस का टुकड़ा देखा, तो सभी छीनने के लिए उसके पीछे पड़ गए। अब वह आगे आगे, शेष सभी उसके पीछे पीछे। चोंच मारकर सब उसे घायल कर रहे थे। वह पीड़ा से व्याकुल था। आखिर उसकी चोंच से वह मांस का टुकड़ा नीचे गिर गया। मांस के उस टूकड़े के छूटते ही सभी अन्य पक्षियों ने उसको पीड़ा देना भी छोड़ दिया और उस मांस के टुकड़े को लेने उस ओर चले गए। तब उस कुरर पक्षी को यह अनुभव हुआ कि झगड़ा व्यक्तिगत न होकर अधिग्रहित किये गए मांस के उस छोटे से टुकड़े के लिए था, जिसे उसने भविष्य में खाने के लिए संग्रहित करने का प्रयास किया था।उसकी समझ में आ गया था कि संग्रह ही दुःख का कारण है।
         दत्तात्रेयजी ने उस दिन कुरर पक्षी से सीख ली कि मनुष्य को कभी भी संग्रह नहीं करना चाहिए अन्यथा उसके जीवन से दुःखों का निवारण कभी भी नहीं हो पायेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, August 3, 2019

गुरु-18

गुरु-18
    वैराग्य के पैदा होते ही पिङ्गला ने वहीं ड्योढ़ी पर खड़े खड़े एक गीत गाया।परमात्मा को समर्पित वह गीत बड़ा ही अनुपम था।पिङ्गला जो गीत गा रही थी उसका सार है कि "हाय हाय, मैं भी इंद्रियों के वश में हो गई।मेरे मोह की असीमता को तो देखो, जो उन दुष्ट पुरुषों से विषय सुख पाने की कामना जीवन भर करती रही, जिनका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं था।मेरे स्वयं के भीतर परमात्मा निवास करते हैं, जो परम सुख और परम धन को देने वाले हैं। मैं उनको भी भुला बैठी।भला, मेरे जितना भी कोई मूर्ख होगा।जगत के पुरुष तो अनित्य हैं जबकि परम पुरुष नित्य हैं। जगत के पुरुष तो प्रेम देने का नाटक भर करते हैं जबकि वास्तविक प्रेम करने योग्य तो परमात्मा ही हैं।हाय हाय!मैंने जीवन भर क्या किया?उन पुरुषों के पीछे पड़ी रही, जो केवल भय, दुःख, आधि-व्याधि,शोक और मोह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकते थे। मैंने व्यर्थ ही वेश्या वृति के माध्यम से ऐसे पुरुषों का सेवन किया।मैंने व्यर्थ ही अपने शरीर और मन को क्लेश दिया। मेरा यह हाड़ मांस से बना शरीर बिक गया, केवल कुछ धन के लिए। धन से मैं संसार के सुख चाहती रही।कैसा दुर्भाग्य है मेरा।"
          पिङ्गला आगे कहती है-"वैसे तो यह मिथिला विदेहों की नगरी है, जीवन-मुक्त पुरुषों की नगरी है, केवल एक मूर्ख मैं ही हूँ जो यहां निवास करती हूँ।केवल मैं ही एक ऐसी स्त्री हूँ जो परमात्मा को छोड़कर अन्य पुरुषों की अभिलाषा करती हूँ। अब मैं भी अपने आपको देकर उस परमपिता प्रभु को खरीद लूंगी, उनसे लक्ष्मी की तरह व्यवहार रखूंगी और प्रेम करूंगी।
       आज परमात्मा मेरे पर प्रसन्न हुए हैं, जो मेरे में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ है।अवश्य ही मेरे द्वारा पूर्व में किये गए किसी शुभ कर्म से विष्णु भगवान मुझ पर प्रसन्न हुए हैं।अब मैं प्रारब्ध स्वरूप जो मुझे मिल जाएगा, उसी में संतुष्ट रहूंगी।आज से मैं किसी अन्य पुरुष की ओर न ताककर केवल अपने प्रभु के साथ ही विहार करूंगी।" सत्य है, जिस समय मनुष्य विषयों से स्वयं को मुक्त कर लेता है, उसी समय से वह अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है।
        इस प्रकार पिङ्गला वेश्या ने ऐसा निश्चय कर धनी पुरुषों से मिलने वाले विषय सुख और धन मिलने की आशा का परित्याग कर दिया और शांत भाव से जाकर अपनी सेज पर सो गई। आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है।जब पिङ्गला वेश्या ने पुरुष की आशा त्याग दी तभी वह सुख से सो सकी।दत्तात्रेय भगवान कह रहे हैं कि इसी प्रकार हमें भी संसार के किसी भी प्राणी से कोई आशा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि आशा ही सभी प्रकार के दुःखों की जननी है। पिङ्गला वेश्या के वृतांत से हमें यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, August 2, 2019

गुरु-17

गुरु-17
        बहुत प्राचीन समय की बात है।मिथिला नगर में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला। उसका प्रतिदिन एक ही कार्य था। शाम होते ही सज धज कर अपने निवास की ड्योढ़ी पर आकर खड़ी हो जाती और अपनी अदाओं से रास्ते से गुजरने वाले पुरुषों को आकर्षित करती। उन्हें पैसे के बदले शारीरिक सुख लेने के लिए आमंत्रित करती। वास्तव में उसे शारीरिक सुख प्राप्त करने की कोई कामना नहीं थी बल्कि उसके मन में पुरुषों को शारीरिक सुख देने के बदले उनसे मिलने वाले धन की कामना रहती थी । इस प्रकार विदेह नगरी में रहते हुए उसे कई वर्ष बीत गए। उसने अपने शरीर का उपयोग कर बहुत सारा धन इक्कट्ठा कर लिया था।
          एक दिन इसी प्रकार सज धज कर वह अपने घर की ड्योढ़ी पर खड़ी होकर किसी पुरुष का इंतज़ार कर रही थी। लोग बाग आ जा रहे थे। सभी उस पर एक उड़ती हुई दृष्टि डालते और आगे बढ़ जाते।उसे पुरुष की कामना नहीं थी बल्कि उससे मिलने वाले धन की आशा थी। उसके मन मे धन की कामना इतनी अधिक दृढ़ हो गई थी कि आने जाने वाले पुरुष को देखकर वह यही सोचती कि वह कोई बहुत धनी व्यक्ति है। वह आधी रात तक घर के भीतर बाहर इसी आशा से जाती आती रही कि कभी न कभी कोई अधिक धनी व्यक्ति तो उसकी ओर आकर्षित होगा ही परंतु उस दिन कोई उसकी ओर आकर्षित नहीं हुआ।स्त्री के शरीर की भी एक क्षमता होती है, उसके शरीर के आकर्षण को भी एक न एक दिन ढलना होता है। इसी अवस्था को प्राप्त होने जा रहे पिङ्गला के शरीर को आज कोई ग्राहक नहीं मिला।पिङ्गला को तो शारीरिक सुख नहीं बल्कि धन पाने की अभिलाषा रहती थी परंतु आज....आज ही क्या, अब आगे भी इस शरीर के बदले किसी भी प्रकार के धन प्राप्त होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। पिङ्गला वेश्या व्यथित हो गई। उसको इतने वर्षों तक अपने किये हुए कर्मों पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वैसे तो आशा रखना ही अनुचित है और फिर धन की आशा रखना तो बहुत ही अनुचित बात है।किसी धनी से धन पाने की आशा में इंतज़ार करते करते उसका मुख सुख गया।अब उसे अपनी वृति के प्रति ग्लानि हो रही थी। ग्लानि के कारण उस वेश्या पिङ्गला को वैराग्य उत्पन्न हो गया।
क्रमश:
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, August 1, 2019

गुरु-16

गुरु-16
           दत्तात्रेयजी के सोलहवें नंबर की गुरु है, मछली।नदी और अन्य जल स्रोत में मछली स्वतंत्र रूप से तैरती रहती है।प्रायः हम देखते हैं कि जब लोग नाव से यात्रा करते हैं तब उनमें से कुछेक लोग नदी में आटे से बनी छोटी छोटी गोलियां डालते रहते हैं। उन गोलियों को खाने के लिए मछलियां नाव के पास आ जाती है। मछली पकड़ने का शौक रखने वाले भी ऐसा ही करते हैं। वे आटे से बनी गोली अथवा अन्य कोई  भोजन कांटे में लगाकर उस कांटे को नदी में डाल देते हैं।कांटे के एक छोर से एक डोरी बंधी होती है और दूसरे छोर पर वह  डोरी एक लकड़ी से बंधी होती है, जिसे मछली पकड़ने वाला अपने हाथ में पकड़े रहता है। इस उपकरण को वंशी कहा जाता है। मछली को अपना भोजन नज़र आते ही वह उसे खाने को आती है और भोजन को मुंह में लेते ही कांटा उसके भीतर चुभ जाता है।कांटे में फंसते ही मछली उससे मुक्त होने के लिए छटपटाती है,परंतु मुक्त नहीं हो पाती।मछली की छटपटाहट से वंशी हिलने लगती है, जिससे मछलीमार समझ जाता है कि कांटे में मछली फंस गई है। वह वंशी को तत्काल ही जल से बाहर खींच लेता है। जल से बाहर आते ही मछली मर जाती है।इस प्रकार भोजन के स्वाद के चक्कर में मछली अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है।
        दत्तात्रेय कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य को भी मछली की तरह अपनी रस-इन्द्रीयका गुलाम नहीं होना चाहिए। मनुष्य भोजन लेना बंद कर शेष इंद्रियों पर तो सुगमता से नियंत्रण स्थापित कर लेता है परंतु इससे रसनेन्द्रिय का नियंत्रित होना नहीं कहा जा सकता।रसनेन्द्रिय तो भोजन बन्द कर देने से और अधिक प्रबल हो उठती है।मन मे बार बार स्वादिष्ट भजन से रस प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती रहती है।इसका अर्थ हुआ कि रसनेन्द्रिय को भोजन बन्द कर दबाया गया है, उसे वश में नहीं किया गया है। मनुष्य तब तक जितेंद्रिय नहीं हो सकता, जब तक वह रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता।जब वह रसनेन्द्रिय को वश में कर लेता है तब सभी इंद्रियों को वश में करना संभव हो जाता है।
           इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को सबसे पहले अपनी जिव्हा को वश में करना चाहिए। जिव्हा ही एक मात्र इन्द्रिय है जो बहुत प्रयास करने के बाद भी नियंत्रित नहीं हो पाती। मछली के साथ होने वाली कांटे में फंसने वाली घटना से यह सीखा जा सकता है कि रसनेन्द्रिय को वश में रखना क्यों आवश्यक है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।