रामकथा-44-रामावतार के हेतु-
इतना सब कुछ होने के बाद ही कहीं जाकर नारद मुनि को श्रीहरि की माया का बोध हुआ। पश्चाताप करते हुए कहने लगे कि मेरा श्राप व्यर्थ चला जाये। श्रीहरि ने कहा - नहीं, यह श्राप आपने नहीं दिया है बल्कि मैंने ही आपसे दिलवाया है क्योंकि मेरी ऐसी इच्छा थी।"मम इच्छा कह दीनदयाला।।" नारदजी ने कहा-"भगवन,सम्पूर्ण ब्रह्मांड में आपकी इच्छा से ही सब कुछ होता है, यह भी आपकी इच्छा से ही हुआ होगा। परंतु श्राप देने से मेरा हृदय बड़ा अशांत हो गया है।आप मुझे शांति का कोई मार्ग दिखलाई नहीं पड़ रहा है। मैं क्या करूं, कहाँ जाऊं? कृपा कर कोई तो मार्ग दिखलाइये।"
हम भी इसी प्रकार क्रोध में आकर किसी को भी कुछ का कुछ बोल देते है परंतु जब बोध होता है तब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता। कमान से छूटा तीर और मुख से निकले वचन कभी भी लौटाए नहीं जा सकते। हाँ, केवल अशांत मन को शान्ति प्रदान करने का कोई उपाय किया जा सकता है।
श्रीहरि ने हृदय की विश्रांति का मार्ग दिखलाते हुए नारदजी को कहा-
जपहु जाहु संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरत विश्रामा।।
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
शंकर जगतपति हैं, श्रीहरि परमपिता। जगतपति ने यह संसार बनाया है।इस संसार में रहते हुए जो जगतपति के बनाये नियमों का पालन करते हुए अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर रहता है वही परमपिता तक पहुंच सकता है।जिस पर शम्भू की कृपा नहीं होती वह परमात्मा की भक्ति को भी प्राप्त नहीं हो सकता।जिस पर शंकर भगवान की कृपा नहीं होगी वह केवल संसार के मक्कड़ जाल में ही उलझकर रह जाता है, परमात्मा की भक्ति की ओर अग्रसर तक नहीं हो पाता है।
इस प्रकार अब परमब्रह्म के इस धरा पर अवतार लेने की पृष्ठभूमि लगभग तैयार हो चुकी है।उनके साकार स्वरूप को धारण करने के लिए स्थान, माता-पिता, उद्धार के लिए असुर सब कुछ निश्चित हो चुका है।धरा पर लीला करने के लिए घटना क्रम भी लगभग निश्चित हो चुका है। देरी केवल एक बात की ही है, कोई आर्तभाव से उन्हें पुकारे तो सही।अवतार लेंगे ज्ञानी भक्तों के लिए परंतु आर्त भक्तों की पुकार का भी उन्हें सदैव इंतज़ार रहता ही है।ज्ञानी भक्त तो उन्हें सदैव स्मृति में बनाये रखते ही हैं, कभी उनसे कुछ मांगते नहीं हैं।भक्तों की पुकार को सुनने की इच्छा परमात्मा को सदैव रहती ही है।पुकार सुनते ही वे दौड़े चले आते हैं । इसलिए अवतार लेने के लिए पुकार महत्वपूर्ण है जबकि ज्ञानी भक्तों को कष्टों से मुक्ति दिलाना अवतार लेने का मूल उद्देश्य है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
इतना सब कुछ होने के बाद ही कहीं जाकर नारद मुनि को श्रीहरि की माया का बोध हुआ। पश्चाताप करते हुए कहने लगे कि मेरा श्राप व्यर्थ चला जाये। श्रीहरि ने कहा - नहीं, यह श्राप आपने नहीं दिया है बल्कि मैंने ही आपसे दिलवाया है क्योंकि मेरी ऐसी इच्छा थी।"मम इच्छा कह दीनदयाला।।" नारदजी ने कहा-"भगवन,सम्पूर्ण ब्रह्मांड में आपकी इच्छा से ही सब कुछ होता है, यह भी आपकी इच्छा से ही हुआ होगा। परंतु श्राप देने से मेरा हृदय बड़ा अशांत हो गया है।आप मुझे शांति का कोई मार्ग दिखलाई नहीं पड़ रहा है। मैं क्या करूं, कहाँ जाऊं? कृपा कर कोई तो मार्ग दिखलाइये।"
हम भी इसी प्रकार क्रोध में आकर किसी को भी कुछ का कुछ बोल देते है परंतु जब बोध होता है तब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता। कमान से छूटा तीर और मुख से निकले वचन कभी भी लौटाए नहीं जा सकते। हाँ, केवल अशांत मन को शान्ति प्रदान करने का कोई उपाय किया जा सकता है।
श्रीहरि ने हृदय की विश्रांति का मार्ग दिखलाते हुए नारदजी को कहा-
जपहु जाहु संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरत विश्रामा।।
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
शंकर जगतपति हैं, श्रीहरि परमपिता। जगतपति ने यह संसार बनाया है।इस संसार में रहते हुए जो जगतपति के बनाये नियमों का पालन करते हुए अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर रहता है वही परमपिता तक पहुंच सकता है।जिस पर शम्भू की कृपा नहीं होती वह परमात्मा की भक्ति को भी प्राप्त नहीं हो सकता।जिस पर शंकर भगवान की कृपा नहीं होगी वह केवल संसार के मक्कड़ जाल में ही उलझकर रह जाता है, परमात्मा की भक्ति की ओर अग्रसर तक नहीं हो पाता है।
इस प्रकार अब परमब्रह्म के इस धरा पर अवतार लेने की पृष्ठभूमि लगभग तैयार हो चुकी है।उनके साकार स्वरूप को धारण करने के लिए स्थान, माता-पिता, उद्धार के लिए असुर सब कुछ निश्चित हो चुका है।धरा पर लीला करने के लिए घटना क्रम भी लगभग निश्चित हो चुका है। देरी केवल एक बात की ही है, कोई आर्तभाव से उन्हें पुकारे तो सही।अवतार लेंगे ज्ञानी भक्तों के लिए परंतु आर्त भक्तों की पुकार का भी उन्हें सदैव इंतज़ार रहता ही है।ज्ञानी भक्त तो उन्हें सदैव स्मृति में बनाये रखते ही हैं, कभी उनसे कुछ मांगते नहीं हैं।भक्तों की पुकार को सुनने की इच्छा परमात्मा को सदैव रहती ही है।पुकार सुनते ही वे दौड़े चले आते हैं । इसलिए अवतार लेने के लिए पुकार महत्वपूर्ण है जबकि ज्ञानी भक्तों को कष्टों से मुक्ति दिलाना अवतार लेने का मूल उद्देश्य है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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