Monday, April 8, 2019

रामकथा-43-रामावतार के हेतु-

रामकथा-43-रामावतार के हेतु-
       दोनों रुद्रगण नारद मुनि को प्रणाम कर तुरंत ही वहां से चले गए। ऋषि का श्राप खाली नहीं जा सकता अतः उन दोनों का अब राक्षस बनना निश्चित हो गया था। व्याकुल नारदजी वहां से चलकर पास ही स्थित जलाशय तक आये और अपना प्रतिबिम्ब जल में देखा। देखते ही मानो क्रोध से पागल हो गए हों।क्रोध के कारण उनके होठ फड़फड़ाने लगे और मन ही मन श्रीहरि को खरी खोटी कहते हुए उनसे मिलने बैकुंठ की ओर चल पड़े।अभी ज्यादा दूर चले ही नहीं होंगे  कि सामने से श्रीहरि लक्ष्मीजी के साथ आते दिख गए। श्रीहरि के गले में वही जयमाला पड़ी थी जो राजकुमारी ने स्वयम्बर में अपने हाथों में ले रखी थी। यह क्या, श्रीहरि के साथ में  रमाजी के साथ वह राजकुमारी विश्वमोहिनी भी है। तीनों को एक साथ देखते ही मुनि क्रोध से उबल पड़े।श्रीहरि मुस्कुराते हुए नारदजी से बोले - "मुनीश्वर, विकल होकर कहाँ जा रहे हो?" इतना सुनते ही नारदजी का धैर्य जवाब दे गया।
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा।
माया बस न रहा मन बोधा।।1/136/6।।
     मुनि नारद बोल पड़े,"अपने आप को क्या समझते हैं? यहां आप चाहोगे केवल वही होगा क्या? समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी को तो स्वयं आपने अपने पास रख लिया और बेचारे भोले भाले शम्भू को विष पिलवा दिया।कुटिलता तुम्हारे भीतर प्रारम्भ से ही भरी है।आज इसी राजकुमारी को पाने के लिए मैंने आपसे सुंदर शरीर मांगा था और आपने बदले में यह बंदर की सी देह दी है न। पहले की कह देते कि राजकुमारी से विवाह आप करना चाहते हैं।अब सुनो, आज जिस प्रकार मैं स्त्री विरह में विकल हूँ, एक दिन तुम्हें भी ऐसे ही अपनी पत्नी के विरह में व्याकुल होना पड़ेगा। इतना ही नहीं, जिस बंदर की देह को आपने निम्न स्तर की मानकर मुझे दी है, ऐसे ही बंदर एक दिन आपके लिए सहायक सिद्ध होंगे।" इतना कहकर नारदजी चुप हो गए। श्रीहरि ने सिर झुकाकर उनका श्राप स्वीकार किया। तत्काल ही श्रीहरि ने अपनी माया समेट ली। अब न तो वहां उनके साथ लक्ष्मी थी और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी।देवऋषि का शरीर भी पुनः अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त हो गया था।
       इसी प्रकार श्रीहरि की माया हमारे दृष्टिपटल पर भी एक प्रकार का आवरण डाल देती है जिसके कारण हम केवल वही देख पाते हैं जो हमारा मन देखना चाहता है।ज्ञान माया के तले दबा केवल सिसकियां भरते रह जाता है।इस माया के जो पार चला जाता है केवल वही परमात्मा को पा सकता है। यही आत्मज्ञान है। कबीर ने इसीलिए माया को महाठगिनी कहा है। आज प्रभु की इसी माया ने उनके परमभक्त नारदजी तक को भी ठग लिया है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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