रामकथा-38-रामावतार के हेतु-
सुंदर स्थान को देखकर नारदजी भी हिम पर्वत की गुफा में थोड़ी देर के लिए बैठ गए। प्रकृति की सुंदरता परमात्मा की उपस्थिति का केवल आभास ही नहीं कराती बल्कि उनके अस्तित्व को भी सिद्ध करती है। नारदजी के मुख से तो सदा नारायण नाम का उच्चारण चलता ही रहता था। प्रकृति की गोद में बैठे बैठे उन्हें साक्षात परम पिता की गोद में बैठे होने जैसा अनुभव हुआ।इसी के साथ वे गहरी अखंड समाधि में चले गए। समाधि भी ऐसी गहरी कि उन्हें स्थान, समय और स्वयं का भी ध्यान नहीं रहा। सत्य है, किसी बात का भी ध्यान में न आना ही वास्तव में ध्यानस्थ होना है, समाधिस्थ होना है।
तीनों लोकों में विचरण करने वाले नारदजी अगर कुछ समय के लिए पाताल लोक में नहीं गए तो इससे पाताल वासियों को कोई फर्क नहीं पडने वाला परंतु जब वे उच्च लोक अर्थात स्वर्गलोक में भी कई वर्षों तक नहीं पहुंचे तो देवता लोग चिंतित हो उठे। आप यह न मान लेना कि चिंतित होने का अधिकार केवल हम पृथ्वी वासियों का ही है। हम पृथ्वी लोक के वासियों से अधिक चिंतित तो स्वर्ग लोक के निवासी होते हैं। पृथ्वीलोक में हमें भोग, रोग और योग तीनों सरलता से उपलब्ध हैं परंतु स्वर्ग लोक में तो केवल भोग ही भोग उपलब्ध रहते है। वहां न तो रोग मिलता है और न ही योग को उपलब्ध हुआ जा सकता है।जब केवल भोग ही उपलब्ध हो तो इन भोगों पर एकाधिकार के छीने जाने की चिंता भी यदा कदा सताने लगती है। यही एक मात्र कारण है, नारदजी की संधि से स्वर्ग के राजा इंद्र के चिंतित होने का। संसार में जब भी कोई महान पुरुष परमात्मा के लिए ध्यानस्थ होता है, सर्वप्रथम इंद्र को अपना राज पाट छीने जाने का भय सताने लगता है। उसके ध्यान को तोड़ने के लिए उसके पास अकाट्य अस्त्र शस्त्र है, इंद्रलोक की अप्सराएं और स्वयं कामदेव । भला, कामदेव के तीर से इस संसार में कौन घायल नहीं हुआ है? यहां तक कि पार्वती की तपस्या को सिद्ध करने के लिए समाधिस्थ शंकर को भी कामदेव के कारण समाधि त्यागनी पड़ी थी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
सुंदर स्थान को देखकर नारदजी भी हिम पर्वत की गुफा में थोड़ी देर के लिए बैठ गए। प्रकृति की सुंदरता परमात्मा की उपस्थिति का केवल आभास ही नहीं कराती बल्कि उनके अस्तित्व को भी सिद्ध करती है। नारदजी के मुख से तो सदा नारायण नाम का उच्चारण चलता ही रहता था। प्रकृति की गोद में बैठे बैठे उन्हें साक्षात परम पिता की गोद में बैठे होने जैसा अनुभव हुआ।इसी के साथ वे गहरी अखंड समाधि में चले गए। समाधि भी ऐसी गहरी कि उन्हें स्थान, समय और स्वयं का भी ध्यान नहीं रहा। सत्य है, किसी बात का भी ध्यान में न आना ही वास्तव में ध्यानस्थ होना है, समाधिस्थ होना है।
तीनों लोकों में विचरण करने वाले नारदजी अगर कुछ समय के लिए पाताल लोक में नहीं गए तो इससे पाताल वासियों को कोई फर्क नहीं पडने वाला परंतु जब वे उच्च लोक अर्थात स्वर्गलोक में भी कई वर्षों तक नहीं पहुंचे तो देवता लोग चिंतित हो उठे। आप यह न मान लेना कि चिंतित होने का अधिकार केवल हम पृथ्वी वासियों का ही है। हम पृथ्वी लोक के वासियों से अधिक चिंतित तो स्वर्ग लोक के निवासी होते हैं। पृथ्वीलोक में हमें भोग, रोग और योग तीनों सरलता से उपलब्ध हैं परंतु स्वर्ग लोक में तो केवल भोग ही भोग उपलब्ध रहते है। वहां न तो रोग मिलता है और न ही योग को उपलब्ध हुआ जा सकता है।जब केवल भोग ही उपलब्ध हो तो इन भोगों पर एकाधिकार के छीने जाने की चिंता भी यदा कदा सताने लगती है। यही एक मात्र कारण है, नारदजी की संधि से स्वर्ग के राजा इंद्र के चिंतित होने का। संसार में जब भी कोई महान पुरुष परमात्मा के लिए ध्यानस्थ होता है, सर्वप्रथम इंद्र को अपना राज पाट छीने जाने का भय सताने लगता है। उसके ध्यान को तोड़ने के लिए उसके पास अकाट्य अस्त्र शस्त्र है, इंद्रलोक की अप्सराएं और स्वयं कामदेव । भला, कामदेव के तीर से इस संसार में कौन घायल नहीं हुआ है? यहां तक कि पार्वती की तपस्या को सिद्ध करने के लिए समाधिस्थ शंकर को भी कामदेव के कारण समाधि त्यागनी पड़ी थी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
क्या सचमुच ही स्वर्गलोक है कहीं पर या ये सब कल्पनातीत वार्ता है जो मुख्य रूप से ईश्वर के कथन को सिद्ध करने के लिए बताई गयी बातें है ?
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