Sunday, April 7, 2019

रामकथा-42-रामावतार के हेतु-

रामकथा-42-रामावतार के हेतु-
     शीलनिधि राजसभा में सिंहासन पर विराजमान है। सामने विभिन्न राज्यों से आये नृप बैठे हैं। किसी भी समय विश्वमोहिनी राजकुमारी हाथ मे वरमाला लेकर अपना वर चुनने को राजसभा में प्रवेश कर सकती है।राजाओं में नारदजी भी एक प्रतिभागी के रूप में बैठे हैं।उनके पास हर के दो गण विप्र वेश में बैठे हुए हैं।दोनों ही रुद्रगण नारदजी की विशाल मरकट की सी देह देखकर हंस रहे हैं । नारदजी को अनुमान तक नहीं है कि वे कुरूप प्रतीत हो रहे हैं, वे तो स्वयं को संसार के सर्वाधिक सुंदर व्यक्ति समझे बैठे हैं।
     तभी विश्वमोहिनी का राजसभा में प्रवेश होता है। जयमाला उसके हाथों में है, नारदजी की ओर दृष्टि डालते ही भय से अपने मुंह को फेर कर दूसरी दिशा में बैठे राजाओं की ओर चली जाती है। बार बार नारदजी उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं परंतु वह उनकी ओर दृष्टि तक नहीं डालती। नारदजी की क्रियाओं को देखकर विप्रवेश धारी गण जोर जोर से हंसते हैं।तभी एक अतिसुन्दर राजा वहां आते हैं, उन्हें देखते ही राजकुमारी उनके गले में वरमाला डाल देती है। तत्काल ही वह राजा विश्वमोहिनी को लेकर अपने निवास स्थान को प्रस्थान कर जाते हैं। नारदजी एकदम से निराश हो जाते हैं। उनका नैराश्य भाव उन्हें अत्यधिक व्याकुल कर देता है। क्या तो सोचा और क्या हो गया। हे नारायण ! आपने मेरे पक्ष में सब कुछ होने क्यों नहीं दिया?
      व्याकुल नारदजी को देखजत दोनों रुद्रगण हंसते हुए उनका उपहास करते हुए कहते हैं-"देखी है अपनी बंदर जैसी देह।चले थे विश्वमोहिनी को वरने। जरा अपनी शक्ल को तो देखो।" नारद मुनि को क्रोध आ गया, दोनों को श्राप दे डाला-"जाओ, दोनों राक्षस हो जाओ। एक मुनि पर हंसते हुए तुम्हें लज्जा भी नहीं आती। भविष्य में किसी का उपहास करने से पहले दस बार सोचोगे। तुम्हारे हंसने की यही सजा है।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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