रामकथा -37-रामावतार के हेतु-
हाँ, तो बात चल रही थी ब्रह्माजी के मानस पुत्र नारदजी की। वे "नारायण नारायण"नाम का जप करते तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं। यही तो श्रीहरि के नाम की महिमा है।मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह नाम की महिमा को जानते हुए भी नाम जप को अधिक महत्व नहीं देता है। हम फालतू की क्रियाओं में इस सीमा तक उलझ जाते हैं कि नामजप को महत्वहीन समझने लगते हैं। नामजप से ही नारद को वह क्षमता मिली कि वे तीनों लोकों में निर्बाध रूप से विचरण करते रहते हैं।
नारद तीनों लोकों में घूमते रहते हैं, अतः स्वाभाविक है कि वे मर्त्य लोक अर्थात पृथ्वी लोक पर भी आते जाते होंगे। पृथ्वीलोक का प्रभाव भी उन पर दिखलाई पड़ता है। एक तो वे इधर की बात उधर अवश्य करते हैं और दूसरे, वे जिस उपलब्धि को अर्जित करते हैं, उस उपलब्धि से वे आत्म मुग्ध हो जाते हैं।उपरोक्त दोनों विशेषताएं भूलोक के निवासियों में प्रायः पाई जाती है।अब भला, इस लोक में आकर नारदजी भी इन विशेषताओं को अपनाने से कैसे अछूते रह सकते हैं।
इसी प्रकार अपने स्वभावानुसार नारदजी एक बार भूलोक के भ्रमण पर थे। धवल हिम से आच्छादित पर्वत की गुफा, पास ही बहती गंगा नदी, उस क्षेत्र की हरीतिमा और मन्द मन्द बहती बयार को देखकर नारदजी के मन को बड़ी शांति मिली।वे उसी स्थान पर 'नारायण नारायण' नाम का जप करते हुए बैठ गए। सुंदर स्थान अंतःकरण की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देता है, जिससे समाधिस्थ होना शीघ्र संभव हो जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म के तीर्थ प्रायः पर्वतीय और रमणीय क्षेत्रों में अधिक हैं। हम इन क्षेत्रों पर जाकर इनका किस उद्देश्य से उपयोग करते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
हाँ, तो बात चल रही थी ब्रह्माजी के मानस पुत्र नारदजी की। वे "नारायण नारायण"नाम का जप करते तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं। यही तो श्रीहरि के नाम की महिमा है।मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह नाम की महिमा को जानते हुए भी नाम जप को अधिक महत्व नहीं देता है। हम फालतू की क्रियाओं में इस सीमा तक उलझ जाते हैं कि नामजप को महत्वहीन समझने लगते हैं। नामजप से ही नारद को वह क्षमता मिली कि वे तीनों लोकों में निर्बाध रूप से विचरण करते रहते हैं।
नारद तीनों लोकों में घूमते रहते हैं, अतः स्वाभाविक है कि वे मर्त्य लोक अर्थात पृथ्वी लोक पर भी आते जाते होंगे। पृथ्वीलोक का प्रभाव भी उन पर दिखलाई पड़ता है। एक तो वे इधर की बात उधर अवश्य करते हैं और दूसरे, वे जिस उपलब्धि को अर्जित करते हैं, उस उपलब्धि से वे आत्म मुग्ध हो जाते हैं।उपरोक्त दोनों विशेषताएं भूलोक के निवासियों में प्रायः पाई जाती है।अब भला, इस लोक में आकर नारदजी भी इन विशेषताओं को अपनाने से कैसे अछूते रह सकते हैं।
इसी प्रकार अपने स्वभावानुसार नारदजी एक बार भूलोक के भ्रमण पर थे। धवल हिम से आच्छादित पर्वत की गुफा, पास ही बहती गंगा नदी, उस क्षेत्र की हरीतिमा और मन्द मन्द बहती बयार को देखकर नारदजी के मन को बड़ी शांति मिली।वे उसी स्थान पर 'नारायण नारायण' नाम का जप करते हुए बैठ गए। सुंदर स्थान अंतःकरण की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देता है, जिससे समाधिस्थ होना शीघ्र संभव हो जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म के तीर्थ प्रायः पर्वतीय और रमणीय क्षेत्रों में अधिक हैं। हम इन क्षेत्रों पर जाकर इनका किस उद्देश्य से उपयोग करते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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