Tuesday, April 16, 2019

रामकथा51-समापन कड़ी-

रामकथा-51-
       गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्री रामचरित मानस में भगवान श्रीराम की लीला का अनुरक्ति पूर्ण वर्णन किया है। उनके इस ग्रंथ को पढ़ने और मनन करने से अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। यह ग्रंथ उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ का अध्ययन करने का अवसर हम सब को प्रायः मिलता ही रहता है। इसका विवेचन चाहे जितना करें, किया जा सकता है। जिस दृष्टि से गोस्वामीजी ने अपने आराध्य प्रभु को देखा है वह दृष्टि हम सबको मिले, तभी इस ग्रंथ के पाठ करने की सार्थकता है।आप सभी इस ग्रंथ को पढ़ते ही रहते हैं इसलिए मैं रामकथा को और अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहूंगा।अतः इस श्रृंखला को यहीं विराम देना चाहूंगा।
        भगवान श्रीराम त्रेता में हुए और श्रीकृष्ण द्वापर में।हमें श्रीकृष्ण अपने अधिक निकट प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने जो लीला की वह आज के मनुष्य जीवन के अनुरूप ही की है। भगवान श्रीराम की लीला मनुष्य के जीवन से कुछ भिन्न प्रतीत होती है इसका कारण है, भगवान राम का मर्यादित जीवन। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन में मर्यादा का कभी उल्लंघन नही किया इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का काल हमारे अतिनिकट है, उनके और हमारे मध्य मात्र 5000 वर्ष के लगभग का समयांतर है।इसलिए उनकी लीला को देखने से हमें वह अधिक उचित जान पड़ती है। मर्यादा सीखनी हो तो श्रीराम से सीखें और निर्णय लेने की क्षमता, सत्य-असत्य में अंतर तथा कर्तव्य कर्म, कर्म से पलायन न करना, विषाद से निकलने की राह दिखाना और आनंद को उपलब्ध होना हो तो श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान आत्मसात करना होगा। इसलिए श्री हरि के इन दोनों ही अवतारों के जीवन की  शिक्षा हमारे अवसाद रहित और मर्यादित जीवन के लिए उपयोगी हैं।
आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, April 15, 2019

रामकथा-50

रामकथा-50
विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु  माया गुन गो पार।।1/192।।
        कौशल्या के श्रीहरि राम रूप में आये हैं। भरत श्रीहरि के शंख, लखन शेषनाग और रिपुदमन श्रीहरि के पद्म रूप हैं।इस प्रकार श्रीहरि ने त्रेता में अपने भक्तों को अभय करने के लिए और जय विजय जो कि रावण और कुम्भकरण के रूप में असुर हैं, उनको असुर शरीर से दूसरी बार मुक्त करने के लिए अवतार लिया है। चाहे श्रीहरि सभी शक्तियों से युक्त होते हों, उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग करने के लिए मनुष्य रूप में ही अवतरित होना पड़ता है। परमपिता सभी प्रकार की शक्तियों के स्रोत होने के उपरांत भी "न करोति न लिप्यते" हैं और इस बात का पूर्ण रूप से पालन भी करते हैं। इसीलिए उनको इस पृथ्वी पर भक्तों को भयमुक्त करने के लिए अवतार लेना पड़ता है।
         श्री हरि के अवतार रूप भगवान श्री राम ने भी मानवोचित व्यवहार करते हुए लीला की है। इस लीला को करने की पृष्ठभूमि अवतरित होने से पहले ही तैयार कर ली गई थी।नारद ने ही उनके त्रेता के अवतरित जीवन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी हालांकि इसको तैयार करने के पीछे श्रीहरि की ही इच्छा थी। वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं साथ ही वे भक्तों के पतन को भी रोकते हैं। श्रीराम के मनुष्य जीवन की लीला अब सनकादिक ऋषियों के द्वारा जय विजय को दिए गए श्राप और परम भक्त नारद द्वारा स्वयं को मिले श्राप के अनुसार चलेगी क्योंकि भक्तों के कथन को भगवान सदैव सत्य ही सिद्ध करते हैं।
       भगवान अपनी लीला बाल्य काल से प्रारम्भ करते हैं और ऋषि मुनियों को राक्षसों के भय से मुक्त करते हुए असुरों तक पहुंचकर अपने जय विजय पार्षदों को दूसरी असुर योनि से मुक्त कर अपनी लीला का संवरण करते हैं।
कल समापन कड़ी-
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, April 14, 2019

रामकथा-49-

रामकथा-49
यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं
                 ते न परहिं भव कूपा।।
       राम जन्म का चरित्र जो कोई भी मनुष्य गाता है, वह उस परम पद को प्राप्त कर लेता है, जिसको प्राप्त कर लेना ही इस जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। परम पद पाने का अर्थ है, जीवन मुक्त हो जाना।यहां आकर एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या केवल प्रभु के चरित्र का गान ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है? नहीं, हम सब गान का अर्थ मुंह से उच्चारित शब्दों से ले रहे हैं। मुंह से उच्चारित शब्द अगर मुक्त कर सकते तो संसार के सभी पिंजरे में बंद तोते कभी के मुक्त हो गए होते। वे भी तो पिंजरे के बंधन में जीते हुए  राम राम बोलते रहते हैं। राम का चरित्र गाने का अर्थ केवल बोलने की क्रिया से ही न लें, वह क्रिया तो एक आडंबर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।जब राम का चरित्र आप अपने जीवन में उतार लेते हैं,तब आपके भीतर से जो स्वर फूटते हैं, वास्तव में वही उन प्रभु के चरित्र का गान है। इस गान में आपकी जिव्हा साथ दे अथवा नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। केवल भीतर से उठने वाला स्वर ही आपको आनंदित कर सकता है अन्यथा एक तोते और आपमें कोई अंतर नहीं है। 
        राम के चरित्र को अपनाने का अर्थ है स्वयं के जीवन को राम के जीवन जैसा बना लेना है।राम साक्षात श्रीहरि हैं जो कि वैकुंठ के वासी है। वैकुंठ इस ब्रह्मांड से अन्यत्र कोई स्थान नहीं है। हम हाथ उठाकर ऊपर की ओर संकेत अवश्य करते हुए कह देते हैं कि वो ऊपर बैठा सब कुछ  देख रहा है। कोई नहीं है वैकुंठ यहां से ऊपर।वैकुंठ का अर्थ है, बिना कुंठा (frustration) का जीवन। कुंठा पैदा होती है मन चाहा न होने के कारण अर्थात कामनाएं ही कुंठाओं की जननी है। वैकुंठ अर्थात जिसके भीतर कोई कामना नहीं है।अतः जिसके जीवन में कुंठा नहीं है, उसके लिए यहीं इस संसार में ही वैकुंठ है। इसी को हरि पद पाना कहते हैं। जिसके जीवन में कुंठाएं भरी पड़ी है, उसके लिए यह संसार ही एक कुआं है अर्थात भवकूप। कुआं भी इतना गहरा की मेंढक की तरह छलांग पर छलांग लगाते रहो, बाहर निकल नहीं पाओगे, इस जन्म में ही क्या अनंत जन्मों में भी नहीं।आप भगवान राम के जीवन को देख लीजिए, न कोई कामना न कोई कुंठा। उनके जैसा जीवन जो मनुष्य जीने लग जाता है वही हरि पद का अधिकारी हो सकता है।जिसके मन में कोई कामना नहीं है, उसका मन ही वैकुंठ है और वहीं परमात्मा भी निवास करते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, April 13, 2019

रामकथा-48

रामकथा-48-रामजन्म-
नौमी तिथि मधुमास पुनीता।
शुक्ल पच्छ अभिजीत हरि प्रीता।।
मध्य दिवस अति सीत न घामा।
प्रगटे अखिल लोक बिश्रामा।।
      चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि, दोपहर का समय, न अधिक शीत और न ही अधिक गर्मी, सुहावनी ऋतु, बयार मंद मंद गति से बह रही है, कौशल्या प्रसव पीड़ा में है और श्रीहरि संसार को भयमुक्त करने हेतु प्रकट हो रहे हैं।
"भये प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी..."
        अचानक  कौशल्या का कक्ष प्रकाश से भर जाता है।कौशल्या की आंखे चौंधिया जाती है।कौशल्या धीरे धीरे अपने नयन पट खोलती है। सामने चतुर्भुज रूप में साक्षात श्रीहरि दिखलाई पड़ते हैं।चतुर्भुज स्वरूप श्रीहरि का सौम्य रूप है।
"माते, अपने नयन खोलिये, मैं आ गया हूँ आपका पुत्र बनने के लिए। आपने कहा था न कि पुत्र रूप में आने से पहले मैं आपको चतुर्भुज रूप में दर्शन दूँ। आपको स्मरण नहीं है परंतु मैंने अपने कथन को विस्मृत नही होने दिया है।"श्री हरि बोले।
      इतना सुनते ही मानो कौशल्या के भीतर पूर्वजन्म की शतरूपा जीवित हो उठी हो। उनकी स्मृति में अपने तपस्या काल की एक एक बात सक्रिय हो उठी। "हाँ, वरदान में आप जैसा ही पुत्र मांगा था मैंने। आपने ही तो कहा था, मेरे जैसा पुत्र आपके लिए कहाँ से लाऊं, मुझे स्वयं को ही आपका पुत्र बनने के लिए आना होगा।मेरी तपस्या सफल हो गई। मैं कृतार्थ हो गई।परंतु यह क्या, मैंने जी भर कर आपके चतुर्भुज रूप के दर्शन कर लिए हैं। अब शीघ्र ही अपनी शिशु लीला प्रारम्भ कीजिये प्रभु।
"सुनी बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा।"
       इस प्रकार कौशल्या के वचन सुनकर श्रीहरि गर्भ में प्रवेश कर गए और उनके गर्भ से पुत्ररूप में जन्म ले लिया। कौशल्या के साथ ही साथ कैकयी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया और सुमित्रा भी उसी समय दो पुत्रों की मां बनी। राजा दशरथ की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा । वे अपने मुख से कह तो रहे हैं कि मेरे घर साक्षात प्रभु आये हैं परंतु उन्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति अभी तक नहीं है कि वास्तव में साक्षात परमात्मा ही उनके घर पुत्र रूप में अवतरित हुए हैं।
         संसार में जब भी कोई शिशु जन्म लेता है निश्चित मानिए, प्रत्येक बार परमात्मा ही अवतरित होते हैं। प्रत्येक जननी कौशल्या ही है, प्रसवपीड़ा में केवल और केवल श्रीहरि का स्मरण ही करे तो भला परमात्मा अवतरित क्यों नहीं होंगे? संसार में जन्म लेकर ही परमात्मा अपने अलग अलग स्वरूप में प्रत्येक शिशु में प्रकट होते हैं।हमारी भेद दृष्टि ही उनको कुछ का कुछ देखने लगती है, परमात्मा तो सबमें समान रूप से विराजमान हैं।
   आप सभी को रामजन्म की बधाई और रामनवमी के पुनीत अवसर पर शुभकामनाएं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, April 12, 2019

रामकथा-47-

रामकथा-47-अयोध्या की ओर-
       अयोध्या में सूर्यवंश का शासन है। रघुवंश की चौथी पीढ़ी के राजा दशरथ अभी सत्तासीन हैं। उनके तीन महारानियाँ हैं-कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा। राजा दशरथ पूर्वजन्म में वही मनु और शतरूपा थे, जिन्होने श्रीहरि जैसा पुत्र तपस्या के फल स्वरूप मील वरदान में मांगा था। श्रीहरि अपने जैसा पुत्र कहाँ से लाते? हम अपने जीवन में इतनी अधिक आसक्तियों, अधूरी कामनाओं और कर्मों से भरे होते हैं कि श्रीहरि के समकक्ष तो क्या, दूर दूर तक इनके आसपास तक पहुँचने की संभावना तक नहीं होती।ऐसे में भला श्रीहरि वर में अपने जैसा पुत्र देने का आश्वासन दे भी कैसे सकते थे?इसीलिए परमात्मा ने तुरंत ही कह दिया कि मेरे जैसा पुत्र कहाँ से लाऊं, मुझे ही आपका पुत्र बनकर आना होगा।
     तीन तीन महारानियाँ होते हुए भी राजा दशरथ संतान सुख से अभी तक वंचित हैं। आखिर अपनी व्यथा एक दिन मुनि वसिष्ठ के समक्ष व्यक्त कर दी। पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण करने के लिए यज्ञ और अनुष्ठान संपन्न किया गया। यज्ञ में रखे पात्र के जल को महारानियों को पीने के लिए दिया गया।तीनों रानियों ने प्रसन्नतापूर्वक जल ग्रहण किया। समय पाकर तीनों रानियां गर्भवती हुई। समय अपनी गति से दौड़ा चला जा रहा था।सभी रघुवंश के उत्तराधिकारी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। दशरथ कौशल्या को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं है कि स्वयं श्रीहरि उनके घर पुत्र बनकर अवतरित होने वाले हैं।उनको तो केवल अपने वंश के नए उत्तराधिकारी के आने का इंतज़ार है जबकि देवतागण, धरा,ब्रह्माजी, ऋषि मुनि सभी आतुरता से अयोध्या की ओर देख रहे हैं। देखे भी क्यों नहीं, आखिर उनके रक्षक, जगत के पालनहार अवतार जो लेने वाले हैं।
        महारानियों के गर्भकाल की अवधि पूर्ण होने की ओर अग्रसर है। अंततः वह समय भी आ ही गया। प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हुई, किसी भी समय राजा दशरथ को शुभ समाचार मिल सकता है। अवध को यह अवधि बड़ी धीमी गति से चलती नज़र आ रही है।सत्य है, प्रतीक्षा में समय की गति मंद हुई प्रतीत होती ही है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, April 11, 2019

रामकथा-46-रामावतार के हेतु-


रामकथा-46-रामावतार के हेतु-
      असुर किसको कहते हैं?असुरों के कोई सींग पूंछ नहीं होते, यह सब जो चित्रों में दिखाया जाता है,सब काल्पनिक है।असुर भी दिखने में साधारण मनुष्यों की भांति ही होते हैं। केवल गुण और अवगुण की मनुष्य में उपस्थिति ही उसे सुर अथवा असुर दोनों में से किसी एक श्रेणी में रखती है। इसी आधार पर गोस्वामी जी ने मानस में असुरों की परिभाषा स्पष्ट की है-
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा।
जे लंपट परधन परदारा।।
मानहिं मातु पिता नहीं देवा।
साधुन्ह सन करवाहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी।
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।।1/184/1-3।।
खल,चोर, जुआरी,पराए धन और पराई स्त्री पर दृष्टि रखना, माता-पिता की अवहेलना करना, सज्जन पुरुषों से अपनी सेवा करवाना आदि प्रकार के आचरण करने वाले सभी व्यक्ति असुरों की श्रेणी में आते हैं।त्रेता में ऐसे प्राणी जब बढ़ने लगे तब धरा के लिए उनका बोझ असहनीय हो गया।पृथ्वी भी उस टीम में शामिल थी जिसमें देवता आदि सभी ब्रह्माजी के पास सहायता के लिए पहुंचे थे।ब्रह्माजी ने इसके लिए श्रीहरि के पास प्रार्थना पत्र देने को कहा। परंतु कहाँ मिलेंगे श्रीहरि?
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहि मैं जाना।।
     ब्रह्माजी सहित सभी देवता,पृथ्वी आदि सामूहिक रूप से सस्वर मन से श्रीहरि को पुकारने लगे।जय जय सुरनायक जन सुख दायक प्रनत पाल भगवंता.....।श्रीहरि को आना तो था ही, वे तो केवल अपने भक्तों की पुकार सुनने को ही आतुर थे। तत्काल ही आकाशवाणी हुई-"कश्यप अदिति, मनु शतरूपा को मैंने पूर्व में वरदान दिया था जोकि अभी अयोध्या में दशरथ कौशल्या के रूप में हैं, कि मैं उनका पुत्र बनकर अवतार लूंगा। साथ ही मुझे अपने परम भक्त नारद के वचनों को भी सत्य सिद्ध करना है।ऋषियों के दिये श्राप से बने असुर भूमि के लिए भार बन चुके हैं, उनसे भी मुक्ति दिलानी है।आप सभी निर्भय होकर अपने निवास और कार्य पर जाओ।आपका कार्य शीघ्र ही सिद्ध होगा।"श्रीहरि ने सभी को भयमुक्त करने के लिए ये वचन कहे। सभी उनके द्वारा हुई आकाशवाणी को सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए।शेष सभी भी अपने अपने स्थान पर लौट गए और प्रभु के अवतरण की प्रतीक्षा करने लगे।
    तो आइए, हम भी चलते हैं, अयोध्या की ओर, जहां परमब्रह्म साकार रूप लेकर राम के नाम से अवतरित होने वाले हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, April 10, 2019

रामकथा-45-रामावतार के हेतु-

रामकथा-45-रामावतार के हेतु-
        जय विजय के असुर हो जाने की यात्रा हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप के प्रथम पड़ाव को पार कर रास्ते में प्रतापभानु,अरिमर्दन होते हुए अपने दूसरे पड़ाव रावण कुम्भकरण को पहुँच चुकी है।जहां से उन्हें श्रीहरि एक बार फिर असुर योनि से मुक्त कर  तृतीय पड़ाव शिशुपाल और दन्तवक्त्र होने की ओर धकेलेंगे।असुरों की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि वे तपस्या बहुत करते हैं, देवताओं की तुलना में तो कहीं बहुत ही अधिक। देवता तो केवल भोगों में रत ही रहते हैं, उनके पास हरि को भजने का समय ही कहाँ है? हाँ,पूर्व मानव जन्म के सद्कर्मों का ही यह प्रभाव है कि संकट पड़ने पर सभी देवता श्रीहरि के दरबार में तत्काल ही पहुंच भी सकते हैं।
     देवता भोग में रत रहते हैं और असुर तपस्या कर ब्रह्माजी आदि से वरदान प्राप्त कर अहंकार पाल बैठते हैं।रावण ने आशीर्वाद लिया ब्रह्माजी से कि हम असुर केवल मनुष्य और वानर के अतिरिक्त किसी अन्य से न मारे जाएं। ब्रह्माजी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि असुरों को ऐसा आशीर्वाद को दे देने से कहीं उनका पहला आक्रमण संत पुरुषों, ऋषि मुनियों और देवताओं पर ही तो नहीं हो जाएगा? जो ब्रह्मा जी ने नहीं सोचा वही असुरों ने किया।वर पाकर असुरों ने साधु, ब्राह्मण, ऋषि, मुनि किसी को नहीं छोड़ा और लगे सबका संहार करने। जब दावानल धधकती है तो जंगल में कोसों दूर रहने वाले पक्षी भी चिंतित होकर अपना घोंसला छोड़ देते हैं।ऐसा ही देवताओं के साथ भी हुआ।ऋषि,मुनि, साधु जन,ब्राह्मणों आदि का संहार देखकर देवताओं में चिंता व्याप गई। उन्हें यह सीधा सीधा अपने ऊपर आक्रमण लगा।भोगों में रत रहने के कारण देवता लोग प्रतिरोध करना तक भूल गए थे।इधर ब्राह्मण, ऋषि-मुनि, साधु,संसार के सभी प्राणी राक्षसों से त्रस्त।क्या किया जाए?पहुंच गए ब्रह्माजी के पास। "अरे, मैं भी क्या करूँ?मैंने ही राक्षसों के तप से उपजी प्रसन्नता के अतिरेक में आशीर्वाद दे दिया था।अब तो हम सबका केवल एक ही आश्रय है, श्रीहरि। श्रीहरि को आर्तभाव से पुकारो, वे ही अब कुछ कर सकते हैं।" ब्रह्माजी ने तो इतना कहकर एक बार के लिए अपना पीछा छुड़ा लिया।
          हाँ, इस संसार में सबका आश्रय एक ही तो है, श्रीहरि । परंतु न जाने हमें सुख के दिनों में यह आश्रय क्यों दिखलाई नहीं पड़ता? संकट आया तो श्रीहरि, सुख मिला तो 'मैं, मैंने और मेरा'। श्रीहरि तो परमपिता है, संतान कुपात्र हो सकती है, पिता नहीं।उनको तो अपनी सभी त्रस्त संतानों को संकट से मुक्ति दिलानी ही पड़ती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, April 9, 2019

रामकथा-44-रामावतार के हेतु-

रामकथा-44-रामावतार के हेतु-
      इतना सब कुछ होने के बाद ही कहीं जाकर नारद मुनि को श्रीहरि की माया का बोध हुआ। पश्चाताप करते हुए कहने लगे कि मेरा श्राप व्यर्थ चला जाये। श्रीहरि ने कहा - नहीं, यह श्राप आपने नहीं दिया है बल्कि मैंने ही आपसे दिलवाया है क्योंकि मेरी ऐसी इच्छा थी।"मम इच्छा कह दीनदयाला।।" नारदजी ने कहा-"भगवन,सम्पूर्ण ब्रह्मांड में आपकी इच्छा से ही सब कुछ होता है, यह भी आपकी इच्छा से ही हुआ होगा। परंतु श्राप देने से मेरा हृदय बड़ा अशांत हो गया है।आप मुझे शांति का कोई मार्ग दिखलाई नहीं पड़ रहा है। मैं क्या करूं, कहाँ जाऊं? कृपा कर कोई तो मार्ग दिखलाइये।"
      हम भी इसी प्रकार क्रोध में आकर किसी को भी कुछ का कुछ बोल देते है परंतु जब बोध होता है तब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता। कमान से छूटा तीर और मुख से निकले वचन कभी भी लौटाए नहीं जा सकते। हाँ, केवल अशांत मन को शान्ति प्रदान करने का कोई उपाय किया जा सकता है।
    श्रीहरि ने हृदय की विश्रांति का मार्ग दिखलाते हुए नारदजी को कहा-
जपहु जाहु संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरत विश्रामा।।
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
        शंकर जगतपति हैं, श्रीहरि परमपिता। जगतपति ने यह संसार बनाया है।इस संसार में रहते हुए जो जगतपति के बनाये नियमों का पालन करते हुए अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर रहता है वही परमपिता तक पहुंच सकता है।जिस पर शम्भू की कृपा नहीं होती वह परमात्मा की भक्ति को भी प्राप्त नहीं हो सकता।जिस पर शंकर भगवान की कृपा नहीं होगी वह केवल संसार के मक्कड़ जाल में ही उलझकर रह जाता है, परमात्मा की भक्ति की ओर अग्रसर तक नहीं हो पाता है।
     इस प्रकार अब परमब्रह्म के इस धरा पर अवतार लेने की पृष्ठभूमि लगभग तैयार हो चुकी है।उनके साकार स्वरूप को धारण करने के लिए स्थान, माता-पिता, उद्धार के लिए असुर सब कुछ निश्चित हो चुका है।धरा पर लीला करने के लिए घटना क्रम भी लगभग निश्चित हो चुका है। देरी केवल एक बात की ही है, कोई आर्तभाव से उन्हें पुकारे तो सही।अवतार लेंगे ज्ञानी भक्तों के लिए परंतु आर्त भक्तों की पुकार का भी उन्हें सदैव इंतज़ार रहता ही है।ज्ञानी भक्त तो उन्हें सदैव स्मृति में बनाये रखते ही हैं, कभी उनसे कुछ मांगते नहीं हैं।भक्तों की पुकार को सुनने की इच्छा परमात्मा को सदैव रहती ही है।पुकार सुनते ही वे दौड़े चले आते हैं । इसलिए अवतार लेने के लिए पुकार महत्वपूर्ण है जबकि ज्ञानी भक्तों को कष्टों से मुक्ति दिलाना अवतार लेने का मूल उद्देश्य है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, April 8, 2019

रामकथा-43-रामावतार के हेतु-

रामकथा-43-रामावतार के हेतु-
       दोनों रुद्रगण नारद मुनि को प्रणाम कर तुरंत ही वहां से चले गए। ऋषि का श्राप खाली नहीं जा सकता अतः उन दोनों का अब राक्षस बनना निश्चित हो गया था। व्याकुल नारदजी वहां से चलकर पास ही स्थित जलाशय तक आये और अपना प्रतिबिम्ब जल में देखा। देखते ही मानो क्रोध से पागल हो गए हों।क्रोध के कारण उनके होठ फड़फड़ाने लगे और मन ही मन श्रीहरि को खरी खोटी कहते हुए उनसे मिलने बैकुंठ की ओर चल पड़े।अभी ज्यादा दूर चले ही नहीं होंगे  कि सामने से श्रीहरि लक्ष्मीजी के साथ आते दिख गए। श्रीहरि के गले में वही जयमाला पड़ी थी जो राजकुमारी ने स्वयम्बर में अपने हाथों में ले रखी थी। यह क्या, श्रीहरि के साथ में  रमाजी के साथ वह राजकुमारी विश्वमोहिनी भी है। तीनों को एक साथ देखते ही मुनि क्रोध से उबल पड़े।श्रीहरि मुस्कुराते हुए नारदजी से बोले - "मुनीश्वर, विकल होकर कहाँ जा रहे हो?" इतना सुनते ही नारदजी का धैर्य जवाब दे गया।
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा।
माया बस न रहा मन बोधा।।1/136/6।।
     मुनि नारद बोल पड़े,"अपने आप को क्या समझते हैं? यहां आप चाहोगे केवल वही होगा क्या? समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी को तो स्वयं आपने अपने पास रख लिया और बेचारे भोले भाले शम्भू को विष पिलवा दिया।कुटिलता तुम्हारे भीतर प्रारम्भ से ही भरी है।आज इसी राजकुमारी को पाने के लिए मैंने आपसे सुंदर शरीर मांगा था और आपने बदले में यह बंदर की सी देह दी है न। पहले की कह देते कि राजकुमारी से विवाह आप करना चाहते हैं।अब सुनो, आज जिस प्रकार मैं स्त्री विरह में विकल हूँ, एक दिन तुम्हें भी ऐसे ही अपनी पत्नी के विरह में व्याकुल होना पड़ेगा। इतना ही नहीं, जिस बंदर की देह को आपने निम्न स्तर की मानकर मुझे दी है, ऐसे ही बंदर एक दिन आपके लिए सहायक सिद्ध होंगे।" इतना कहकर नारदजी चुप हो गए। श्रीहरि ने सिर झुकाकर उनका श्राप स्वीकार किया। तत्काल ही श्रीहरि ने अपनी माया समेट ली। अब न तो वहां उनके साथ लक्ष्मी थी और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी।देवऋषि का शरीर भी पुनः अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त हो गया था।
       इसी प्रकार श्रीहरि की माया हमारे दृष्टिपटल पर भी एक प्रकार का आवरण डाल देती है जिसके कारण हम केवल वही देख पाते हैं जो हमारा मन देखना चाहता है।ज्ञान माया के तले दबा केवल सिसकियां भरते रह जाता है।इस माया के जो पार चला जाता है केवल वही परमात्मा को पा सकता है। यही आत्मज्ञान है। कबीर ने इसीलिए माया को महाठगिनी कहा है। आज प्रभु की इसी माया ने उनके परमभक्त नारदजी तक को भी ठग लिया है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, April 7, 2019

रामकथा-42-रामावतार के हेतु-

रामकथा-42-रामावतार के हेतु-
     शीलनिधि राजसभा में सिंहासन पर विराजमान है। सामने विभिन्न राज्यों से आये नृप बैठे हैं। किसी भी समय विश्वमोहिनी राजकुमारी हाथ मे वरमाला लेकर अपना वर चुनने को राजसभा में प्रवेश कर सकती है।राजाओं में नारदजी भी एक प्रतिभागी के रूप में बैठे हैं।उनके पास हर के दो गण विप्र वेश में बैठे हुए हैं।दोनों ही रुद्रगण नारदजी की विशाल मरकट की सी देह देखकर हंस रहे हैं । नारदजी को अनुमान तक नहीं है कि वे कुरूप प्रतीत हो रहे हैं, वे तो स्वयं को संसार के सर्वाधिक सुंदर व्यक्ति समझे बैठे हैं।
     तभी विश्वमोहिनी का राजसभा में प्रवेश होता है। जयमाला उसके हाथों में है, नारदजी की ओर दृष्टि डालते ही भय से अपने मुंह को फेर कर दूसरी दिशा में बैठे राजाओं की ओर चली जाती है। बार बार नारदजी उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं परंतु वह उनकी ओर दृष्टि तक नहीं डालती। नारदजी की क्रियाओं को देखकर विप्रवेश धारी गण जोर जोर से हंसते हैं।तभी एक अतिसुन्दर राजा वहां आते हैं, उन्हें देखते ही राजकुमारी उनके गले में वरमाला डाल देती है। तत्काल ही वह राजा विश्वमोहिनी को लेकर अपने निवास स्थान को प्रस्थान कर जाते हैं। नारदजी एकदम से निराश हो जाते हैं। उनका नैराश्य भाव उन्हें अत्यधिक व्याकुल कर देता है। क्या तो सोचा और क्या हो गया। हे नारायण ! आपने मेरे पक्ष में सब कुछ होने क्यों नहीं दिया?
      व्याकुल नारदजी को देखजत दोनों रुद्रगण हंसते हुए उनका उपहास करते हुए कहते हैं-"देखी है अपनी बंदर जैसी देह।चले थे विश्वमोहिनी को वरने। जरा अपनी शक्ल को तो देखो।" नारद मुनि को क्रोध आ गया, दोनों को श्राप दे डाला-"जाओ, दोनों राक्षस हो जाओ। एक मुनि पर हंसते हुए तुम्हें लज्जा भी नहीं आती। भविष्य में किसी का उपहास करने से पहले दस बार सोचोगे। तुम्हारे हंसने की यही सजा है।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, April 6, 2019

रामकथा-41-रामावतार के हेतु-

रामकथा-41-रामावतार के हेतु-
         भूलोक पर पहुंचते ही नारदजी देखते हैं कि एक  नगर में वहां के राजा शीलनिधि  की अति सुन्दर कन्या राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा है | उस नगर में पहुंचकर वे राज निवास गए | शीलनिधि ने अपनी कन्या का हाथ देखकर उनसे उसका भविष्य बतलाने का आग्रह किया | हस्त-रेखा पढ़कर देवर्षि समझ गए थे कि इस कन्या का वर तो श्रीहरि के समान ही कोई होगा | उन्होंने उसके भविष्य फल में से थोड़ा कुछ अपने मन में छुपाकर रख लिया क्योंकि वे तो राजकुमारी को देखते ही उसके रूप में मोहग्रस्त हो गए थे | मोह ग्रस्त होना अर्थात मन में अज्ञान का प्रवेश।उनके मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई कि क्यों न स्वयंवर में राजकुमारी उन्हें ही वर के रूप में चुने और जयमाला पहनाये | परन्तु ऐसा होना इतना आसान भी नहीं था | सब कुछ राजकुमारी विश्वमोहिनी के द्वारा किये जाने वाले चयन पर निर्भर था | सुंदर रूप पाने के लिए दीर्घावधि तक कर्म कांड करने की आवश्यकता होती है और इधर स्वयंवर कल ही होना निश्चित था। कर्म कांड के लिए समय कम था।इस प्रकार देवर्षि नारद के सामने केवल एक ही रास्ता था | अभी अभी वे वैकुंठ से लौटे ही तो हैं। क्यों न श्रीहरि से प्रार्थना कर तत्काल ही अपने लिए उनसे उन्हीं जैसा सुंदर रूप माँग लूँ। परमात्मा के स्वरूप को वही उपलब्ध हो सकता है जिसको वे स्वयं उपलब्ध कराना चाहते हों।
      रूपजाल और स्त्री मिलन का मोह कभी कभी इतना सीमा का अतिक्रमण कर जाता है कि व्यक्ति अपना भला बूरा समझता ही नहीं है। कोई भी व्यक्ति चाहे काम को कितनी बार भी जीत चुका हो, उसे काम फिर भी कभी न कभी अपने जाल में फंसा सकता है।
        नारदजी श्रीहरि से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु, आप मुझे आपके जितना सुन्दर रूप दे दीजिये | आप वह सब कुछ कीजिये जिससे राजकुमारी विश्वमोहिनी मुझे ही वर के रूप में स्वीकार करे | श्री हरि ने देवर्षि को कहा कि ‘मैं वह सब कुछ करूँगा जिसमें तुम्हारा हित निहित होगा | तुम्हारे हित के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगा |’
        श्रीहरि ने यह नहीं कहा कि मैं अपना रूप दे दूंगा, बल्कि यह कहा कि तुम्हारा हित जिस कार्य को करने में होगा, मैं वैसा ही होना निश्चित करूंगा।
कुपथ माग रूज ब्याकुल रोगी।
बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।।1/133/1।।
   रोगी वैद्य से अपनी रूचि के अनुसार खाने को मांगता है जो कि उसके लिए कुपथ्य है।वैद्य उसको वह वस्तु खाने को कभी नहीं देता है। नारद मुनि को श्रीहरि ने एक दम स्पष्ट कर दिया कि वे क्या करने जा रहे हैं परंतु नारद नहीं समझ सके क्योंकि स्त्री के प्रति पैदा हुई आसक्ति ने देवर्षि  को अंधा जो बना दिया था।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
नववर्ष 2076 सभी के लिए शुभ हो। आप सभी को इस वर्ष की शुभकामनाएं।
।।हरि:शरणम्।।

Friday, April 5, 2019

रामकथा-40-रामावतार के हेतु-

रामकथा-40-रामावतार के हेतु-
        थकहार कर मदन नारदजी के पैरों में गिर पड़ा और अपने उद्देश्य के प्रति क्षमा मांगने लगा।विशाल हृदय नारदजी ने कामदेव को क्षमा कर दिया।कामदेव लौट गया। नारदजी को अनुभव हुआ कि उन्होंने काम को जीत लिया है।बड़े खुश हुए।एक तो जीत का प्रभाव और दूसरा पृथ्वी लोक का असर, नारदजी आत्ममुग्ध हो गए। चल पड़े इंद्र लोक और करने लगे आत्म प्रशंसा।वे सभी देवताओं को अपनी उपलब्धि बताते हुए आत्मप्रशंसा कर रहे थे | इंद्र ने भी उनकी प्रशंसा की, आखिर उनको अपने पद की रक्षा जो करनी थी। इंद्रसभा से नारदजी गए कैलाश, शम्भू के पास। वहां पर भी शंकर को अपनी काम विजय का वर्णन करने लगे।भगवान शंकर ने उन्हें चेताया भी कि मुझे तुम जो यह सब काम-विजय की गाथा सुना रहे हो न उसे
श्रीहरि को जाकर मत बताना | देवर्षि तो काम-विजय के मद में चूर थे | भला वे शिव की बात को सुनने वाले कहाँ थे ? पहुँच गए बैकुण्ठ, श्रीहरि के दरबार में और करने लगे उनके समक्ष आत्मप्रशंसा | श्रीहरि ने भी स्वीकार किया कि आप जैसा कोई नहीं है, जो काम को जीत सका हो परन्तु नारद कहाँ रुकने वाले थे | वे तो लगातार अपनी प्रशंसा किये जा रहे थे |
                 परमात्मा की एक बहुत बड़ी विशेषता है | वे संसार में सब कुछ सहन कर सकते हैं परन्तु अपने भक्त का पतन उनको सहन नहीं होता | नारद जी ठहरे भगवान के परम भक्त | सदैव तीनों लोकों में ‘नारायण-नारायण’ का जप करते हुए घूमते रहते हैं | श्रीहरि ने देखा कि अहंकार के कारण मेरे भक्त नारद का पतन हो रहा है, उसको इस प्रकार पतित होने से रोकना होगा | नारद जब बैकुण्ठ में श्री हरि के सामने आत्मप्रशंसा करते-करते थक गए तो उन्होंने परमात्मा को प्रणाम कर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर जाने के लिए आज्ञा मांगी | श्री हरि की स्वीकृति पाकर वे ‘नारायण-नारायण’ का जप करते हुए पृथ्वी-लोक के लिए चल पड़े | तुरंत ही वे पृथ्वी लोक में पहुँच भी गए |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, April 4, 2019

रामकथा-39-रामावतार के हेतु-

रामकथा-39-रामावतार के हेतु-
        मध्य में स्थित पृथ्वीलोक पर नारदजी की समाधि और उसका प्रभाव उच्च लोक स्वर्ग तक। इंद्र को आभास हुआ जैसे कि उसका सिंहासन डोल रहा हो। "हाँ, वैसे तो नारदजी स्वर्ग में कभी भी आ जा सकते हैं,परंतु कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे स्वर्ग का राज्य ही मुझसे छीन लेना चाहते हों?" इंद्र का चिंतामग्न होना ही संकेत कर रहा है कि उनके मन में कोई गहन चिंतन चल रहा है। जिसके मन में जैसा होता है, वह अपनी सोच के अनुसार दूसरे के मन में भी वैसा ही होने का अनुमान लगा लेता है। हम बुरे हैं तो सामने वाला हमें बुरा नज़र आएगा ही।देश की व्यवस्था खराब है,इसका एक ही अर्थ है कि हम स्वयं खराब हैं। जब हम स्वयं अपने आपको सुधार लेंगे तो देश की व्यवस्था भी अपने आप सुधर जाएगी।
      इंद्र के चिंतन ने उसे विवश कर दिया, नारदजी की समाधि को तोड़ने के लिए । एक ही रास्ता है, इंद्र के समक्ष कि कामदेव का उपयोग किया जाए। आदेश मिलते ही चला पड़ा कामदेव भू लोक की ओर, साथ में रंभा आदि अप्सराओं को लेकर। कुछ ही समय में कामदेव आ पहुंचा पृथ्वी लोक, निकाले अपने तरकश तीर और एक एक कर छोड़ने लगा नारदजी पर।समाधिस्थ नारदजी के समक्ष सुगंधित द्रव्यों का लेप की हुई अप्सराएं विविध प्रकार के नृत्य-गान कर रही हैं। परंतु सभी प्रयास विफल। यह क्या, नारदजी की अखण्ड समाधि पर किसी भी प्रयास का कोई प्रभाव नहीं।आज "नारायण कवच" ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि इस कवच को पहन लेने वाले को कोई भी तीर घायल नहीं कर सकता।नारदजी ने हजारों वर्षों से "नारायण कवच" को धारण कर रखा था, भला कामदेव के तीर उनके हृदय को बिना नारायण की इच्छा के कैसे भेद पाते। निराश होकर कामदेव ने नारदजी के समक्ष हार स्वीकार कर ली।
सीम कि चाँपि सकइ कोइ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू।।1/128/8।।
        नारदजी को नारायण पर श्रद्धा और विश्वास था,इसलिए नारायण स्वयं उनके कवच बने। हम दिन भर तो मिलने जुलने वाले से "नारायण नारायण" कह कर मिलते हैं परंतु यह नाम हमारे लिए केवल एक तोता रटन्त बन कर रह गया है। नारायण बोलने का अर्थ है, आपके भीतर बैठे नारायण को मैं प्रणाम करता हूँ। जिस दिन इस बात को हम अपने भीतर तक उतार लेंगे, यह नाम  हमारे लिए भी "नारायण कवच" बन जायेगा।फिर जिस किसी का भी हम नारायण कहकर अभिवादन करेंगे, वह शुद्ध अंतर्मन से ही होगा, दिखावे के तौर पर नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, April 3, 2019

रामकथा-38-रामावतार के हेतु-

रामकथा-38-रामावतार के हेतु-
         सुंदर स्थान को देखकर नारदजी भी हिम पर्वत की गुफा में थोड़ी देर के लिए बैठ गए। प्रकृति की सुंदरता परमात्मा की उपस्थिति का केवल आभास ही नहीं कराती बल्कि उनके अस्तित्व को भी सिद्ध करती है। नारदजी के मुख से तो सदा नारायण नाम का उच्चारण चलता ही रहता था। प्रकृति की गोद में बैठे बैठे उन्हें साक्षात परम पिता की गोद में बैठे होने जैसा अनुभव हुआ।इसी के साथ वे गहरी अखंड समाधि में चले गए। समाधि भी ऐसी गहरी कि उन्हें स्थान, समय और स्वयं का भी ध्यान नहीं रहा। सत्य है, किसी बात का भी ध्यान में न आना ही वास्तव में ध्यानस्थ होना है, समाधिस्थ होना है।
       तीनों लोकों में विचरण करने वाले नारदजी अगर कुछ समय के लिए पाताल लोक में नहीं गए तो इससे पाताल वासियों को कोई फर्क नहीं पडने वाला परंतु जब वे उच्च लोक अर्थात स्वर्गलोक में भी कई वर्षों तक नहीं पहुंचे तो देवता लोग चिंतित हो उठे। आप यह न मान लेना कि चिंतित होने का अधिकार केवल हम पृथ्वी वासियों का ही है। हम पृथ्वी लोक के वासियों से अधिक चिंतित तो स्वर्ग लोक के निवासी होते हैं।     पृथ्वीलोक में हमें भोग, रोग और योग तीनों सरलता से उपलब्ध हैं परंतु स्वर्ग लोक में तो केवल भोग ही भोग उपलब्ध रहते है। वहां न तो रोग मिलता है और न ही योग को उपलब्ध हुआ जा सकता है।जब केवल भोग ही उपलब्ध हो तो इन भोगों पर एकाधिकार के छीने जाने की चिंता भी यदा कदा सताने लगती है। यही एक मात्र कारण है, नारदजी की संधि से स्वर्ग के राजा इंद्र के चिंतित होने का। संसार में जब भी कोई महान पुरुष परमात्मा के लिए ध्यानस्थ होता है, सर्वप्रथम इंद्र को अपना राज पाट छीने जाने का भय सताने लगता है। उसके ध्यान को तोड़ने के लिए उसके पास अकाट्य अस्त्र शस्त्र है, इंद्रलोक की अप्सराएं और स्वयं कामदेव । भला, कामदेव के तीर से इस संसार में कौन घायल नहीं हुआ है? यहां तक कि पार्वती की तपस्या को सिद्ध करने के लिए समाधिस्थ शंकर को भी कामदेव के कारण समाधि त्यागनी पड़ी थी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, April 2, 2019

रामकथा-37-रामावतार के हेतु-

रामकथा -37-रामावतार के हेतु-
         हाँ, तो बात चल रही थी ब्रह्माजी के मानस पुत्र नारदजी की। वे "नारायण नारायण"नाम का जप करते तीनों लोकों में भ्रमण करते रहते हैं। यही तो श्रीहरि के नाम की महिमा है।मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह नाम की महिमा को जानते हुए भी नाम जप को अधिक महत्व नहीं देता है। हम फालतू की क्रियाओं में इस सीमा तक उलझ जाते हैं कि नामजप को महत्वहीन समझने लगते हैं। नामजप से ही नारद को वह क्षमता मिली कि वे तीनों लोकों में निर्बाध रूप से विचरण करते रहते हैं।
         नारद तीनों लोकों में घूमते रहते हैं, अतः स्वाभाविक है कि वे मर्त्य लोक अर्थात पृथ्वी लोक पर भी आते जाते होंगे। पृथ्वीलोक का प्रभाव भी उन पर दिखलाई पड़ता है। एक तो वे इधर की बात उधर अवश्य करते हैं और दूसरे, वे जिस उपलब्धि को अर्जित करते हैं, उस उपलब्धि से वे आत्म मुग्ध हो जाते हैं।उपरोक्त दोनों विशेषताएं भूलोक के निवासियों में प्रायः पाई जाती है।अब भला, इस लोक में आकर नारदजी भी इन विशेषताओं को अपनाने से कैसे अछूते रह सकते हैं।
       इसी प्रकार अपने स्वभावानुसार नारदजी एक बार भूलोक के भ्रमण पर थे। धवल हिम से आच्छादित पर्वत की गुफा, पास ही बहती गंगा नदी, उस क्षेत्र की हरीतिमा और मन्द मन्द बहती बयार को देखकर नारदजी के मन को बड़ी शांति मिली।वे उसी स्थान पर 'नारायण नारायण' नाम का जप करते हुए बैठ गए। सुंदर स्थान अंतःकरण की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देता है, जिससे समाधिस्थ होना शीघ्र संभव हो जाता है। यही कारण है कि सनातन धर्म के तीर्थ प्रायः पर्वतीय और रमणीय क्षेत्रों में अधिक हैं। हम इन क्षेत्रों पर जाकर इनका किस उद्देश्य से उपयोग करते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, April 1, 2019

रामकथा-36-रामावतार के हेतु-

रामकथा-36-रामावतार के हेतु-
      श्रीहरि ने जय विजय के लिए असुर योनि का तो प्रबंध कर दिया परंतु केवल इतना आधार उनके अवतार लेने के लिए पर्याप्त नहीं है।वे सोच रहे हैं कि और ऐसा क्या किया जाए कि पृथ्वी का भार उतारने के लिए अवतार लेने का पूर्ण कारण बन जाये। केवल अवतार लेकर भी क्या होगा, आगे उस जीवन में क्या क्या लीला करनी है,यह भी तो निश्चित करना है। अंततः उसका भी रास्ता उन्हें मिल ही गया। जैसा श्रीहरि चाहते हों वैसा होना भला कभी असंभव हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं।
        ब्रह्मा के एक मानस पुत्र हैं, नारद।नारद सदैव करतल में वीणा लिए "नारायण नारायण" का जाप करते रहते हैं। वे स्वच्छंद रूप से तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं, कहीं कोई रोकने टोकने वाला नहीं। तीन लोक को चौदह भागों में विभाजित कर दिया गया है जिन्हें भुवन कहा जाता है।तीन लोक हैं-
1.पाताल लोक ( अधोलोक ): इस लोक में राजा बलि अमर है | यह वरदान उन्हें विष्णु ने दिया था | विष्णु पुराण के अनुसार सात प्रकार के पाताल लोक होते हैं। यहा  दैत्य, दानव, यक्ष और बड़े बड़े नागों की जातियां वास करतीं हैं।
2.भूलोक ( मध्यलोक ): यह पृथ्वी है जिसमे मनुष्य जीव जन्तु आदि निवास करते है |
3.स्वर्गलोक(उच्चलोक) : यहा देवताओ के राजा इंद्र , सूर्य देवता , पवनदेव , चन्द्र देवता , अग्नि देव , जल के देवता वरुण , देवताओ के गुरु बृहस्पति, अप्सराये आदि  निवास करती है | यहां हिन्दू देवी-देवताओं का वास है |
इन लोको को भी 14 भागों  में बांटा गया है। इन 14 भागों को भुवन भी कहा जाता है। ये चौदह भुवन हैं -
1. सत् लोक 2. तपोलोक 3. जनलोक 4. महलोक 5. ध्रुवलोक 6. सिद्धलोक 7. पृथ्वीलोक 8. अतललोक 9. वितललोक10. सुतललोक 11.तलातललोक 12. महातललोक 13. रसातललोक और 14. पाताललोक।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।