मामेकं शरणं व्रज – 5
भगवान शरणागत के लिए कितने ही रूप धर सकते हैं और भला, क्यों न धरे ? उन्हें
शरणागत से प्रिय कोई अन्य है ही नहीं | आश्रित की समस्त जिम्मेवारी आश्रयदाता की
ही तो रहती है | जिसे अपनी देह तक की भी सुधि नहीं हो, समक्ष साक्षात् काल अर्थात
मृत्यु को देखकर भी जो प्रभु का सतत स्मरण कर रहा हो, विपरीत परिस्थिति में भी उसे
समक्ष खड़े परमात्मा मुस्कुराते हुए दिखाई पड. रहे हो और मन में एक ही भाव हो कि ‘जैसी प्रभु आपकी इच्छा’, ऐसे में भला प्रभु चुपचाप सब कुछ होते हुए कैसे देख सकते
हैं ? भले ही शरणागत के साथ-साथ अपात्र को ही दर्शन क्यों न देना पड़े, प्रभु तुरंत
ही वहां अपने भक्त को बचाने पहुँच जाते हैं | अपात्र को भला यह सब कहाँ
दिखाई पड़ता है ? सदा कांच को ही देखते रहने
वाला भला हीरे को कैसे पहचान सकता है ? पुत्र के लिए जब पिता ही काल बन जाये तो अपने
भक्त को बचाने के लिए खम्भा फाड़ कर भी प्रकट हो जाते हैं - श्री नरसिंह भगवान् |
और भक्त प्रह्लाद भी कैसा भक्त ? परमात्मा सब कुछ देने को तैयार खड़े हैं परन्तु
भक्त है कि केवल उन्हें ही देख रहा है | प्रह्लाद कहते हैं - ‘कुछ भी नहीं चाहिए,
तुम्हारे अतिरिक्त | देनी है तो आपके चरणों की रज दे दो |’ भगवान् है कि वह भी
नहीं देना चाहते | इसमें भी संकोच कि कैसे दे दूं ? चरण-रज देना कहीं शरणागत के
प्रति अपराध तो नहीं हो जायेगा ?
जब शरणागत ही है तो ऐसे में कौन तो दे और कौन ले ? भगवान् कहते हैं, आ लग
जा मेरे वक्ष से, मेरी गोद में आकर बैठ जा, तूं भी तृप्त हो जा और मैं भी तृप्त हो
जाऊं | हम दोनों हो तृप्त हो जाएँ | भक्त और भगवान्, भगवान् और भक्त | एक होते हुए
भी दो – ‘भक्ति’ | दो होते हुए भी एक – ‘शरणागति’ | दोनों ही स्थितियों में कोई
अंतर नहीं, किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं | भेद केवल दृष्टि का है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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