मामेकं शरणं व्रज –
10
सुकरात बालक को वहीँ समुद्र में जल के
साथ क्रीडा करते हुए छोड़ कर अपनी मस्ती में आगे बढ़ गए | वे अपने द्वारा आत्मसात
किये ज्ञान और परमात्मा के बारे में चिंतन करते हुए टहल रहे थे | साथ ही साथ
समुद्र की अथाह जलराशि को निहारते भी जा रहे थे | समुद्र में उठती हुयी लहरें उसके
जल को किनारे पर लाते हुए सुकरात के पांवों को छू रही थी | अचानक सुकरात ठिठक गए |
उन्हें कुछ ही पल पहले मिले बालक की बात याद आ रही थी | उद्विग्न बालक कैसे
प्रफ्फुलित हो गया था, इसी बात पर वे चिंतन कर रहे थे | चिंतन करते हुए वे अंतर्मन
की गहराइयों में उतर गए |
उन्हें समझ में आ रहा था कि इस बालक की
तरह कहीं मैं भी तो नहीं कर रहा हूँ ? कहीं असीमित ज्ञान और अपरिमेय परमात्मा को
मैं अपने अधिकार में लेने का असफल प्रयास तो नहीं कर रहा हूँ ? अंतर्मन ने कहा कि
‘हाँ सुकरात, तुम भी वही कर रहे हो, जो वह मासूम बालक कर रहा था | जिस अबोध बालक
को तुम अभी ज्ञान देकर आ रहे हो, उस ज्ञान को अब तक तुम क्यों नहीं समझ पाए ?
तुम्हारा जीवन कहीं इसी उधेड़बुन में समाप्त तो नहीं हुआ जा रहा है ? सुकरात को
पहली बार समझ में आया कि अल्पायु बालक भी अथाह ज्ञान का स्रोत हो सकता है, वह भी
मार्गदर्शक और गुरु हो सकता है | उस महान दार्शनिक के अंतर्चक्षु खुल चुके थे | उन्होंने अपना हाथ का कटोरा समुद्र
के जल में बिना विलम्ब किये फैंक दिया | वे समझ चुके थे कि असीमित ज्ञान को प्राप्त
करने का एक ही रास्ता है, स्वयं को ही ज्ञान के सागर में समर्पित कर दो | अपरिमेय
परमात्मा को पाने का एक ही रास्ता है कि परमात्मा की शरण हो जाओ, अपना सब कुछ
उन्हें समर्पित कर दो | जिस दिन ऐसा समर्पण हो जायेगा, संसार ही नहीं समस्त का
ज्ञान और परमात्मा आपके होंगे | यही वास्तव में शरणागति है | परमात्मा को पाना है
तो उसे पाने के प्रयास में अपना समय नष्ट न करें बल्कि परमात्मा के शरणागत हो जाएँ,
आप स्वयं ही तत्काल ही परमात्मा हो जाओगे | आइये ! अब पुनः कुरुक्षेत्र के युद्ध-मैदान
की ओर चलते हैं और देखते हैं कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता-ज्ञान का समापन करते
हुए क्या कह रहे हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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