Sunday, June 11, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 10

मामेकं शरणं व्रज – 10
          सुकरात बालक को वहीँ समुद्र में जल के साथ क्रीडा करते हुए छोड़ कर अपनी मस्ती में आगे बढ़ गए | वे अपने द्वारा आत्मसात किये ज्ञान और परमात्मा के बारे में चिंतन करते हुए टहल रहे थे | साथ ही साथ समुद्र की अथाह जलराशि को निहारते भी जा रहे थे | समुद्र में उठती हुयी लहरें उसके जल को किनारे पर लाते हुए सुकरात के पांवों को छू रही थी | अचानक सुकरात ठिठक गए | उन्हें कुछ ही पल पहले मिले बालक की बात याद आ रही थी | उद्विग्न बालक कैसे प्रफ्फुलित हो गया था, इसी बात पर वे चिंतन कर रहे थे | चिंतन करते हुए वे अंतर्मन की गहराइयों में उतर गए |
        उन्हें समझ में आ रहा था कि इस बालक की तरह कहीं मैं भी तो नहीं कर रहा हूँ ? कहीं असीमित ज्ञान और अपरिमेय परमात्मा को मैं अपने अधिकार में लेने का असफल प्रयास तो नहीं कर रहा हूँ ? अंतर्मन ने कहा कि ‘हाँ सुकरात, तुम भी वही कर रहे हो, जो वह मासूम बालक कर रहा था | जिस अबोध बालक को तुम अभी ज्ञान देकर आ रहे हो, उस ज्ञान को अब तक तुम क्यों नहीं समझ पाए ? तुम्हारा जीवन कहीं इसी उधेड़बुन में समाप्त तो नहीं हुआ जा रहा है ? सुकरात को पहली बार समझ में आया कि अल्पायु बालक भी अथाह ज्ञान का स्रोत हो सकता है, वह भी मार्गदर्शक और गुरु हो सकता है | उस महान दार्शनिक के अंतर्चक्षु  खुल चुके थे | उन्होंने अपना हाथ का कटोरा समुद्र के जल में बिना विलम्ब किये फैंक दिया | वे समझ चुके थे कि असीमित ज्ञान को प्राप्त करने का एक ही रास्ता है, स्वयं को ही ज्ञान के सागर में समर्पित कर दो | अपरिमेय परमात्मा को पाने का एक ही रास्ता है कि परमात्मा की शरण हो जाओ, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दो | जिस दिन ऐसा समर्पण हो जायेगा, संसार ही नहीं समस्त का ज्ञान और परमात्मा आपके होंगे | यही वास्तव में शरणागति है | परमात्मा को पाना है तो उसे पाने के प्रयास में अपना समय नष्ट न करें बल्कि परमात्मा के शरणागत हो जाएँ, आप स्वयं ही तत्काल ही परमात्मा हो जाओगे | आइये ! अब पुनः कुरुक्षेत्र के युद्ध-मैदान की ओर चलते हैं और देखते हैं कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता-ज्ञान का समापन करते हुए क्या कह रहे हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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