मामेकं शरणं व्रज -
11
गीता में भगवान श्री
कृष्ण कह रहे हैं –
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || गीता-18/63 ||
अर्थात इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय
ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया है | अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभांति
विचार कर इसे चाहता है वैसे ही कर |
भगवान इस श्लोक में अर्जुन को कह रहे हैं कि मैंने अपना श्रेष्ठ तुम्हें दे
दिया है | अब तुम इसे स्वीकार करने अथवा ठुकराने के लिए स्वतन्त्र हो | गीता के
प्रारम्भ से लेकर इस अवस्था तक आते हुए भगवान् ने विभिन्न प्रकार से अर्जुन को
समझाया है | अंत में भी वे अर्जुन को उसके उतरदायित्व का बोध कराया है और कहा है
कि तुझे अब क्या करना है, इस बात का निर्णय तू स्वयं कर | समझदार अर्जुन भी है, वह
समस्त ज्ञान को अंगीकार कर समझ जाता है कि शरणागति के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता है
ही नहीं, जो उसमें इस युद्ध जैसी परिस्थिति में उत्पन्न हुए अवसाद को समाप्त कर
सके |
शरणागति
को अंतिम रूप से स्पष्ट करते हुए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिकष्यामि मा शुचः
||गीता-18/66||
अर्थात सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण
कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे समस्त
पापों से मुक्त कर दूंगा, तू किसी प्रकार का शोक मत कर |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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