मामेकं शरणं व्रज - 1
भक्ति की परिणिति शरणागति है | शरणागति
और भक्ति, दो शब्द अवश्य हैं परन्तु दोनों का मंतव्य एक ही है | दोनों में ही
लक्ष्य ‘परमात्मा से एकाकार’ होने का होता है | प्रायः मेरे मित्र मुझसे पूछते
रहते हैं कि फिर भक्ति और शरणागति में ऐसा कौन सा अंतर है, जो आप इन दोनों को
अलग-अलग उद्घृत करते हैं | सतही रूप से देखा जाये तो दोनों में किसी भी प्रकार का
भेद दृष्टिगत नहीं है परन्तु गहराई से विचार करें तो दोनों में बड़ा ही सरल और
मार्मिक भेद भी है |
भक्ति-मार्ग में भक्त को भगवान् की ओर चलना पड़ता
है, जबकि शरणागति में भगवान् को भक्त तक आना पड़ता है | भक्ति के प्रारम्भ में
ज्ञान का होना आवश्यक नहीं है, जबकि भक्ति की परिणिति ज्ञान में होती है | शरणागति
का आधार ही ज्ञान है और इसकी परिणिति सम्पूर्ण ज्ञान में होती है | भक्ति में
मुख्य आधार पूर्वजन्म के संस्कार और कर्म होते हैं जबकि शरणागति का मुख्य आधार
परमात्मा में श्रद्धा और तात्विक ज्ञान का होना है | भक्ति में भक्त ब्रह्म को पा
सकने के बाद भी उसके साथ एकाकार होना नहीं चाहता क्योंकि एक भक्त को भक्ति में ही
बड़ा सुख और आनन्द मिलता है | भक्ति के लिए दो का होना आवश्यक है, एक भक्त और दूसरा
भगवान | इस कारण से भक्ति में भक्त का अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं होता | भक्ति
में भक्त और भगवान दोनों एक साथ बने रहते हैं जबकि शरणागति में एक परमात्मा के
अतिरिक्त कोई अन्य रहता ही नहीं है | सबसे बड़ा और मुख्य अंतर यह है कि भक्ति
प्रायः परमात्मा के सगुण और साकार रूप की, की जाती है जबकि शरणागति में परमात्मा
के सगुण साकार स्वरूप पर निर्गुण निराकार की प्रमुखता होती है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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