मामेकं शरणं व्रज – 7
‘मैं’ कुछ भी नहीं हूँ, सब कुछ ‘वही’ है, ऐसे समर्पण से ही मनुष्य वास्तव में मुक्त हो सकता है | अद्वैत में, यह ज्ञान है कि यह आत्मा ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाती है | वहां कोई पृथकत्व नहीं है | एक भक्त के लिए ऐसा होना एक गहन अनुभव है | भक्त प्रारम्भ ‘मैं’ से ही करता है फिर अंत में इस ‘मैं’ को ही गिराना होता है | केवल एक परमात्मा ही है, अन्य कुछ भी नहीं है | इतना समझ में आते ही सभी विपत्तियाँ और कष्ट समाप्त हो जाते हैं | भक्ति गहरे पानी में डूबने से बचने के लिए तैरना सीखने के समान है, जबकि शरणागति में तैरने के लिए, पानी में डूब जाने से बचने के लिए संघर्ष करने को छोड़ देना है | जो मनुष्य पानी में डूबने से बचने के लिए संघर्ष करना छोड़ देता है, सचमुच वह फिर डूबता भी नहीं है |
शरणागति एक प्रकार से आत्म-समर्पण है | ‘स्व’ का समर्पण, उस असीम ‘स्व’ को जो कि हम सब में है | हम सब उसी ‘स्व’ से आये हैं और अपनी अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं और अंत में हम सब को उसी ‘स्व’ में वापिस लौट जाना है | उस ‘स्व’ में वापिस लौटते ही हम ‘सब पुनः ‘स्व’ ही बन जाते हैं |
हम लोगों की कोई इच्छा है और उस इच्छा के कारण हम इस संसार में आते हैं | उस इच्छा के लिए संघर्ष करते हैं और अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं | संघर्ष करते-करते एक दिन हमारी समझ में आता है कि हमारी यह इच्छा उस प्रभु की इच्छा के समक्ष समर्पण करने के लिए ही है | ऐसे समर्पण को विश्राम कहा जाता है, मन का भी और तन का भी | हमारी इच्छाएं हमारी है और हमें यह जानना होगा कि हम हमारी इन इच्छाओं को परमात्मा की इच्छा कैसे बना सकते हैं ? हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि प्रभु की इच्छा में हमें हमारी इच्छाओं को मिला देना होगा और प्रभु की प्रत्येक इच्छा को स्वीकार करना होगा | इसी अवस्था को उपलब्ध हो जाने को ही शरणागत होना कहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
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