मामेकं शरणं व्रज – 2
ज्यों ज्यों भक्ति मार्ग पर
भक्त प्रगति करता है, धीरे-धीरे सगुण-साकार का स्थान निर्गुण-निराकार लेने लगता है
| एक आदर्श भक्त इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता, अतः वह परमात्मा से एकाकार
नहीं होना चाहता | वह और उसका भगवान, दो ही बने रहना चाहते है | वह परमात्मा के
सगुण-साकार स्वरूप की उपासना में ही सदैव आनंदित रहना चाहता है | सम्पूर्ण शरणागति
के लिए इस द्वैत अवस्था से आगे बढ़कर अद्वैत की ओर जाना होगा | इस प्रकार हम समझ
सकते हैं कि भक्ति की सर्वोच्च अवस्था का नाम ही शरणागति है | भक्त परमात्मा की
शरण तो रहता है परन्तु पूर्णता के साथ नहीं | एक बार शरणागत हो जाने से भक्त किसकी
पूजा अर्चना करे क्योंकि शरणागति की अवस्था में भक्त बचता ही नहीं है, भक्त स्वयं ही भगवान हो जाता है |
भक्ति में क्रिया रहती है जबकि शरणागति किसी भी प्रकार की क्रिया से रहित है | भगवान्
श्री कृष्ण अर्जुन को भक्त होने का कहने के बाद ही शरणागत होने को कहते हैं क्योंकि अर्जुन किसी भी प्रकार की
कोई क्रिया करने में लिप्त होना ही नहीं चाहता | भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि
शाश्वतम् || गीता-18/62 ||
अर्थात हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर
की शरण में जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को
प्राप्त होगा |
जब तक भक्ति है, तब तक भगवान भी है और भक्त भी | शरणागति में भक्त नहीं
रहता बल्कि वह स्वयं ही भगवान के साथ एकाकार हो भगवान ही हो जाता है | ऐसे में
शरणागत किसकी भक्ति करे ? आनंद तो परमात्मा की भक्ति में है, शरणागति में नहीं |
भक्त कहता है, भगवान मेरे हैं और मैं भगवान का हूँ | शरणागत कहता है, मैं अलग से
कुछ हूँ ही नहीं, मैं भगवान के आश्रय में हूँ और सब कुछ भगवान ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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