Tuesday, June 13, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 12

मामेकं शरणं व्रज – 12
              यह श्लोक (18/66) गीता के आध्यात्मिक सन्देश का निष्कर्ष है | यह शिक्षा भक्ति में परिपक्व होने पर ही समझ में आ पाती है | अगर यह शिक्षा अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण गीता के प्रारम्भ में ही दे देते तो शायद उसको यह समझ में नहीं आती | शरणागत होने में हमारी स्थिति भी, अर्जुन से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है | कर्म, ज्ञान और भक्ति-मार्ग से होते हुए ही शरणागति तक पहुंचा जा सकता है | सब कुछ त्याग करने के लिए भी शक्ति की आवश्यकता होती है | यह शक्ति परिपक्व होने पर ही मिल सकती है | समर्पण के लिए उच्चत्तम बल की आवश्यकता होती है | ऐसी शक्ति संघर्ष करने से ही मिलती है | जीवन में सर्वप्रथम संघर्ष, कर्म करने हेतु और उसके बाद ज्ञान पाने के लिए करना पड़ता है | हम अपने जीवन में ऐसी शक्ति, इस जगत में कई संघर्षों के उपरांत ही विकसित कर सकते हैं और अपने अस्तित्व के लिए स्थान बना पाते हैं | यह सब पूर्व का संघर्ष है, जिसकी परिणिति शरणागति के पूर्ण और अंतिम संघर्ष में होती है |
      इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण सभी पापों से मुक्त कर देने का आश्वासन अर्जुन को देते हैं | गीता के प्रथम अध्याय में अवसादग्रस्त अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों और परिजनों के मारे जाने पर लगाने वाले पाप की बात करता है | साथ ही साथ वह इस युद्ध को धर्म के विपरीत बताता है | इसी लिए भगवान् को कहना पड़ा कि तू सभी धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा | कर्म और ज्ञान में पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म आदि का विचार रहता है परन्तु शरणागति में व्यक्ति इन विचारों से भी मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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