मामेकं शरणं व्रज – 3
परमात्मा की शरण में जाना और परमात्मा की
भक्ति करना दो अलग अलग बातें है | भक्ति में भी शरण और श्रद्धा रहती है परन्तु
भक्ति में श्रद्धा तो स्थाई भाव है परन्तु शरण अस्थायी | भक्ति में परमात्मा के
शरण होते हुए भी व्यक्ति बीच-बीच में स्वयं भी अपने स्तर पर प्रयास करता रहता है | ऐसी शरण अस्थायी होती है
और व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता | भक्ति में व्यक्ति स्वयं शून्य नहीं
होता अथवा यों कहा जा सकता है कि स्वयं शून्य होना नहीं चाहता | स्वयं शून्य होने
से भक्त का आनंद तिरोहित हो सकता है और वह परमात्मा की भक्ति से मिल रहे आनंद को
त्यागना नहीं चाहता | इसीलिए भक्ति में एक भक्त का परमात्मा के शरण होना जरा
मुश्किल है | शरणागति में व्यक्ति स्वयं को शून्य कर लेता है और परमात्मा को पूर्ण
रूप से समर्पित हो जाता है | अंततः भक्ति की पूर्णता और पराकाष्ठा ही शरणागति है |
शरणागति और भक्ति में क्या अंतर है, इसको स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त
देना चाहता हूँ | पाण्डव जब जुआ खेलते हुए सब कुछ हार गए थे, यहाँ तक कि अपनी
पत्नी द्रोपदी को भी | उस समय दुर्योधन ने दुशासन को द्रोपदी का चीर हरण करने का
आदेश दिया था | द्रोपदी भगवान् श्री कृष्ण की भक्त थी और श्री कृष्ण उसे सखी कहकर
पुकारते थे | चीरहरण होने के प्रारम्भ में द्रोपदी अपने वस्त्रों को दोनों हाथों
से पकडे रखकर नग्नता से बचने का असफल प्रयास कर रही थी | परन्तु जब उसने देखा कि
मेरा यह प्रयास मुझे नग्न होने से बचा नहीं सकेगा, तब उसने अपने हाथों से वस्त्रों
को छोड़ दिया और कर-बद्ध होकर श्री कृष्ण के शरणागत होकर उन्हें पुकारने लगी |
भगवान् श्री कृष्ण तुरंत वहां पहुँच गए और वस्त्र बनकर उससे लिपट गए | भगवान् का न
आदि है, न अंत | इसी प्रकार द्रोपदी के वस्त्रों का भी कोई ओर-छोर नहीं रहा | इस
प्रकार भगवान की शरण लेते ही द्रोपदी की इज्जत बच गयी | कहने का अर्थ यह है कि
परमात्मा की शरण लेने से परमात्मा को आपके लिए दौड़कर आना ही पड़ता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम्
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