Wednesday, June 14, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 13

मामेकं शरणं व्रज – 13
             सुकरात हो चाहे अर्जुन, जीवन में किसी समय कोई न कोई एक ऐसी बात उनके समक्ष आती ही है, जो उनको व्यथित कर देती है | सुकरात ज्ञान को पाने के लिए व्यथित था तो अर्जुन युद्ध करने अथवा न करने के द्वंद्व में उलझकर व्यथित हो रहा था | समस्या तो तब उत्पन्न होती है, जब हम अपने स्वयं के स्तर पर ही उस व्यथा का निदान करना चाहते हैं | इस व्यथा से बाहर निकालने के लिए आपको मार्गदर्शक अवश्य ही मिलते हैं, यह निश्चित है | आपकी दृष्टि उस समय को और उस मार्गदर्शक को तत्काल ही पहचान जाने की होनी चाहिए | सुकरात तो कुछ पल उपरांत ही उस समय को, उस मार्गदर्शक बालक को समझ गए थे परन्तु अर्जुन तो अगर युद्ध की परिस्थिति नहीं बनती तो श्री कृष्ण को पहचान ही नहीं पाते, जीवन भर उनको मात्र अपना सखा ही समझ रहे होते | जब युद्ध उनके समक्ष उपस्थित हुआ तब वे भी तुरंत उनको पहचान गए थे |
           करना (कर्म), जानना (ज्ञान) और मानना (भक्ति) तीनों को ही त्यागना होता है | सुकरात और अर्जुन’ दोनों ही इनको छोड़ नहीं पा रहे थे | समस्त ज्ञान को प्राप्त करना हो अथवा परमात्मा को प्राप्त करना हो, इन सभी का त्याग करना आवश्यक है | त्याग बिना शक्ति संजोये नहीं हो सकता और यह शक्ति गुरु अथवा मार्गदर्शक ही जाग्रत कर सकता है | शक्ति आपके स्वयं के भीतर ही है, उसको सतह पर लाना है | हरिः शरणम् आश्रम हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि कुछ करने से शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती, उससे तो शक्ति क्षीण ही होगी | किसी को त्यागने की शक्ति तो केवल विश्राम से ही मिल सकती है, मन का विश्राम, तन का विश्राम तथा कुछ करने, जानने अथवा मानने के लिए किये जा रहे प्रयासों से विश्राम | यह विश्राम परमात्मा में विश्राम है, जो परमात्मा की शरण में जाने से ही मिल सकता है | इसीलिए कर्म-योग, ज्ञान-योग और भक्ति-योग से शरणागति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है |
कल समापन कड़ी-
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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