Monday, June 5, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 4

मामेकं शरणं व्रज – 4
                 श्री मद्भागवत महापुराण ऐसे अनेक दृष्टान्तों से भरा पड़ा है | गजेन्द्र के साथ भी ऐसा ही हुआ था | जब जल क्रीडा करते हुए ग्राह ने उसे पकड़ लिया तब उसने अपने स्तर से बहुत प्रयास किये, अपने आपको उस मगर की पकड़ से छुड़ाने के लिए | पहले उसने अपने बल का उपयोग किया, फिर अपने परिवार के सदस्यों का सहयोग लिया परन्तु प्रत्येक बार उस पकड़ से छूटने का उसका प्रयास असफल रहा | आखिर थक हारकर उसने परमात्मा की शरण ली और इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार हुआ | भागवत में परमात्मा के शरणागत होते हुए गजेन्द्र कहते हैं –
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम् |
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोSस्म्यहम् || भागवत-8/3/29||
अर्थात आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरुप ढक गया है, इसी से जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता | आपकी महिमा अपार है | उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्य निधि भगवान् की मैं शरण में हूँ |
          भक्ति की चरम अवस्था ही शरणागति है | जब तक व्यक्ति भक्ति-मार्ग पर चलता है, तब तक वह भक्त है और जिसकी ओर चलता है, वह भगवान् है | ‘मैं’ भक्त है और ‘वह’ भगवान् है | परन्तु जब परमात्मा से भक्त एकाकार हो जाता है तब न तो ‘मैं’ बचता है और न ही ‘वह’ | रामकृष्ण परमहंस से एक बार किसी ने पूछा कि ‘मैं कब मुक्त होऊँगा ?’ ठाकुर ने बड़ा ही सुन्दर और सटीक उत्तर दिया कि ‘जब ‘मैं’ समाप्त हो जायेगा तब मुक्ति होगी’ | इस ‘मैं’ की समाप्ति सुगमता के साथ न तो कर्म-योग में हो पाती है और न ही ज्ञान-योग में | केवल भक्ति योग की अंतिम सीमा पर पहुँचने पर ही ‘मैं’ समाप्त हो सकता है | इस ‘मैं’ के समाप्त हो जाने का नाम ही शरणागति है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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