Thursday, June 1, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 28

मन्मना भव मद्भक्तो – 28
सार-संक्षेप –
         भक्ति परमात्मा से जुड़ने की सतत चलने वाली एक प्रक्रिया है | यह प्रक्रिया जिस किसी भी व्यक्ति द्वारा की जाती है, उस व्यक्ति को भक्त कहा जाता है | कर्म और ज्ञान भी भक्ति के ही साधन है परन्तु इन दोनों ही साधनों में श्रम अधिक करना पड़ता है | भक्ति के साधन के अंतर्गत नवधा-भक्ति भी एक महत्वपूर्ण और सरल साधन है, जिसको एक साधारण व्यक्ति भी कर सकता है | श्रवण और कीर्तन से प्रारम्भ हुआ यह साधन आत्म-निवेदन तक यात्रा कर परमात्मा को प्राप्त कराता है | इस सरल साधन के किसी भी एक अंग पर आकर रूक जाना भक्ति मार्ग में हो रही प्रगति को रोक देना है, जो परमात्मा से दूरी रख देता है | भक्ति के किसी एक अंग पर आकर ठहर जाने से परमात्मा के साथ एकीकरण होना असंभव हो जाता है, जो व्यर्थ ही कुंठा को जन्म देता है | अतः भक्ति-मार्ग पर एक-एक एक कर सभी अंगों को साधन बनाते हुए परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है |
             जो व्यक्ति भक्ति के इस सरल मार्ग का अवलंबन करता है, उसको सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है | यह भक्ति की सर्वोच्च अवस्था होती है, जिसे पराभक्ति अथवा परम सिद्धि भी कहा जाता है | इस अवस्था पर पहुंच जाने के पश्चात न तो कुछ करने को शेष रहता है, न ही कुछ जानने को और न ही कुछ मानने को | भक्त इस अवस्था को उपलब्ध होकर स्वयं ही भगवान बन जाता है | इस भक्ति, जिसे अनन्य भक्ति अथवा अव्यभिचारिणी भक्ति कहा जाता है, को उद्घृत करते हुए केवल एक बार भगवान श्री कृष्ण ने गीता में भक्ति-योग शब्द का उपयोग किया है | वे कहते हैं –
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || गीता-14/26||
अर्थात जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति-योग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है, वह भी प्रकृति में स्थित तीनों गुणों को लांघकर ब्रह्म को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है |
                   केवल एक परमात्मा को ही सर्वेसर्वा मानते हुए, स्वार्थ रहित होकर तथा अभिमान को त्यागकर श्रद्धा और भावपूर्ण प्रेम से निरंतर उसका चिंतन करना ही अव्यभिचारी भक्ति-योग है | इसी योग को प्राप्त कर पुरुष अपने जीवन में ही परमात्मा के साथ एक होकर ब्रह्म भूत हो जाता है |
              भक्ति एक ऐसा विषय है, जिस पर कितना ही चिंतन किया जाये, चाहे जितना लिखा जाये, सब अपर्याप्त है | मेरा प्रयास था कि “भक्ति” विषय को सरल और स्पष्ट रूप से आपके समक्ष रखूं, कितना सफल रहा, केवल पाठक ही बता सकते हैं | शरणागति भक्ति की चरम अवस्था का नाम है | वैसे भक्ति और शरणागति दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है, फिर भी मित्रों के आग्रह के कारण इसे अलग विषय के रूप में लेकर स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ । चलिए, फिर कल से शरणागति विषय पर थोडा सा अलग से चिंतन कर ही लेते हैं |
कल से – ‘मामेकं शरणं व्रज....’
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

 || हरिः शरणम् ||

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