मामेकं शरणं व्रज – 8
जब कोई किसी के शरणागत हो जाता है, तो उसको संभालना
सामने वाले की जिम्मेदारी हो जाती है | जैसे कि आपकी शरण में कोई आता है, चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों न हो आप
उसे तत्काल क्षमा कर देंगें | इसी प्रकार जब हम ठाकुर जी के शरण हो जाते हैं, तब
हमारा जिम्मा उन पर हो जाता है | उनसे बड़ा शरणादाता कौन होगा ? बस हमें इतना
करना है कि हम अपने आप को सम्पूर्ण मन से उनके चरणों में समर्पित कर दें |
एक बार भगवान् श्री कृष्ण भोजन कर
रहे थे और रुक्मिणीजी उन्हें पंखा झल रही थीं | अचानक भगवान् उठ
बैठे और द्वार की ओर भागे | रुक्मिणीजी उनके पीछे-पीछे भागी, परन्तु भगवान् द्वार
से ही वापिस लौट आये | रुक्मिणी जी ने तब पूछा ‘क्या हुआ’ ? भगवान् बोले-
“मेरा एक भक्त रास्ते से गुजर रहा था, हाथ में एकतारा लिए हुए, मेरा स्मरण और
ध्यान करते हुए | लोग उसे पागल समझ कर पत्थर मार रहे थे | फिर भी वह चला जा रहा था, बिना कोई विरोध
किये,
बस मन में
मेरा ही ध्यान लिए, भजन करता हुआ, मेरी ही शरण में | मैं उसी को बचाने के लिए
भागा था, परन्तु अब उसने मेरा ध्यान छोड़ कर उनको उत्तर देने के लिए
स्वयं ही पत्थर उठा लिया तो मैं वापस आ गया | अब वह लोगों को स्वयं ही जवाब दे रहा
है,
उसको मेरी
कोई ज़रूरत नहीं है | अगर उसने खुद को केवल मेरे ही आश्रय छोड़ा होता, तो वहां
मेरी अधिक जिम्मेदारी बनती |”
कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक हम अपना
सर्वस्व प्रभु को न्योछावर नहीं कर देते, तब तक शरणागति नहीं हो सकती | भक्ति और
शरणागति में यही अंतर है कि भक्ति में भक्त अपने स्तर पर कुछ न कुछ प्रयास करता रहता
है जबकि शरणागति में सब कुछ परमात्मा की जिम्मेवारी रहती है | यहाँ अगर भक्त पत्थर
की मार सहता रहता तो भगवान् उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेते | परन्तु जब भक्त
अपनी रक्षा में पत्थर उठा लेता है, तब उसमें भक्ति तो रहती है परन्तु परमात्मा में
आश्रय का भाव नहीं रहता | कहने का अर्थ है कि ऐसे भक्त में परमात्मा के प्रति
भक्ति तो है परन्तु वह शरणागति की अवस्था से अभी भी बहुत दूर है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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