Thursday, June 15, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 14 अंतिम कड़ी

मामेकं शरणं व्रज – 14 अंतिम कड़ी
     आदि शंकराचार्य कहते हैं कि धर्म का अर्थ ही द्वैत होना है | जब धर्म है तो अधर्म भी होगा | हमें इन सबसे ऊपर उठना होगा | रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि अधर्म से बचने के लिए ही धर्म की आवश्यकता होती है | जब हम शरणागत हो जाते हैं, तो फिर धर्म को भी त्याग देते है | रामकृष्ण परमहंस इस बात को पैर में चुभे एक कांटे के उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पैर में चुभे एक कांटे को दूसरे कांटे से निकलते हैं और काँटा निकल जाने पर हमें दोनों ही काँटों को फैक देना होता है | इसका कारण यह है कि अब दूसरे कांटे की भी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है, क्योंकि उससे कार्य लिया जा चूका है | इसी प्रकार धर्म केवल अधर्म को जीतने के लिए है | अधर्म को जीतते ही धर्म को भी त्याग देना चाहिए | उपलब्धि के उच्चत्तम स्तर पर धर्म और अधर्म के दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं है | भक्ति में हमें द्वैत के स्तर पर बने नहीं रहना चाहिए | तभी शरणागति सार्थक है |
                  हम शुद्ध आध्यात्मिक चेतना के स्तर पर रहते हैं | ईश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है और पुनः ईश्वर में ही लौट जायेगा | इस प्रक्रिया में कई करोड़ वर्ष लग जायेंगे | लेकिन आप और मैं, हम सभी इस जन्म में ही यह सब प्राप्त कर सकते हैं | यह एक आध्यात्मिक उपलब्धि होगी | परमात्मा के पूर्ण रूप से शरणागत हो जाइये और विचार कीजिये कि एक से यह जगत आया है और एक में (मुझमें) अब यह जगत समा रहा है | शरणागत होने पर, समर्पण से हम परम ब्रह्म के साथ एकाकार होते हैं , हम उस परम ब्रह्म के साथ असीम एकता को प्राप्त होते हैं | शरणागति परम ज्ञान को उपलब्ध होना है | यह परम ज्ञान है कि ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब यह ज्ञान हो जाता है तो सत्य को जान लिया जाता है | शरणागति में मनुष्य ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता है | अतः भक्ति-मार्ग पर चलते हुए शरणागति को प्राप्त होना ही श्रेयस्कर है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आज सेन फ्रांसिस्को (संयुक्त राज्य अमेरिका) के लिए यात्रा पर प्रस्थान कर रहा हूँ | अतः नए विषय पर श्रृंखला प्रारम्भ करने में कुछ दिनों का विलम्ब हो सकता है | शीघ्र ही आपसे पुनः साक्षात्कार होगा | आप सभी का ह्रदय से आभार |

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 14, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 13

मामेकं शरणं व्रज – 13
             सुकरात हो चाहे अर्जुन, जीवन में किसी समय कोई न कोई एक ऐसी बात उनके समक्ष आती ही है, जो उनको व्यथित कर देती है | सुकरात ज्ञान को पाने के लिए व्यथित था तो अर्जुन युद्ध करने अथवा न करने के द्वंद्व में उलझकर व्यथित हो रहा था | समस्या तो तब उत्पन्न होती है, जब हम अपने स्वयं के स्तर पर ही उस व्यथा का निदान करना चाहते हैं | इस व्यथा से बाहर निकालने के लिए आपको मार्गदर्शक अवश्य ही मिलते हैं, यह निश्चित है | आपकी दृष्टि उस समय को और उस मार्गदर्शक को तत्काल ही पहचान जाने की होनी चाहिए | सुकरात तो कुछ पल उपरांत ही उस समय को, उस मार्गदर्शक बालक को समझ गए थे परन्तु अर्जुन तो अगर युद्ध की परिस्थिति नहीं बनती तो श्री कृष्ण को पहचान ही नहीं पाते, जीवन भर उनको मात्र अपना सखा ही समझ रहे होते | जब युद्ध उनके समक्ष उपस्थित हुआ तब वे भी तुरंत उनको पहचान गए थे |
           करना (कर्म), जानना (ज्ञान) और मानना (भक्ति) तीनों को ही त्यागना होता है | सुकरात और अर्जुन’ दोनों ही इनको छोड़ नहीं पा रहे थे | समस्त ज्ञान को प्राप्त करना हो अथवा परमात्मा को प्राप्त करना हो, इन सभी का त्याग करना आवश्यक है | त्याग बिना शक्ति संजोये नहीं हो सकता और यह शक्ति गुरु अथवा मार्गदर्शक ही जाग्रत कर सकता है | शक्ति आपके स्वयं के भीतर ही है, उसको सतह पर लाना है | हरिः शरणम् आश्रम हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि कुछ करने से शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती, उससे तो शक्ति क्षीण ही होगी | किसी को त्यागने की शक्ति तो केवल विश्राम से ही मिल सकती है, मन का विश्राम, तन का विश्राम तथा कुछ करने, जानने अथवा मानने के लिए किये जा रहे प्रयासों से विश्राम | यह विश्राम परमात्मा में विश्राम है, जो परमात्मा की शरण में जाने से ही मिल सकता है | इसीलिए कर्म-योग, ज्ञान-योग और भक्ति-योग से शरणागति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है |
कल समापन कड़ी-
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, June 13, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 12

मामेकं शरणं व्रज – 12
              यह श्लोक (18/66) गीता के आध्यात्मिक सन्देश का निष्कर्ष है | यह शिक्षा भक्ति में परिपक्व होने पर ही समझ में आ पाती है | अगर यह शिक्षा अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण गीता के प्रारम्भ में ही दे देते तो शायद उसको यह समझ में नहीं आती | शरणागत होने में हमारी स्थिति भी, अर्जुन से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है | कर्म, ज्ञान और भक्ति-मार्ग से होते हुए ही शरणागति तक पहुंचा जा सकता है | सब कुछ त्याग करने के लिए भी शक्ति की आवश्यकता होती है | यह शक्ति परिपक्व होने पर ही मिल सकती है | समर्पण के लिए उच्चत्तम बल की आवश्यकता होती है | ऐसी शक्ति संघर्ष करने से ही मिलती है | जीवन में सर्वप्रथम संघर्ष, कर्म करने हेतु और उसके बाद ज्ञान पाने के लिए करना पड़ता है | हम अपने जीवन में ऐसी शक्ति, इस जगत में कई संघर्षों के उपरांत ही विकसित कर सकते हैं और अपने अस्तित्व के लिए स्थान बना पाते हैं | यह सब पूर्व का संघर्ष है, जिसकी परिणिति शरणागति के पूर्ण और अंतिम संघर्ष में होती है |
      इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण सभी पापों से मुक्त कर देने का आश्वासन अर्जुन को देते हैं | गीता के प्रथम अध्याय में अवसादग्रस्त अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों और परिजनों के मारे जाने पर लगाने वाले पाप की बात करता है | साथ ही साथ वह इस युद्ध को धर्म के विपरीत बताता है | इसी लिए भगवान् को कहना पड़ा कि तू सभी धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा | कर्म और ज्ञान में पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म आदि का विचार रहता है परन्तु शरणागति में व्यक्ति इन विचारों से भी मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, June 12, 2017

मामेकं शरणं व्रज - 11

मामेकं शरणं व्रज - 11
        गीता में भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं –
                          इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
                         विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || गीता-18/63 ||
अर्थात इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया है | अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभांति विचार कर इसे चाहता है वैसे ही कर |
       भगवान इस श्लोक में अर्जुन को कह रहे हैं कि मैंने अपना श्रेष्ठ तुम्हें दे दिया है | अब तुम इसे स्वीकार करने अथवा ठुकराने के लिए स्वतन्त्र हो | गीता के प्रारम्भ से लेकर इस अवस्था तक आते हुए भगवान् ने विभिन्न प्रकार से अर्जुन को समझाया है | अंत में भी वे अर्जुन को उसके उतरदायित्व का बोध कराया है और कहा है कि तुझे अब क्या करना है, इस बात का निर्णय तू स्वयं कर | समझदार अर्जुन भी है, वह समस्त ज्ञान को अंगीकार कर समझ जाता है कि शरणागति के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता है ही नहीं, जो उसमें इस युद्ध जैसी परिस्थिति में उत्पन्न हुए अवसाद को समाप्त कर सके |
     शरणागति को अंतिम रूप से स्पष्ट करते हुए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिकष्यामि मा शुचः ||गीता-18/66||
अर्थात सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, तू किसी प्रकार का शोक मत कर |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, June 11, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 10

मामेकं शरणं व्रज – 10
          सुकरात बालक को वहीँ समुद्र में जल के साथ क्रीडा करते हुए छोड़ कर अपनी मस्ती में आगे बढ़ गए | वे अपने द्वारा आत्मसात किये ज्ञान और परमात्मा के बारे में चिंतन करते हुए टहल रहे थे | साथ ही साथ समुद्र की अथाह जलराशि को निहारते भी जा रहे थे | समुद्र में उठती हुयी लहरें उसके जल को किनारे पर लाते हुए सुकरात के पांवों को छू रही थी | अचानक सुकरात ठिठक गए | उन्हें कुछ ही पल पहले मिले बालक की बात याद आ रही थी | उद्विग्न बालक कैसे प्रफ्फुलित हो गया था, इसी बात पर वे चिंतन कर रहे थे | चिंतन करते हुए वे अंतर्मन की गहराइयों में उतर गए |
        उन्हें समझ में आ रहा था कि इस बालक की तरह कहीं मैं भी तो नहीं कर रहा हूँ ? कहीं असीमित ज्ञान और अपरिमेय परमात्मा को मैं अपने अधिकार में लेने का असफल प्रयास तो नहीं कर रहा हूँ ? अंतर्मन ने कहा कि ‘हाँ सुकरात, तुम भी वही कर रहे हो, जो वह मासूम बालक कर रहा था | जिस अबोध बालक को तुम अभी ज्ञान देकर आ रहे हो, उस ज्ञान को अब तक तुम क्यों नहीं समझ पाए ? तुम्हारा जीवन कहीं इसी उधेड़बुन में समाप्त तो नहीं हुआ जा रहा है ? सुकरात को पहली बार समझ में आया कि अल्पायु बालक भी अथाह ज्ञान का स्रोत हो सकता है, वह भी मार्गदर्शक और गुरु हो सकता है | उस महान दार्शनिक के अंतर्चक्षु  खुल चुके थे | उन्होंने अपना हाथ का कटोरा समुद्र के जल में बिना विलम्ब किये फैंक दिया | वे समझ चुके थे कि असीमित ज्ञान को प्राप्त करने का एक ही रास्ता है, स्वयं को ही ज्ञान के सागर में समर्पित कर दो | अपरिमेय परमात्मा को पाने का एक ही रास्ता है कि परमात्मा की शरण हो जाओ, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दो | जिस दिन ऐसा समर्पण हो जायेगा, संसार ही नहीं समस्त का ज्ञान और परमात्मा आपके होंगे | यही वास्तव में शरणागति है | परमात्मा को पाना है तो उसे पाने के प्रयास में अपना समय नष्ट न करें बल्कि परमात्मा के शरणागत हो जाएँ, आप स्वयं ही तत्काल ही परमात्मा हो जाओगे | आइये ! अब पुनः कुरुक्षेत्र के युद्ध-मैदान की ओर चलते हैं और देखते हैं कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता-ज्ञान का समापन करते हुए क्या कह रहे हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, June 10, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 9

मामेकं शरणं व्रज – 9
     ज्ञान और परमात्मा की अनंतता और अपरिमेयता के बारे में यूनान के महान दार्शनिक सुकरात का एक दृष्टान्त आपके साथ बाँटना चाहूँगा | सुकरात ज्ञान की तलाश में कई वर्षों तक भटकते रहे थे | वे चाहते थे कि परमात्मा से सम्बंधित संसार का समस्त ज्ञान स्वयं में उतार लूँ, आत्मसात कर लूँ | इसी प्रयास में एक बार वे समुद्र के किनारे टहल रहे थे | तभी उनकी दृष्टि एक अबोध बालक पर पड़ी | बालक अपने कटोरे में, अपने छोटे से प्याले में समुद्र का जल भर रहा था और प्रयास कर रहा था कि समुद्र का सारा जल उस छोटे से कटोरे में समा जाये | परन्तु जितना अधिक वह प्रयास कर रहा था उतनी ही उसकी उद्विग्नता भी बढती जा रही थी | उसको समझ में नहीं आ रहा था कि समुद्र का समस्त जल मैं अपने प्याले में क्यों नहीं भर पा रहा हूँ ? बालक की झुंझलाहट देखकर सुकरात के कदम रूक गए |
               सुकरात ने बड़े प्रेम से बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और पूछा – “बेटे, क्या कर रहे हो ?” बालक ने बड़े भोलेपन से कहा कि ‘देखिये, समुद्र के सारे जल को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ, और यह है कि मेरे कटोरे में समा ही नहीं रहा है |’ सुकरात बालक की इस बात पर मुस्कुराते हुए बोले – “भला, समुद्र का इतना विशाल राशि जल तुम्हारे इस छोटे से कटोरे में कैसे समा सकता है ? अगर तुम चाहते हो कि समुद्र का सारा जल तुम्हारे कटोरे में आ जाये, तो एक ही उपाय है कि तुम समुद्र में जाकर अपने कटोरे को समुद्र के जल में डुबो दो, इस प्रकार सारा समुद्र ही तुम्हारे कटोरे में होगा |” बच्चे ने तत्काल ही ऐसा ही किया और देखा कि समुद्र का जल कटोरे में ऊपर तक लबालब भर गया था | वह बड़ा खुश हो गया | बालक ने सुकरात की तरफ दृष्टि डाली और बोला कि ‘ देखिये, समुद्र का सारा जल ही अब मेरा और मेरे कटोरे में है क्योंकि मेरा कटोरा ही अब समुद्र में समा गया है |’ सुकरात को परम संतोष की अनुभूति हुई कि उन्होंने एक बालक को उसकी मुस्कराहट वापिस लौटा कर उसे खुश कर दिया है | संसार में सबसे अधिक आनंद किसी व्यथित व्यक्ति की खुशियाँ उसकी झोली में डाल देना ही है | सुकरात उस समय यह नहीं जानते थे कि एक नन्हें से बालक की बात उसके जीवन को भी परिवर्तित कर देगी ?
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, June 9, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 8

मामेकं शरणं व्रज – 8
           जब कोई किसी के शरणागत हो जाता है, तो उसको संभालना सामने वाले की जिम्मेदारी हो जाती है | जैसे कि आपकी शरण में कोई आता है, चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों न हो आप उसे तत्काल क्षमा कर देंगें | इसी प्रकार जब हम ठाकुर जी के शरण हो जाते हैं, तब हमारा जिम्मा उन पर हो जाता है | उनसे बड़ा शरणादाता कौन होगा ? बस हमें इतना करना है कि हम अपने आप को सम्पूर्ण मन से उनके चरणों में समर्पित कर दें |
            एक बार भगवान् श्री कृष्ण भोजन कर रहे थे और रुक्मिणीजी उन्हें पंखा झल रही थीं | अचानक भगवान् उठ बैठे और द्वार की ओर भागे | रुक्मिणीजी उनके पीछे-पीछे भागी, परन्तु भगवान् द्वार से ही वापिस लौट आये | रुक्मिणी जी ने तब पूछा ‘क्या हुआ’ ? भगवान् बोले- “मेरा एक भक्त रास्ते से गुजर रहा था, हाथ में एकतारा लिए हुए, मेरा स्मरण और ध्यान करते हुए | लोग उसे पागल समझ कर पत्थर मार रहे थे | फिर भी वह चला जा रहा था, बिना कोई विरोध किये, बस मन में मेरा ही ध्यान लिए, भजन करता हुआ, मेरी ही शरण में | मैं उसी को बचाने के लिए भागा था, परन्तु अब उसने मेरा ध्यान छोड़ कर उनको उत्तर देने के लिए स्वयं ही पत्थर उठा लिया तो मैं वापस आ गया | अब वह लोगों को स्वयं ही जवाब दे रहा है, उसको मेरी कोई ज़रूरत नहीं है | अगर उसने खुद को केवल मेरे ही आश्रय छोड़ा होता, तो वहां मेरी अधिक जिम्मेदारी बनती |
      कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक हम अपना सर्वस्व प्रभु को न्योछावर नहीं कर देते, तब तक शरणागति नहीं हो सकती | भक्ति और शरणागति में यही अंतर है कि भक्ति में भक्त अपने स्तर पर कुछ न कुछ प्रयास करता रहता है जबकि शरणागति में सब कुछ परमात्मा की जिम्मेवारी रहती है | यहाँ अगर भक्त पत्थर की मार सहता रहता तो भगवान् उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेते | परन्तु जब भक्त अपनी रक्षा में पत्थर उठा लेता है, तब उसमें भक्ति तो रहती है परन्तु परमात्मा में आश्रय का भाव नहीं रहता | कहने का अर्थ है कि ऐसे भक्त में परमात्मा के प्रति भक्ति तो है परन्तु वह शरणागति की अवस्था से अभी भी बहुत दूर है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, June 8, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 7

मामेकं शरणं व्रज – 7
‘मैं’ कुछ भी नहीं हूँ, सब कुछ ‘वही’ है, ऐसे समर्पण से ही मनुष्य वास्तव में मुक्त हो सकता है | अद्वैत में, यह ज्ञान है कि यह आत्मा ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाती है | वहां कोई पृथकत्व नहीं है | एक भक्त के लिए ऐसा होना एक गहन अनुभव है | भक्त प्रारम्भ ‘मैं’ से ही करता है फिर अंत में इस ‘मैं’ को ही गिराना होता है | केवल एक परमात्मा ही है, अन्य कुछ भी नहीं है | इतना समझ में आते ही सभी विपत्तियाँ और कष्ट समाप्त हो जाते हैं | भक्ति गहरे पानी में डूबने से बचने के लिए तैरना सीखने के समान है, जबकि शरणागति में तैरने के लिए, पानी में डूब जाने से बचने के लिए संघर्ष करने को छोड़ देना है | जो मनुष्य पानी में डूबने से बचने के लिए संघर्ष करना छोड़ देता है, सचमुच वह फिर डूबता भी नहीं है |
शरणागति एक प्रकार से आत्म-समर्पण है | ‘स्व’ का समर्पण, उस असीम ‘स्व’ को जो कि हम सब में है | हम सब उसी ‘स्व’ से आये हैं और अपनी अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं और अंत में हम सब को उसी ‘स्व’ में वापिस लौट जाना है | उस ‘स्व’ में वापिस लौटते ही हम ‘सब पुनः ‘स्व’ ही बन जाते हैं |
हम लोगों की कोई इच्छा है और उस इच्छा के कारण हम इस संसार में आते हैं | उस इच्छा के लिए संघर्ष करते हैं और अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं | संघर्ष करते-करते एक दिन हमारी समझ में आता है कि हमारी यह इच्छा उस प्रभु की इच्छा के समक्ष समर्पण करने के लिए ही है | ऐसे समर्पण को विश्राम कहा जाता है, मन का भी और तन का भी | हमारी इच्छाएं हमारी है और हमें यह जानना होगा कि हम हमारी इन इच्छाओं को परमात्मा की इच्छा कैसे बना सकते हैं ? हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि प्रभु की इच्छा में हमें हमारी इच्छाओं को मिला देना होगा और प्रभु की प्रत्येक इच्छा को स्वीकार करना होगा | इसी अवस्था को उपलब्ध हो जाने को ही शरणागत होना कहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 7, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 6

मामेकं शरणं व्रज – 6
            संसार के किसी भी धर्म की शिक्षा को लें, प्रत्येक धर्म की अंतिम शिक्षा ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है | बौद्ध धर्म में कहते हैं - ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ अर्थात बुद्ध की शरण में चले जाओ; ‘धर्मं शरणं गच्छामि’ अर्थात धर्म की शरण में चले जाओ और ‘संघं शरणं गच्छामि’ अर्थात संघ की शरण में चले जाओ | तत्व की दृष्टि से बुद्ध की शरणागति है, साधन की दृष्टि से धर्म की शरणागति है और आचार की दृष्टि से संघ की शरणागति है | शरणागति जैन-सम्प्रदाय में भी है | जैन-सम्प्रदाय में कहा जाता है - ‘आत्त-शरणो-भव’ अर्थात आत्मा की शरण में रहो | जैन-सम्प्रदाय कहता है कि इस संसार और शरीर में राग-द्वेष है, जन्म-मरण है जबकि आत्मा में न राग है; न द्वेष है, न जन्म है और न ही मरण | जैन धर्म में श्री महावीर, ऋषभदेव तथा भगवान् पार्श्वनाथ की शरण होना कहीं पर भी नहीं कहा गया है | जो भी आत्म-शरण हो गया, आत्म-निष्ठ हो गया, समझो, वह मोक्ष का अधिकारी हो गया |
                इस प्रकार हमने देखा कि शरणागति शब्द का वर्णन जैन धर्म में भी है, बौद्ध धर्म में भी है और वेदांत में तो है ही | बौद्ध-धर्म में बुद्ध की शरण है जबकि जैन-धर्म में आत्मा की शरण है | बुद्ध की शरण हो जाना बुद्ध की करुणा की पराकाष्ठा है, जबकि आत्मा की शरण अर्थात अपने आप की शरण हो जाना पौरुष की पराकाष्ठा है | इसीलिए बौद्ध-धर्म करुणा प्रधान है और जैन-धर्म अहिंसा प्रधान | सांख्य-योग में शरणागति के बारे में कहा जाता है कि प्रारम्भ में ईश्वर-शरण और अंततः आत्म-स्थति ही शरण है | वेदांत में अंतःकरण की शुद्धि के द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करना मानते हैं | भक्ति-दर्शन तो और भी विलक्षण है | भगवान का एक नाम शरण है और दूसरा शरण-भाव है | वे मानते हैं कि एक शरण-रूप तो स्वयं भगवान् है और दूसरा जो शरणागति का भाव है, वह साधन है | एक उपेय है तो दूसरा उपाय, एक साध्य है तो दूसरा साधन | इसका अर्थ यही हुआ की उपेय और उपाय, साध्य और साधन एक प्रभु ही है | एक मिलने वाले और दूसरा मिलाने वाले |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, June 6, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 5

मामेकं शरणं व्रज – 5
            भगवान शरणागत के लिए कितने ही रूप धर सकते हैं और भला, क्यों न धरे ? उन्हें शरणागत से प्रिय कोई अन्य है ही नहीं | आश्रित की समस्त जिम्मेवारी आश्रयदाता की ही तो रहती है | जिसे अपनी देह तक की भी सुधि नहीं हो, समक्ष साक्षात् काल अर्थात मृत्यु को देखकर भी जो प्रभु का सतत स्मरण कर रहा हो, विपरीत परिस्थिति में भी उसे समक्ष खड़े परमात्मा मुस्कुराते हुए दिखाई पड. रहे हो और मन में एक ही भाव हो कि ‘जैसी प्रभु आपकी इच्छा’, ऐसे में भला प्रभु चुपचाप सब कुछ होते हुए कैसे देख सकते हैं ? भले ही शरणागत के साथ-साथ अपात्र को ही दर्शन क्यों न देना पड़े, प्रभु तुरंत ही वहां अपने भक्त को बचाने पहुँच जाते हैं | अपात्र को भला यह सब कहाँ दिखाई पड़ता है ?  सदा कांच को ही देखते रहने वाला भला हीरे को कैसे पहचान सकता है ? पुत्र के लिए जब पिता ही काल बन जाये तो अपने भक्त को बचाने के लिए खम्भा फाड़ कर भी प्रकट हो जाते हैं - श्री नरसिंह भगवान् | और भक्त प्रह्लाद भी कैसा भक्त ? परमात्मा सब कुछ देने को तैयार खड़े हैं परन्तु भक्त है कि केवल उन्हें ही देख रहा है | प्रह्लाद कहते हैं - ‘कुछ भी नहीं चाहिए, तुम्हारे अतिरिक्त | देनी है तो आपके चरणों की रज दे दो |’ भगवान् है कि वह भी नहीं देना चाहते | इसमें भी संकोच कि कैसे दे दूं ? चरण-रज देना कहीं शरणागत के प्रति अपराध तो नहीं हो जायेगा ?
            जब शरणागत ही है तो ऐसे में कौन तो दे और कौन ले ? भगवान् कहते हैं, आ लग जा मेरे वक्ष से, मेरी गोद में आकर बैठ जा, तूं भी तृप्त हो जा और मैं भी तृप्त हो जाऊं | हम दोनों हो तृप्त हो जाएँ | भक्त और भगवान्, भगवान् और भक्त | एक होते हुए भी दो – ‘भक्ति’ | दो होते हुए भी एक – ‘शरणागति’ | दोनों ही स्थितियों में कोई अंतर नहीं, किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं | भेद केवल दृष्टि का है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, June 5, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 4

मामेकं शरणं व्रज – 4
                 श्री मद्भागवत महापुराण ऐसे अनेक दृष्टान्तों से भरा पड़ा है | गजेन्द्र के साथ भी ऐसा ही हुआ था | जब जल क्रीडा करते हुए ग्राह ने उसे पकड़ लिया तब उसने अपने स्तर से बहुत प्रयास किये, अपने आपको उस मगर की पकड़ से छुड़ाने के लिए | पहले उसने अपने बल का उपयोग किया, फिर अपने परिवार के सदस्यों का सहयोग लिया परन्तु प्रत्येक बार उस पकड़ से छूटने का उसका प्रयास असफल रहा | आखिर थक हारकर उसने परमात्मा की शरण ली और इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार हुआ | भागवत में परमात्मा के शरणागत होते हुए गजेन्द्र कहते हैं –
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम् |
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोSस्म्यहम् || भागवत-8/3/29||
अर्थात आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरुप ढक गया है, इसी से जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता | आपकी महिमा अपार है | उन सर्वशक्तिमान एवं माधुर्य निधि भगवान् की मैं शरण में हूँ |
          भक्ति की चरम अवस्था ही शरणागति है | जब तक व्यक्ति भक्ति-मार्ग पर चलता है, तब तक वह भक्त है और जिसकी ओर चलता है, वह भगवान् है | ‘मैं’ भक्त है और ‘वह’ भगवान् है | परन्तु जब परमात्मा से भक्त एकाकार हो जाता है तब न तो ‘मैं’ बचता है और न ही ‘वह’ | रामकृष्ण परमहंस से एक बार किसी ने पूछा कि ‘मैं कब मुक्त होऊँगा ?’ ठाकुर ने बड़ा ही सुन्दर और सटीक उत्तर दिया कि ‘जब ‘मैं’ समाप्त हो जायेगा तब मुक्ति होगी’ | इस ‘मैं’ की समाप्ति सुगमता के साथ न तो कर्म-योग में हो पाती है और न ही ज्ञान-योग में | केवल भक्ति योग की अंतिम सीमा पर पहुँचने पर ही ‘मैं’ समाप्त हो सकता है | इस ‘मैं’ के समाप्त हो जाने का नाम ही शरणागति है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, June 4, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 3

मामेकं शरणं व्रज – 3
        परमात्मा की शरण में जाना और परमात्मा की भक्ति करना दो अलग अलग बातें है | भक्ति में भी शरण और श्रद्धा रहती है परन्तु भक्ति में श्रद्धा तो स्थाई भाव है परन्तु शरण अस्थायी | भक्ति में परमात्मा के शरण होते हुए भी व्यक्ति बीच-बीच में स्वयं भी अपने स्तर पर  प्रयास करता रहता है | ऐसी शरण अस्थायी होती है और व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता | भक्ति में व्यक्ति स्वयं शून्य नहीं होता अथवा यों कहा जा सकता है कि स्वयं शून्य होना नहीं चाहता | स्वयं शून्य होने से भक्त का आनंद तिरोहित हो सकता है और वह परमात्मा की भक्ति से मिल रहे आनंद को त्यागना नहीं चाहता | इसीलिए भक्ति में एक भक्त का परमात्मा के शरण होना जरा मुश्किल है | शरणागति में व्यक्ति स्वयं को शून्य कर लेता है और परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है | अंततः भक्ति की पूर्णता और पराकाष्ठा ही शरणागति है |
                शरणागति और भक्ति में क्या अंतर है, इसको स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देना चाहता हूँ | पाण्डव जब जुआ खेलते हुए सब कुछ हार गए थे, यहाँ तक कि अपनी पत्नी द्रोपदी को भी | उस समय दुर्योधन ने दुशासन को द्रोपदी का चीर हरण करने का आदेश दिया था | द्रोपदी भगवान् श्री कृष्ण की भक्त थी और श्री कृष्ण उसे सखी कहकर पुकारते थे | चीरहरण होने के प्रारम्भ में द्रोपदी अपने वस्त्रों को दोनों हाथों से पकडे रखकर नग्नता से बचने का असफल प्रयास कर रही थी | परन्तु जब उसने देखा कि मेरा यह प्रयास मुझे नग्न होने से बचा नहीं सकेगा, तब उसने अपने हाथों से वस्त्रों को छोड़ दिया और कर-बद्ध होकर श्री कृष्ण के शरणागत होकर उन्हें पुकारने लगी | भगवान् श्री कृष्ण तुरंत वहां पहुँच गए और वस्त्र बनकर उससे लिपट गए | भगवान् का न आदि है, न अंत | इसी प्रकार द्रोपदी के वस्त्रों का भी कोई ओर-छोर नहीं रहा | इस प्रकार भगवान की शरण लेते ही द्रोपदी की इज्जत बच गयी | कहने का अर्थ यह है कि परमात्मा की शरण लेने से परमात्मा को आपके लिए दौड़कर आना ही पड़ता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् 

Saturday, June 3, 2017

मामेकं शरणं व्रज – 2

मामेकं शरणं व्रज – 2
                 ज्यों ज्यों भक्ति मार्ग पर भक्त प्रगति करता है, धीरे-धीरे सगुण-साकार का स्थान निर्गुण-निराकार लेने लगता है | एक आदर्श भक्त इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता, अतः वह परमात्मा से एकाकार नहीं होना चाहता | वह और उसका भगवान, दो ही बने रहना चाहते है | वह परमात्मा के सगुण-साकार स्वरूप की उपासना में ही सदैव आनंदित रहना चाहता है | सम्पूर्ण शरणागति के लिए इस द्वैत अवस्था से आगे बढ़कर अद्वैत की ओर जाना होगा | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि भक्ति की सर्वोच्च अवस्था का नाम ही शरणागति है | भक्त परमात्मा की शरण तो रहता है परन्तु पूर्णता के साथ नहीं | एक बार शरणागत हो जाने से भक्त किसकी पूजा अर्चना करे क्योंकि शरणागति की अवस्था में भक्त बचता ही नहीं है, भक्त स्वयं ही भगवान हो जाता है | भक्ति में क्रिया रहती है जबकि शरणागति किसी भी प्रकार की क्रिया से रहित है | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को भक्त होने का कहने के बाद ही शरणागत होने को कहते हैं क्योंकि अर्जुन किसी भी प्रकार की कोई क्रिया करने में लिप्त होना ही नहीं चाहता | भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् || गीता-18/62 ||
अर्थात हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा |
             जब तक भक्ति है, तब तक भगवान भी है और भक्त भी | शरणागति में भक्त नहीं रहता बल्कि वह स्वयं ही भगवान के साथ एकाकार हो भगवान ही हो जाता है | ऐसे में शरणागत किसकी भक्ति करे ? आनंद तो परमात्मा की भक्ति में है, शरणागति में नहीं | भक्त कहता है, भगवान मेरे हैं और मैं भगवान का हूँ | शरणागत कहता है, मैं अलग से कुछ हूँ ही नहीं, मैं भगवान के आश्रय में हूँ और सब कुछ भगवान ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, June 2, 2017

मामेकं शरणं व्रज - 1

मामेकं शरणं व्रज - 1  
         भक्ति की परिणिति शरणागति है | शरणागति और भक्ति, दो शब्द अवश्य हैं परन्तु दोनों का मंतव्य एक ही है | दोनों में ही लक्ष्य ‘परमात्मा से एकाकार’ होने का होता है | प्रायः मेरे मित्र मुझसे पूछते रहते हैं कि फिर भक्ति और शरणागति में ऐसा कौन सा अंतर है, जो आप इन दोनों को अलग-अलग उद्घृत करते हैं | सतही रूप से देखा जाये तो दोनों में किसी भी प्रकार का भेद दृष्टिगत नहीं है परन्तु गहराई से विचार करें तो दोनों में बड़ा ही सरल और मार्मिक भेद भी है |
       भक्ति-मार्ग में भक्त को भगवान् की ओर चलना पड़ता है, जबकि शरणागति में भगवान् को भक्त तक आना पड़ता है | भक्ति के प्रारम्भ में ज्ञान का होना आवश्यक नहीं है, जबकि भक्ति की परिणिति ज्ञान में होती है | शरणागति का आधार ही ज्ञान है और इसकी परिणिति सम्पूर्ण ज्ञान में होती है | भक्ति में मुख्य आधार पूर्वजन्म के संस्कार और कर्म होते हैं जबकि शरणागति का मुख्य आधार परमात्मा में श्रद्धा और तात्विक ज्ञान का होना है | भक्ति में भक्त ब्रह्म को पा सकने के बाद भी उसके साथ एकाकार होना नहीं चाहता क्योंकि एक भक्त को भक्ति में ही बड़ा सुख और आनन्द मिलता है | भक्ति के लिए दो का होना आवश्यक है, एक भक्त और दूसरा भगवान | इस कारण से भक्ति में भक्त का अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं होता | भक्ति में भक्त और भगवान दोनों एक साथ बने रहते हैं जबकि शरणागति में एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य रहता ही नहीं है | सबसे बड़ा और मुख्य अंतर यह है कि भक्ति प्रायः परमात्मा के सगुण और साकार रूप की, की जाती है जबकि शरणागति में परमात्मा के सगुण साकार स्वरूप पर निर्गुण निराकार की प्रमुखता होती है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, June 1, 2017

मन्मना भव मद्भक्तो – 28

मन्मना भव मद्भक्तो – 28
सार-संक्षेप –
         भक्ति परमात्मा से जुड़ने की सतत चलने वाली एक प्रक्रिया है | यह प्रक्रिया जिस किसी भी व्यक्ति द्वारा की जाती है, उस व्यक्ति को भक्त कहा जाता है | कर्म और ज्ञान भी भक्ति के ही साधन है परन्तु इन दोनों ही साधनों में श्रम अधिक करना पड़ता है | भक्ति के साधन के अंतर्गत नवधा-भक्ति भी एक महत्वपूर्ण और सरल साधन है, जिसको एक साधारण व्यक्ति भी कर सकता है | श्रवण और कीर्तन से प्रारम्भ हुआ यह साधन आत्म-निवेदन तक यात्रा कर परमात्मा को प्राप्त कराता है | इस सरल साधन के किसी भी एक अंग पर आकर रूक जाना भक्ति मार्ग में हो रही प्रगति को रोक देना है, जो परमात्मा से दूरी रख देता है | भक्ति के किसी एक अंग पर आकर ठहर जाने से परमात्मा के साथ एकीकरण होना असंभव हो जाता है, जो व्यर्थ ही कुंठा को जन्म देता है | अतः भक्ति-मार्ग पर एक-एक एक कर सभी अंगों को साधन बनाते हुए परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है |
             जो व्यक्ति भक्ति के इस सरल मार्ग का अवलंबन करता है, उसको सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है | यह भक्ति की सर्वोच्च अवस्था होती है, जिसे पराभक्ति अथवा परम सिद्धि भी कहा जाता है | इस अवस्था पर पहुंच जाने के पश्चात न तो कुछ करने को शेष रहता है, न ही कुछ जानने को और न ही कुछ मानने को | भक्त इस अवस्था को उपलब्ध होकर स्वयं ही भगवान बन जाता है | इस भक्ति, जिसे अनन्य भक्ति अथवा अव्यभिचारिणी भक्ति कहा जाता है, को उद्घृत करते हुए केवल एक बार भगवान श्री कृष्ण ने गीता में भक्ति-योग शब्द का उपयोग किया है | वे कहते हैं –
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || गीता-14/26||
अर्थात जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति-योग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है, वह भी प्रकृति में स्थित तीनों गुणों को लांघकर ब्रह्म को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है |
                   केवल एक परमात्मा को ही सर्वेसर्वा मानते हुए, स्वार्थ रहित होकर तथा अभिमान को त्यागकर श्रद्धा और भावपूर्ण प्रेम से निरंतर उसका चिंतन करना ही अव्यभिचारी भक्ति-योग है | इसी योग को प्राप्त कर पुरुष अपने जीवन में ही परमात्मा के साथ एक होकर ब्रह्म भूत हो जाता है |
              भक्ति एक ऐसा विषय है, जिस पर कितना ही चिंतन किया जाये, चाहे जितना लिखा जाये, सब अपर्याप्त है | मेरा प्रयास था कि “भक्ति” विषय को सरल और स्पष्ट रूप से आपके समक्ष रखूं, कितना सफल रहा, केवल पाठक ही बता सकते हैं | शरणागति भक्ति की चरम अवस्था का नाम है | वैसे भक्ति और शरणागति दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है, फिर भी मित्रों के आग्रह के कारण इसे अलग विषय के रूप में लेकर स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ । चलिए, फिर कल से शरणागति विषय पर थोडा सा अलग से चिंतन कर ही लेते हैं |
कल से – ‘मामेकं शरणं व्रज....’
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

 || हरिः शरणम् ||