मामेकं शरणं व्रज – 14 अंतिम कड़ी
आदि
शंकराचार्य कहते हैं कि धर्म का अर्थ ही द्वैत होना है | जब धर्म है तो अधर्म भी
होगा | हमें इन सबसे ऊपर उठना होगा | रामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि अधर्म से बचने
के लिए ही धर्म की आवश्यकता होती है | जब हम शरणागत हो जाते हैं, तो फिर धर्म को
भी त्याग देते है | रामकृष्ण परमहंस इस बात को पैर में चुभे एक कांटे के उदाहरण से
समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पैर में चुभे एक कांटे को दूसरे कांटे से
निकलते हैं और काँटा निकल जाने पर हमें दोनों ही काँटों को फैक देना होता है |
इसका कारण यह है कि अब दूसरे कांटे की भी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है, क्योंकि
उससे कार्य लिया जा चूका है | इसी प्रकार धर्म केवल अधर्म को जीतने के लिए है |
अधर्म को जीतते ही धर्म को भी त्याग देना चाहिए | उपलब्धि के उच्चत्तम स्तर पर
धर्म और अधर्म के दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं है | भक्ति में हमें द्वैत के स्तर
पर बने नहीं रहना चाहिए | तभी शरणागति सार्थक है |
हम शुद्ध आध्यात्मिक चेतना के
स्तर पर रहते हैं | ईश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है और पुनः ईश्वर में ही लौट
जायेगा | इस प्रक्रिया में कई करोड़ वर्ष लग जायेंगे | लेकिन आप और मैं, हम सभी इस
जन्म में ही यह सब प्राप्त कर सकते हैं | यह एक आध्यात्मिक उपलब्धि होगी |
परमात्मा के पूर्ण रूप से शरणागत हो जाइये और विचार कीजिये कि एक से यह जगत आया है
और एक में (मुझमें) अब यह जगत समा रहा है | शरणागत होने पर, समर्पण से हम परम
ब्रह्म के साथ एकाकार होते हैं , हम उस परम ब्रह्म के साथ असीम एकता को प्राप्त
होते हैं | शरणागति परम ज्ञान को उपलब्ध होना है | यह परम ज्ञान है कि ब्रह्म ही
सब कुछ है, ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब यह ज्ञान हो जाता है तो सत्य
को जान लिया जाता है | शरणागति में मनुष्य ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता है
| अतः भक्ति-मार्ग पर चलते हुए शरणागति को प्राप्त होना ही श्रेयस्कर है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आज सेन फ्रांसिस्को (संयुक्त राज्य अमेरिका) के लिए
यात्रा पर प्रस्थान कर रहा हूँ | अतः नए विषय पर श्रृंखला प्रारम्भ करने में कुछ दिनों
का विलम्ब हो सकता है | शीघ्र ही आपसे पुनः साक्षात्कार होगा | आप सभी का ह्रदय से
आभार |
|| हरिः शरणम् ||