भूख -9
शरीर की वासना भूख मानसिक भूख है। यह वास्तव में स्थूल शरीर का भूख न क्षत्र सूक्ष्म शरीर का भूख है। दोनों के शरीर की भूख में ज्यादा अंतर नहीं है। मन में किसी वस्तु या पदार्थ की प्रति आसक्ति हो जाती है, तब मानसिक भूख तेज हो जाती है। अभी तक हमने काम-भोग की चर्चा की है। दूसरी वासनामय भूख, संग्रह की भूख है। काम-भोग के बाद इस वासनामय भूख का दूसरा उदाहरण धन का संग्रह करना है। धन का संग्रह करने वाला धन का उपयोग नहीं कर सकता। धन कमाना अनुचित नहीं है बल्कि धन को महत्वपूर्ण मानने के लिए केवल उसका संग्रह करना अनुचित है। धन की आवश्यकता नौकरों के लिए है। आवश्यकता है शेष धन का सदुपयोग करते हुए उसे सद्कार्यों में लगाना देना है। ऐसा करने से धन के संग्रह की भूख ख़त्म हो जाती है।
धन के लोभी व्यक्ति के मन में धन ने अपना विशेष स्थान बना लिया है जिससे वह अपने प्रिय का ही संग्रह कर लेता है फिर भी भूखा का खाना ही रह जाता है। वास्तव में धन के त्याग से जो सुख मिलता है, वह धन के संग्रह से नहीं। स्वामीजी कहते हैं कि जिस वस्तु के आकर्षण से जो सुख मिलता है, वह उस वस्तु के ज्ञान से नहीं - यह सिद्धांत है। धन के आकर्षण (लोभ) से जो सुख मिलता है, वह धन के ज्ञान से नहीं।
क्रमशः
मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल
.. हरिः शरणम् ।।
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