भूख -8
सामाजिक वर्जनाएँ और शारीरिक विवशताएँ भले ही पुरुष को स्त्री-भोग से रोक दें फिर भी रूप-रस को भोगने से वह कभी बाज़ नहीं आता । मनुष्य के जीवन की विडम्बना है कि वह विषय- भोग में आकण्ठ डूबा हुआ है । आज तक भोगों से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ है । शरीर की आवश्यकता अनुसार भोज्य पदार्थ सभी को मिलते हैं परंतु जब आवश्यकता मय भूख वासना बन जाती है तब उसका अन्त नहीं आता । विषय-भोग ही जीवन में दुःख का कारण बनते हैं । विषयों की यह तृष्णा ही उसके दुःख का कारण है ।
या दुस्त्यज्या दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते ।
तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ।। भागवत - 9/19/16 ।।
विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्ग़म स्थान है । मंदबुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से इसका त्याग कर सकते हैं । शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन होती जाती है । अतः जो कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र से शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिए ।
प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है, फिर भी भोगों से उसका वैराग्य नहीं हो पाता । इसीलिए अष्टावक्र महाराज राजा जनक को कहते हैं -
मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पियूषवद् भज ।। अ.गी. -1/2।।
हे प्रिय ! यदि तू मुक्ति को चाहता है, तो विषयों को विष के समान त्याग दे और क्षमा, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत के सदृश सेवन कर ।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।
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