भूख -12
सांसारिक भूख के बाद बात करते हैं आध्यात्मिक भूख की । अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर मनुष्य ने अहम् के कारण एक अलग संसार बना लिया है, जिसमें आसक्त होकर उसमें फँस गया है । इससे मुक्त होने के लिए उसके भीतर जो छटपटाहट होती है, वह उसकी आध्यात्मिक भूख है । संसार अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति के अन्तर्गत है । संसार क्षर है, जीव अक्षर है । क्षर से मुक्त होने के लिए अक्षर अर्थात् जीव की प्रकृति (परा प्रकृति) का ज्ञान होना आवश्यक है । अध्यात्म का यही अर्थ है कि जीव अपने स्वभाव को जाने । अक्षर जीव उस अक्षर परमात्मा का अंश है जिसे उत्तम पुरुष कहा जाता है । स्वयं को जानने के लिए हमें संसार से अपने आपको अलग करना होगा । संसार से अलग होने के लिए अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना होगा तभी हम अहम् से स्वरूप तक पहुंचेंगे । इस प्रकार मनुष्य जीवन की यह आध्यात्मिक भूख उसकी ‘स्वभाव से स्वरूप तक’ की यात्रा कराती है ।
सांसारिक भूख और आध्यात्मिक भूख, दोनों ही भूख हैं, फिर इनमें अंतर क्या है ? सांसारिक भूख को जितना हम मिटाने की कोशिश करते हैं, वह उतनी ही अधिक भड़कती है । सांसारिक भूख के कारण जीवन अशांति से घिरा रहता है । आध्यात्मिक भूख का पहले तो जाग्रत होना कठिन है और जब जाग्रत हो जाती है तब जीवन में शांति का अवतरण होने लगता है । आध्यात्मिक भूख ऐसी भूख है जिसको मिटाने के प्रयास मात्र से ही जीवन में संतुष्टि का अनुभव होने लगता है । सांसारिक भूख के लिए कितने ही प्रयास कर लें वह आपको सदैव असंतुष्ट ही बनाए रखती है । सांसारिक भूख संसार के भोजन को चाहती है और आध्यात्मिक भूख परमात्मा के भजन को ।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।
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