भूख -10
वासनामय भूख जब विस्तार पाती है तो मन तक अपना फैलाव कर लेती है । शरीर जब किसी विषय विशेष के प्रति आसक्त होकर क्रिया को करने में असहाय हो जाता है तब व्यक्ति मन में उसी विषय से सुख भोगने के लिए क्रिया (चिन्तन) करने लगता है अर्थात् मन के माध्यम से वह उस क्रिया का सुख लेता रहता है । उस क्रिया से मानसिक सुख तो मिल सकता है परंतु भूख नहीं मिट सकती ।
शारीरिक भोग की तरह ही मानसिक भोग से भी व्यक्ति कभी तृप्त नहीं हो सकता क्योंकि संसार की वस्तुएँ चाहे स्थूल रूप में हो अथवा काल्पनिक रूप में, भोग के लिए बनी ही नहीं है, वे तो केवल उपयोग के लिए है । जितनी आवश्यकता है, केवल उतनी का ही उपयोग करेंगे तो भूख कभी विस्तारित नहीं होगी ।
शास्त्रों में शारीरिक भोग से भी मानसिक भोग को अधिक पतन करने वाला बताया है । शारीरिक रूप से तो किसी एक विषय का भोग कर आप कुछ समय के लिए शान्त हो जाते हैं परंतु मानसिक भोग को आप अनिश्चित काल तक सतत भोगते हुए अशान्त बने रहते हैं । शारीरिक भूख को मिटाने के लिए आप इंद्रियों के माध्यम से विषय-भोग करते हुए रस लेते हैं परन्तु मानसिक भूख में आपके सामने विषय नहीं होता, फिर भी आप उसका रस लेते रहते हैं । गीता में भगवान ने कहा है कि इंद्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता अर्थात् उसकी शरीर और संसार में रसबुद्धि बनी रहती है । (गीता-2/59) । इस प्रकार कहा जा सकता है कि शारीरिक भूख से मानसिक भूख अधिक उग्र और विनाशकारी होती है ।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।
No comments:
Post a Comment